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1 जनवरी को नववर्ष मनाकर हम गुलामी की लकीर पीटते हैं

मुझे फ्रांस की क्रांति का वह सच्चा वाकया नहीं भूलता क्रांतिकारियों ने फ्रांस की सत्ता को स्वतंत्र करा लिया था। इसलिए बरसों से कारागृहों में सड़ रहे फ्रांसिसी कैदियों को मुक्त कराया गया। परन्तु ज्यों ही उनकी शृंखलाएँ तोड़ी गईं, उन्हें सूरज के सुनहरे उजाले में लाया गया- वे सहम गए। उल्टे पांव कारागृह की अंधेरी दुनिया की ओर दौड़ पड़े और लौह बेड़ियों को उन्होंने स्वयं पर फिर से डाल लिया। यह क्या था? गुलामी की आदत परतंत्रता के रंग में रचना बसना।

बहुत हद तक वर्तमान भारत की भी मुझे यही दारुण स्थिति दिखाई देती है। बरसों पूर्व हमारे स्वतंत्रता संग्रामियों ने ‘Quit India- भारत छोड़ो’ के नारे लगाए। स्वदेशी सेनानियों ने माँ भारती पर कसी अंग्रेजी जंजीरें तोड़ डालीं। भारत में पूर्ण स्वराज्य का भुवन भास्कर उदित हुआ। उसका सुनहरा उजियारा एक बुलंद आह्वान बनकर पूरे राष्ट्र पर छितरा आह्वान यह कि ‘हे भारतीयों अब तुम उन्मुक्त हो इसलिए अब अपनी धरती पर, अपने आकाश तले, अपनी रीतियों-नीतियों और प्रीतियों के ढंग में अपनी संस्कृति और संस्कारों के रंग में, अपनी शर्तों पर जी सकते हो।

पर शायद परतंत्रता हमारे मन में गहरी बैठ चुकी थी। अंग्रेज तो चले गए थे। मगर हम अंग्रेजीयत की बेड़ियाँ उतार फेंकने को राजी नहीं थे। हमें मानसिक गुलामी की कजरी कोठरियाँ भा गई थीं। इसका ज्वलंत प्रमाण है- ‘Government of India Act यह एक ऐसी लौह जंजीर थी, जिससे अंग्रेजों ने भारतीय जनता को बरसों जकड़े रखा। ऐसी कुचक्री सलाखें, जिनके पीछे हमारे संग्रामियों के उमगते हौंसलों को कैद रखा गया अंग्रेजों के जाते ही हमें इन बेड़ियों या सलाखों याने इस एक्ट की कतरा-कतरा धज्जियाँ उड़ा देनी चाहिए थीं। परन्तु नहीं आप विश्वास करेंगे? इस ‘गवरमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट’ के ३४७३५ कानून हमने ज्यों के त्यों आँखें मूंद कर अपने संविधान रूप में अपना लिए। Indian Police Act, Indian Civil Services Act, Indian Penal Code, Criminal Procedure Code, Indian Evidence Act, Civil Procedure Code, Indian Citizenship Act-आदि इत्यादि नियमों में हमने एक आने का भी हेर-फेर नहीं किया और मूक-बधिरों की तरह उन्हें शिरोधार्य किए रखा। यह बेड़ियाँ पहने रखना नहीं, तो और क्या है?

स्वतंत्रता प्राप्ति के ५० वर्षों के बाद तक हमारा बजट सांय ५:०० बजे प्रसारित होता रहा? सुबह, दोपहर या हमारे कार्यालयों की कार्य-अवधि के दौरान नहीं जानते हैं क्यों? क्योंकि अंग्रेजी सत्ता के समय ऐसा ही कायदा था। इसलिए कि जब भारत में शाम के ५:००बजते हैं, तब इंग्लैंड में सुबह के लगभग ११:३० होते हैं। अतः भारत में बैठे अंग्रेजी नुमाइंदे संध्याकाल में बजट पेश करते, ताकि इंग्लैंड के सरकारी अफसर अपनी कार्य-अवधि में उसे आराम से सुन सकें ५० सालों तक हमें अपनी इस असुविधा तक का भान न हुआ और हम बिना सोचे-समझे इस अंग्रेजी चलन को ढोते रहे।

अनगणित उदाहरण हैं, जो हमारी मानसिक गुलामी के मुँह बोलते प्रमाण हैं। इसी शृंखला में एक प्रथा है- नव वर्षोत्सव पहली जनवरी को मनाना। वास्तव में, सन् १७५२ में इस प्रचलन को अंग्रेजों ने ही भारत में आयात किया और आरोपित कर डाला। इस चलन में हमारी अपनी कोई सोच-सुधि या इतिहास नहीं है। इसकी जड़ें तो ७१३ ई. पूर्व रोम के इतिहास में हैं। उस काल में रोमन लोग एक कैलन्डर मानते थे, जिसमें एक वर्ष में १० महीने हुआ करते थे। परन्तु ४७ ईसा पूर्व रोमन शासक जूलियस सीजर ने इसमें कतिपय बदलाव किए और तब यह ‘जूलियन कैलन्डर’ के नाम से विख्यात हुआ। इसके बाद सन् १५८२ में पोप ग्रेगोरी अष्टम ने इसमें लीप ईयर जोड़ा व कुछ और परिवर्तन किए। तभी से यह कैलन्डर ‘ग्रेगोरियन’ कहलाया और आज पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व जमा रहा है। यह कैलन्डर सूर्य पर आधरित है। अतः जितना समय पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करने में लेती है, अर्थात् ३६५ दिन, ५ घंटे, ५२ मिनट, ४५ सैकेन्ड- उतने का ही इस कैलन्डर में एक वर्ष प्रतिपादित किया गया। वर्ष का प्रथम दिन रखा गया १ जनवरी!

विडम्बना यह घटी कि अंग्रेजों के कूच कर जाने के बाद भी हम इसी कैलन्डर के संकेतों पर नृत्य करते रहे। पहली जनवरी को ही नववर्ष का उद्घाटन करने लगे। स्वयं अपने संवत्सर और काल गणना को बिसार बैठे। संभवतः आपको यह भी न पता हो कि हमारे भारत का एक निजी कैलन्डर और काल-गणना भी है, जिसे ‘भारतीय संवत्सर’ या ‘विक्रमी संवत्’ कहते हैं। लगभग २०५४ वर्ष पूर्व भारत के एक महान सम्राट महाराज विक्रमादित्य ने प्राचीनतम अथवा वैदिक काल-गणना के आधार पर इस संवत् की स्थापना की थी। यह कैलन्डर शुरु से ही १२ माह का था तथा सूर्य और चंद्रमा- दोनों पर आधरित एक सर्वोत्तम वैज्ञानिक नमूना था। रोमन, अंग्रेजी, चीनी, अरबी विश्व के सभी कैलन्डरों से पूर्व इस विक्रमी संवत्सर का निर्माण हो गया था। इसकी कालगणना से तो साफ झलकता है कि यह सबसे वयोवृद्ध है। जहाँ ग्रेगोरियन कैलन्डर की गणना केवल २०१० वर्षों के इतने कम समय को दर्शाती है; यूनान की काल-गणना ३५७९ वर्षों, रोम की २७५६ वर्षों, यहूदियों की ५७६७ वर्षों, मिस्र की २८६७० वर्षों पुरानी है- वहीं भारतीय संवत् सृष्टि के आदि काल से उद्घाटित होता है। विक्रम संवत् के अनुसार नववर्ष का श्री गणेश चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को माना गया है। ब्रह्माण्ड पुराण का वर्णन है कि यही वह दिन है, जब सृष्टि सृजन की लीला शुरु हुई-

चैत्रे मसि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति।।
ऋगवेद के दशम मण्डल के १९० वें सूक्त में भी एक मंत्र साफ-साफ बताता है कि- समुद्रादर्णवादधि -संवत्सरोऽजायत अर्थात् तरंगों के महासागर से संवत्सर उत्पन्न हुआ। कहने का तात्पर्य यह है कि हिरण्यगर्भ से जब सृष्टि-निर्माण के लिए शब्द-तरंगों का झंझावात उठा, तभी से भारतीय संवत्सर आरम्भ हो गया। यही कारण है कि इस आदि संवत्सर को भारत के कुछ प्रांतों में ‘युगादि’ अर्थात् ‘युग का आदि’ नाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा है।

अब आप स्वयं आकलन करके दखिए- कहाँ भारत का आदि-युगादि वयोवृद्ध संवत्सर और कहाँ अंग्रेजों का शिशुवत ग्रेगोरियन कैलन्डर यह तो बिल्कुल वही बात हुई- ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली और यह अंतर की खाई केवल आयु के स्तर पर ही नहीं घटी। भारतीय संवत्सर हर पक्ष में श्रेष्ठता के शिखर पर आसीन दिखाई देता है। इसके विपरीत ग्रेगोरियन कैलन्डर में बहुत सी पेचीदा घटनाएँ-दुर्घटनाएँ तक नजर आती हैं।

उदाहरण के तौर पर एक वर्ष में महीनों की गिनती को ही लीजिए। जैसा कि पहले कहा गया, रोमन कैलन्डर में १० माह थे। बाद में जाकर जूलियस सीजर ने मान्यताओं और सुना-सुनी के आधार पर इसमें २ माह और जोड़े। जबकि भारत के प्राचीनतम वाड्.मय वेदों ने मानव-सभ्यता के शुरुआती दौर में ही यह निश्चित कर दिया था- ‘द्वादशमासैः संवत्सरः’- एक वर्ष बारह महीनों का है। कहीं कोई हिचकिचाहट या भ्रम नहीं! स्पष्ट वाक्य!

आगे की बात करें, तो ग्रेगोरियन संवत् में महीनों के नामों के पीछे भी मनमर्शी का खेल नजर आता है। जूलियस सीजर ने जो दो माह जोड़े, उनका नामकरण स्वयं अपने और अपने भतीजे अगस्तस के नाम पर कर दिया। यही महीने जुलाई और अगस्त कहलाए। चूंकि ये राजा जूलियस द्वारा निर्धारित किए गए थे, इसलिए इन दोनों महीनों में ३१ दिन रखे गए। अन्य महीनों के नाम भी श्रद्धालु मान्यताओं के बूते पर रोमन देवताओं; जोनस, मार्स, मया इत्यादि; के नामों पर दिए गए। किन्तु इसके उलट, भारतीय संवत्सर में ऐसे किसी भाई-भतीजेवाद की छाप नहीं पड़ी। न ही मान्यताओं या मनोनीत धारणाओं के आधार पर महीनों का नामकरण हुआ। भारतीय संवत्सर में महीनों के नाम पूर्णतः वैज्ञानिक ढंग से, आकाशीय नक्षत्रों के आधार पर रखे गए। यजुर्वेद के २७ वें अध्याय का ४५ वां मंत्र व ३० वें अध्याय का १५ वां मंत्र बताता है- ‘सौर मण्डल के ग्रह-नक्षत्रों की चाल और स्थिति पर ही हमारे दिन, माह और साल आश्रित होते हैं।’ जैसे कि जिस महीने में चित्रा नामक नक्षत्र प्रभावी होता है, हमारे मनीषियों ने उस महीने का नाम रखा- ‘चैत्र’। इसी प्रकार विशाखा नक्षत्र से युक्त महीना कहलाया- ‘वैशाख’, ज्येष्ठा नक्षत्र वाला महीना कहलाया- ‘ज्येष्ठ’ इसी सटीक और वैज्ञानिक क्रम से भारतीय संवत् में महीनों का नामकरण हुआ।

इसी प्रकार ग्रेगोरियन कैलंडर का कोई भी अनुयायी यह नहीं बता सकता कि संडे के बाद मंडे क्यों आया, मंडे के बाद ट्यूशडे क्यों। जबकि भारतीय कैलन्डर में सप्ताह के सातों दिन ग्रहों व उनके प्रभावों पर आधारित होते हैं।

वैसे भी, ग्रेगोरियन कैलंडर में कोई विशेष बात नहीं दिखती। उसका सीमा-क्षेत्र बस इतना ही है कि आप उससे तिथियों, सप्ताहों, माहों और वर्ष का ब्यौरा पा सकते हैं। परन्तु विक्रमी संवत् का कैलन्डर याने पंचांग एक तरह से आपकी जीवन-सारिणी, एक सशक्त मार्गदर्शक होता है। कारण कि उसमें तिथियों, सप्ताहों, महीनों और वर्ष के अलावा सूर्योदय, सूर्यास्त, चंद्रमा की गति व चाल, नक्षत्रों की स्थिति आदि तथ्यों का भी ब्यौरा दिया गया होता है।

इसके अतिरिक्त ग्रेगोरियन कैलंडर में कुछ नौसिखिये पहलू भी दीख पड़ते हैं। जैसे कि अर्धरात्रि को १२:००बजे घुप्प अंध्कार के बीच, जब सारी दिनचर्या ठप्प पड़ जाती है- तब ग्रेगोरियन कैलंडर के हिसाब से नया दिन करवट लेता है। आधी रात को तिथि बदल जाती है पर वहीं दूसरी ओर, भारतीय संवत् के अनुसार हर सूर्योदय के साथ, जब धरा पर नारंगी किरणें बिखरती हैं, तब नया दिन चढ़ता है। माने सूर्यदेव के दर्शन के साथ ही नए दिन का सुस्वागतम् कहिए कौन सी बात ज्यादा जंचती है?

हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जीवन भर एक हास्यास्पद उलझन से जूझते रहे। वह यह कि उनका जन्मदिवस २९ फरवरी को पड़ता था। अंग्रेजी कैलन्डर के अनुसार यह दिन ३ वर्षों के बाद माने लीप ईयर में ही आता था। विश्व भर में लाखों लोग देसाई जी की इस दुविधा के सहभागी होंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह अंग्रेजी कैलन्डर सूर्य पर आधारित है। एक वर्ष-चक्र के समय ३६५ दिन, ५ घंटे को जमा करने पर हर ३ वर्षों के बाद एक दिन फालतू निकल आता है, जिसे चौथे वर्ष फरवरी माह में जोड़ना पड़ता है।

यही नहीं, वैसे भी इस ग्रेगोरियन कैलन्डर में महीनों के दिन २८ से ३१ तक अदलते-बदलते रहते हैं। महीनों में सप्ताह के दिन भी स्थिर नहीं रहते। महीने या वर्ष की शुरुआत कभी भी याने किसी भी दिन से हो जाती है। पर वहीं दूसरी ओर, भारतीय कैलन्डर में ऐसे जबरदस्ती के जोड़-तोड़ या हेरा-फेरियों का कोई अवकाश नहीं।

यही कारण है कि ग्रेगोरियन कैलन्डर में ४०० वर्षों पहले तक संशोधन होते रहे और आज भी बहुत से सुधारों की आवश्यकता है। इसके विपरीत विक्रम संवत् ‘सूर्य-सिद्धान्त’ द्वारा संचालित है। इस सिद्धांत का गणित एकदम सटीक और त्रुटिहीन है। इस सिद्धांत के अनुरूप यदि सृष्टि के प्रथम दिन से आज तक का आकलन किया जाए, तो एक दिन का भी फर्क नहीं मिलता।

अब इन समस्त तर्कों और तथ्यों के प्रकाश में आप स्वयं निर्णय लें कि हमें किस संवत् पर आश्रित होना चाहिए किसकी गणनाएँ अधिक विश्वसनीय हैं? किसका नववर्ष का आरम्भ हमारे लिए सच में शुभ और मंगलमय है- वैज्ञानिक, व्यावहारिक, आध्यात्मिक- सभी दृष्टिकोणों से ग्रेगोरियन कैलन्डर द्वारा प्रतिपादित १ जनवरी की बात करें, तो इस दिन नएपन का कोई मांगल्य, कोई सार्थक कारण दिखाई नहीं पड़ता। बरसों पहले किसी मनमुख राजा ने इसका फरमान जारी किया और बस हमने मान लिया नहीं तो, पहली जनवरी की ठिठुरती सर्दियों में, जब सारी प्रकृति सुप्त, गुमसुम और जमी हुई होती है, जर्रा-जर्रा मानो उंघ और अलसा (hibernate) रहा होता है- तब काहे का और कैसा नववर्ष इसके विपरीत भारतीय संवत् के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर नवीनता की छटा अपने आप ही प्रत्यक्ष हो जाती है। एक नहीं, अनेक युक्तियाँ इस दिन को वर्ष का पहला दिवस घोषित करती हैं। जैसे-प्राकृतिक चेतना अंगड़ाई भर उठती है।य़

चैत्र शुक्ल के आते-आते कड़कती ठंड के तेवर ढीले पड़ चुके होते हैं। बर्फीली हवाएँ बसन्त की बयार बन जाती हैं। बसन्त ऋतु के लिए कवि कालिदास जी ने कहा है- ‘सर्वंप्रिये चारुतरं बसन्ते।’ श्री कृष्ण गीता में कहते हैं- ‘समस्त ऋतुओं में मैं बसन्त हूँ।’ चैत्र शुक्ल को इसी सर्वप्रिय, सर्वश्रेष्ठ ऋतुराज का पूरी प्रकृति पर राज हो जाता है। शाखाओं पर नए पल्लव खिलने लगते हैं। फल-फूलों में मधुरस भर जाता है। फाल्गुन के इंद्रधनुषी रंग जहाँ-तहाँ छितरे दिखते हैं। उजले दिन बड़े और अंधेरी रातें छोटी हो जाती हैं। इसी के साथ प्रकृति का कण-कण, नव उमंग, उल्लास और प्रेरणा के संग, अंगड़ाई भर उठता है। यह चेतना, यह जागना, यह गति- यही तो नववर्ष के साक्षी हैं!

सामाजिक चेतना उत्सवमयी
वैसे भी देखा जाए, तो चैत्र नक्षत्र के चमकते ही कश्मीर से लेकर केरल तक, भारत में उत्सवों के नगाड़े बज उठते हैं। जैसे- जम्मू-कश्मीर में ‘नौरोज’ या ‘नवरेह’, पंजाब में ‘वैशाखी’, महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’, आंध्र प्रदेश में ‘उगादि’, सिंधी में ‘चेतीचंड’, केरल में ‘विशु’, असम में ‘रोंगली बिहू’, बंगाल में ‘पोयला बैशाख’, तमिलनाडु में ‘पुठन्डु’- ये सभी उत्सव भारत की सामाजिक चेतना को अपनी थाप पर थिरकाते हैं। ये एक प्रकार से नववर्ष के ही सूचक होते हैं। इसी दिन नवरात्रों का भी शुभारम्भ होता है और भारत भर में माँ जगदम्बा के जयकारे गूँज उठते हैं। अतः चैत्र शुक्ल पर ही भारत की सामाजिक चेतना नववर्ष में प्रवेश करती है।

ऐतिहासिक गौरव का प्रतीक!
इतिहास के झरोखों से झांकने पर भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथियों की रानी जैसी दिखती है। जैसे कि आपने पहले भी पढ़ा कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सूत्रापात किया था। ‘स्मृति कौस्तुभ’ के अनुसार इसी घड़ी में भगवान नारायण ने मत्स्यावतार धारण किया था। यही वह शुभ दिवस था, जब अयोध्या में श्री रामचंद्र भगवान का राज्याभिषेक हुआ था। युगाब्ध संवत् का भी पहला दिन यही है अर्थात् द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर के भी राज्याभिषेक का यही दिवस है। सिख इतिहास के द्वितीय पातशाही गुरु अंगद देव जी व सिंध प्रांत के संत झूलेलाल जी का भी प्रगटोत्सव इसी दिन मनाया जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज की स्थापना इसी शुभमुहूर्त में की थी।

अध्यात्म बल की धनी!

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘शुभ मुहूर्त’ इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस दिन नक्षत्रों की दशा, स्थिति और प्रभाव उत्तम होता है। गणेश्यामल तंत्र के अनुसार पृथ्वी पर नक्षत्रलोक से चार प्रकार की तरंगें गिरती रहती हैं- यम, सूर्य, प्रजापति और संयुक्त। चैत्र शुक्ल को विशेष रूप से प्रजापति और सूर्य नामक तरंगों की बरखा होती है। ये सूक्ष्म तरंगें अध्यात्म बल की बहुत धनी और उत्थानकारी हुआ करती हैं।

अतः यदि इस शुभ घड़ी में सुसंकल्पों के साथ नए साल में कदम रखा जाए, तो कहना ही क्या अंत में, मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमने स्वतंत्रता क्रांति छेड़कर अंग्रेजों से केवल अपनी सत्ता छीनी है। परन्तु यह स्वतंत्राता अधूरी है। यह क्रांति अधूरी है। अब इस क्रांति को पूरा करना है। भारत को (संस्कृति-ह्रासक) अंग्रेजियत से भी मुक्त कराना है। और भारतीय संवत् व उसके आधार पर नववर्षोत्सव का स्वागत- हमारे विजयगीतों के सुरों को और सुरीला करेगा। हमारी सांस्कृतिक क्रांति को नई बुलंदियाँ देगा।

और ऐसा भी नहीं है कि हमारे लिए भारतीय नववर्ष को मनाना बिल्कुल अव्यावहारिक, पेचीदा और अपनी अलग बीन बजाने जैसा होगा। यदि आपको कभी ऐसा लगे या मन में आपत्ति उठे, तो इन तीन पहलुओं पर अवश्य ही मंथन कर लेना-

१ यदि जापान अपने परंपरागत ढंग से, अपनी परंपरागत तिथि पर, अपना नववर्ष मना सकता है; यदि म्यांमार अप्रैल के मध्य अपना नववर्षोत्सव ‘तिजान’, ईरान बसंत ऋतु अर्थात् मार्च में अपना नववर्षोत्सव ‘नौरोज’, चीन चंद्रमाधरित तिथि के अनुसार जनवरी २१-फरवरी २१ के बीच अपना पारंपरिक नववर्षोत्सव, असरीयन, थाई और कंबोडियन लोग अप्रैल में अपने-अपने नववर्ष मना सकते हैं- तो फिर हम भारतवासी अपने सांस्कृतिक पंचांग के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को अपना नववर्षोत्सव क्यों नहीं मना सकते?

२ यदि हमारे व्यापारिक हिसाब-किताब, सरकारी कामकाज, राजकीय कोष का चालन-संचालन, शिक्षा-सत्र आदि नववर्ष के आरंभिक रूप में लेते हैं- तो फिर हम व्यावहारिक तौर पर भी इसी के आसपास पड़ने वाले चैत्र शुक्ल को अपना नववर्ष का उद्घाटन दिवस क्यों नहीं मान सकते?

३ जब हम अपने धार्मिक अनुष्ठानों, मांगलिक काम-काजों, व्रत-उपवासों, मुंडन-विवाहों, तीज-त्योहारों, पर्व-उत्सवों आदि को भारतीय पंचांग के इशारों पर ही निर्धारित करते हैं, तो फिर जीवन के हर वर्ष के सबसे पहले दिन को क्यों नहीं?

साभार- https://www.djjs.org/ से