1

हिंदू धर्म के संस्कारों पर एक विदेशी छात्र की जिज्ञासा और विद्वान लेखक के जवाब

संस्कार के दो उद्देश्य हैं। पहला, धर्मग्रंथों में वर्णित कर्तव्यों का पालन करने के लिए व्यक्ति पर एक जिम्मेदारी डालना(उदाहरण के लिए, विवाह संस्कार पति और पत्नी को एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों के लिए बाध्य करता है) और दूसरा, एक सांस्कृतिक जुड़ाव स्थापित करना|

ऑस्ट्रेलिया मे 11वीं कक्षा में अध्ययनरत छात्रा एबोनी द्वारा भेजे गये हिंदू धर्म के जन्म संस्कार संबंधित कुछ प्रश्न हिंदू काउन्सिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया ने मुझे जवाब देने के लिये भेजे थे| कॅथॉलिक शिक्षा संस्था की इस छात्रा को धर्म-अध्ययन संबंधित निबंध लेखन के लिये एथनोग्राफिक अनुसंधान के जरिए किसी हिंदू धर्मावलंबी से संपर्क करना जरूरी था | उनके अध्ययन का विषय “हिंदू धर्म में जन्म संस्कार और तीर्थयात्रा” था | एबोनी से पूछे गये प्रश्न और मेरे उत्तर में अन्य पाठकों की भी रुचि हो सकती है इसलिये यह लेख लेख रहा हूँ |

सबसे महत्वपूर्ण जन्म संस्कार क्या हैं और क्यों?

संस्कारों को एक अनुष्ठान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो आगे आने वाले जीवन के लिए एक व्यक्ति को ‘योग्य और पात्र’ बनाता है। उदाहरण के लिए, उपनयन संस्कार व्यक्ति को वेदों और उपनिषदों (दार्शनिक ग्रंथों) का अध्ययन करने के योग्य बनाता है। ‘तंत्र-वर्तिका’ के अनुसार संस्कार वे कर्त्तव्य एवं अनुष्ठान हैं जो व्यक्ति को पात्र बनाते हैं और पात्रता दो प्रकार की होती है: (क) यह अवगुणों(पापों) को दूर करने से उत्पन्न होती है या (ख) नए गुणों की उत्पत्ति से (केन, 1941: 101)। क्लोस्टरमाइर (2007: 147) के अनुसार, संस्कार, जिन्हें अक्सर हिंदू धर्म में धार्मिक अनुष्ठान कहा जाता है, ऐसे साधन हैं जिनके द्वारा हिंदू सामाजिक-धार्मिक समुदाय का पूर्ण सदस्य बन जाता है। ये ‘धार्मिक अनुष्ठान’ सिर्फ बाहरी धार्मिक कार्य(जैसे बपतिस्मा) के बारे में नहीं है, बल्कि सुशोभित करना, संपूर्णता, परिष्कृत करना जैसी कई अवधारणाओं को समाहित करता है। यह “शरीर को पवित्र करने, इस जीवन को पवित्र करने और मृत्युपरांत स्थिति” के बारे में है|(मनुस्मृति,2.27ff क्लॉस्टरमाइयर द्वारा उद्धृत, 2007:147)

संस्कार, वेदों की ऋचाओं में, कुछ ब्राह्मणों, गुहृसूत्रों, धर्मसूत्रों, स्मृतियों और बाद के ग्रंथों (पांडे, 1949: VIII) में वर्णित हैं जो गर्भाधान के साथ शुरू होते हैं और दाह संस्कार के साथ समाप्त होते हैं। ऋषि गौतम कुल 40 संस्कारों को सूचीबद्ध करते हैं – हालांकि, वर्तमान में केवल 16 संस्कार [1] प्रमुख संस्कार (केन, 1941) माने जाते हैं। पांडे(1949) ने संस्कारों को पाँच श्रेणियों में वर्गीकृत किया है: (क) जन्म के पूर्व के संस्कार (ख) बाल संस्कार (ग) शैक्षिक संस्कार (घ) विवाह संस्कार (ड़) अंतिम संस्कार समारोह।

जन्म संस्कार पहली दो श्रेणियों में आते हैं। प्रसव पूर्व संस्कार गर्भाधान से शुरू होते हैं। पांडे(1949) ने हिंदू धर्म के विभिन्न स्मृति ग्रंथों के अनुसार गर्भाधान के लिए उपयुक्त समय/ दिन(उदाहरण के लिए, पुत्र या पुत्री प्राप्ति के लिए) का एक विस्तृत विवरण दिया है। दूसरा पुंसवन संस्कार है जो पुत्र प्राप्ति हेतु किया जाता था। इसका उद्देश्य गर्भपात से बचाव भी है। यह संस्कार आमतौर पर गर्भावस्था के तीसरे महीने में या गर्भ में भ्रूण के हलचल करने से पहले किया जाता है। बरगद के पेड़ से तैयार हर्बल दवा की कुछ बूंदों को आमतौर पर गर्भवती महिला के दाहिने नथुने में डाला जाता है। तीसरा संस्कार सीमंतोन्नायन है, जिसमें पति द्वारा गर्भवती पत्नी के बालों को चीरकर मांग भरा जाता है। यह गर्भावस्था के 5वें महीने में किया जाता है क्योंकि तबतक होने वाले बच्चे का दिमाग विकसित होना शुरू हो जाता है। इसका उद्देश्य ‘माता की समृद्धि और अजन्मे बच्चे के लिए लंबी आयु की कामना’ भी था(पांडे, 1949: 106)। एक लाल निशान (जिसे कुमकुम या सिंदूर कहा जाता है) आमतौर पर पति द्वारा चीरे गए बालों के बीच मांग में भरा जाता था जो बुरी शक्तियों को दूर रखने के उद्देश्य से भी किया जाता था। पति पर भी कई कर्तव्यों की जिम्मेदारी आ जाती थी ताकि वह अपनी गर्भवती पत्नी की देखरेख कर सके और उसे खुश रख सके क्योंकि माँ की मनःस्थिति का प्रभाव अजन्मे बच्चे पर भी पड़ता है।

बचपन के संस्कार, बच्चे के जन्म से ही शुरू हो जाते हैं जिसे जातकर्म संस्कार कहा जाता है। प्रसव से पहले महिलाओं की उचित देखभाल के लिए विस्तृत व्यवस्था की जाती है। परंपरा है कि शिशु का गर्भनाल काटने से पहले जातकर्म किया जाय, लेकिन यह गर्भनाल काटने के बाद भी किया जा सकता है। पांडे (1949) के अनुसार, इसके निम्नलिखित पहलू हैं: ‘मेधा-ज्ञान’ इसलिए किया जाता है ताकि बच्चा प्रज्ञावान(मेधावी या बुद्धिमान) हो। ‘आयुष अनुष्ठान’ बच्चे के लम्बी आयु के लिए किया जाता है। ‘शक्ति समारोह’ इसलिए किया जाता है ताकि अगर पुत्र पैदा हुआ तो उसमें पौरुष और वीर योद्धा के गुण प्रकट हों। इसके बाद, बच्चे के रूप में परिवार को अमूल्य उपहार देने के लिए पति और परिवार द्वारा माता की प्रशंसा की जाती है। सभी मेहमानों को उचित उपहार दिया जाता है और जरूरतमंदों को भिक्षा दी जाती है। इससे अगले संस्कार को नाम-करण (नाम देने की रस्म) कहा जाता है। आमतौर पर, कई हिंदू देवताओं में से एक का नाम चुना जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि देवता बच्चे की रक्षा करेंगे। इसके अलावा, जब परिवार और मित्र उस नाम से पुकारते हैं, तो उन्हें भी दिव्य आशीर्वाद मिलता है। शास्त्रों में शाब्दिक रूप से हजारों नाम हैं, उदाहरण के लिए, विष्णु को आमतौर पर उनके एक हजार नामों का पाठ करके पूजा जाता है। इनमें से किसी एक नाम को चुना जा सकता है। इसी प्रकार अन्य देवता भी विभिन्न नामों से जाने जाते हैं। बेटी के नामकरण के भी समान नियम हैं। यह हिंदू ग्रंथों द्वारा सुझाया गया है, उदाहरण के लिए, ‘आ’ या ‘ई’ की मात्रा के साथ समाप्त होने वाले लड़कियों के नाम को शुभ माना जाता है और लड़की को ईश्वर का आशीर्वाद मिलता है। नाम-करण संस्कार आमतौर पर जन्म के 10 वें या 12 वें दिन किया जाता है।

अगला संस्कार है ‘निष्क्रमण’ (पहली बार घर से बाहर निकलना)। बच्चे को जन्म के बारहवें दिन से चौथे महीने तक सुविधानुसार कभी भी घर से बाहर ले जाया जा सकता है। आमतौर पर, जन्म के बाद तीसरे महीने में, बच्चे को घर से बाहर ले जाया जाता है और सूर्य दर्शन कराया जाता है जबकि चौथे महीने में उसे चंद्रमा दर्शन कराया जाता है। आमतौर पर बच्चे के मामा को समारोह में आमंत्रित किया जाता है।

जन्म संस्कार का अगला भाग है अन्न-प्राशन(पहला भोजन)। लगभग छह महीने तक स्तनपान या गाय का दूध पिलाने के बाद, बच्चा ठोस आहार लेने के लिए अच्छी तरह से तैयार होता है। आमतौर पर, पिता के द्वारा कम मात्रा में पिसा हुआ भात, दूध, दही(योगर्ट), शहद और मक्खन का मिश्रण दिया जाता है। अगला संस्कार है- चूड़ाकारन (मुंडन) जिसमें बाल मुंडवाने का रिवाज है। कभी-कभी यह संस्कार मंदिर में भी किया जाता है जब शिशु एक से तीन साल की अवधि का होता है। आमतौर पर इसमें शिखा रखने का भी रिवाज़ है। समय के साथ हिंदुओं के बीच यह एक अनिवार्य संस्कार बन गया है। शिखा को इसलिए रखा जाता है ताकि बच्चे को लंबी उम्र मिले। अगला संस्कार कर्णवेध (कान छिदवाना) है। एक बच्चे के कान उसे बीमारियों से बचाने हेतु छेदा जाता है। यह आमतौर पर जन्म के 10 वें, 12 वें या 16 वें दिन किया जाता है। कुछ ऋषियों का मत है कि इसे छठे या सातवें महीने में किया जाना चाहिए।

जन्म संस्कार एक हिंदू के बाकी जीवन को कैसे प्रभावित करता है?

संस्कार के दो उद्देश्य हैं। पहला, वे धर्मग्रंथों में वर्णित कर्तव्यों का पालन करने के लिए व्यक्ति को जिम्मेदारी बनाते हैं (उदाहरण के लिए, विवाह संस्कार पति और पत्नी का एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को लागू करते हैं) और दूसरा, वे एक सांस्कृतिक जुड़ाव स्थापित करते हैं। इस अवसर पर विस्तृत परिवार, दोस्त और पड़ोसी भी शामिल होते हैं। समय के साथ बच्चा बढ़ता हुआ एक सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध विकसित करता है। ‘बहुत प्राचीन काल से संस्कारों को व्यक्ति में निहित अव्यक्त क्षमताओं को प्रकट करने और आंतरिक परिवर्तन के बाहरी प्रतीकों या संकेतों के रूप में आवश्यक माना जाता रहा है, जो मानव जीवन को समष्टिगत कार्यों के लिए तैयार करता है और इसके फलस्वरूप एक निश्चित स्थिति को प्राप्त करने को प्रवृत्त करता है’ (केन, 1941:102)

आपके धर्म में जन्म संस्कार इतने महत्त्वपूर्ण क्यों हैं?

परंपरानुसार, न केवल जन्म से संबंधित बल्कि बाद के भी सभी संस्कार महत्वपूर्ण थे। कुछ ग्रंथ जिनमें इन संस्कारों का उल्लेख मिलता है लगभग 4,000 ई.पूर्व के हैं।[2] संभवत: तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप इनकी शुरुआत हुई होगी और उस समय इनकी व्यावहारिक उपयोगिता भी रही होगी। हालांकि, समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई बदलाव और संशोधन समय के साथ होते रहे हैं। हिंदू धर्म कोई मृत धर्म नहीं है और अपने लंबे इतिहास में, इसने आधुनिक समय के अनुसार तेजी से हुए कई बदलावों को आत्मसात किया है| (क्लोस्टरमेयर, 2010:5)

कई जन्म से संबंधित संस्कार बुरे प्रभावों को दूर भागने और विकास, शांति और समृद्धि के लिए अच्छे प्रभावों को आकर्षित करने के विश्वास से बनाये गए हैं (पांडे 1949)| कुछ जन्म संस्कारों को छोड़कर बाकी संस्कार अब क्षीण होते जा रहे हैं और विलुप्ति के कगार पर हैं| यह ध्यान देने योग्य बात है कि आधुनिक समय में अधिकांश संस्कार (गर्भाधान, उपनयन और विवाह को छोड़कर) गुमनाम हो गए हैं और शायद ही कभी ब्राह्मणों द्वारा भी स्मृतियों के अनुसार ढंग से किये जाते हैं। यहाँ तक कि ब्राह्मण लड़कियों के विवाह करने के उम्र में तेजी से वृद्धि के कारण गर्भाधान संस्कार भी निलंबित होते जा रहे हैं। नामकरण, अन्नप्राशन लोकप्रिय तरीके से किए जाते हैं लेकिन बिना वैदिक मंत्रों के या बिना पुजारी की उपस्थिति के। ज्यादातर मामलों में मुंडन उपनयन के दिन ही किया जाता है और समावर्तन भी उपनयन के कुछ दिनों के बाद कर दिया जाता है। कुछ हिस्सों में एक ही दिन में जातककर्म और अन्नप्राशन किए जाते हैं, केन(1941:105)|

जन्म संस्कार के साथ आपका व्यक्तिगत अनुभव कैसा है?

मुझे बचपन से ही हर चीज को लेकर उत्सुकता थी। इसलिए, मैं उत्साहपूर्वक न केवल घर में हो रहे संस्कार समारोहों में भाग लिया करता, बल्कि पुजारी और अन्य लोगों से भी इसके अर्थ के बारे में जानकारी लेता था – चाहे संस्कार मेरा हो रहा हो या परिवार के किसी अन्य सदस्य का। हर समारोह के पीछे का तर्क और आध्यात्मिक विचार मुझे बहुत आकर्षित करता था, हालाँकि, कुछ संस्कार सच में अप्रासंगिक हो चले हैं।

क्या हिंदू धर्म में अन्य संस्कारों की तुलना में जन्म संस्कारों का अधिक महत्व है? क्यों या क्यों नहीं? जन्म के संस्कार आपके शास्त्रों से कैसे संबंधित हैं?

मुझे नहीं लगता कि हिंदू धर्म में अन्य संस्कारों की तुलना में जन्म संस्कारों का कोई अतिरिक्त महत्व है। इसके अलावा, अधिकांश अनुष्ठान विस्मृति की कगार पर हैं क्योंकि समाज तेजी से बदल रहा है। कुछ प्रमुख संस्कार अभी भी प्रासंगिक हैं, उदाहरण के लिए, नाम-करण और लंबे समय तक जारी रहने वाले संस्कार जैसे विवाह-संस्कार या अंतिम-संस्कार (मृत्यु से संबंधित)। जन्म से संबंधित अनुष्ठान अब निकट परिवार तक ही सीमित हैं और हिंदू ग्रंथों के अनुसार अक्षरशः पालन नहीं किए जाते। कई संस्कार केवल प्रतीकात्मक रूप से किए जा रहे हैं।

जैसा कि पहले ही ऊपर कहा गया है, जन्म-अनुष्ठान शास्त्रों में वर्णित समग्र संस्कारों का एक महत्वपूर्ण भाग थे।

पारंपरिक जन्म-अनुष्ठान ऑस्ट्रेलिया जैसे आधुनिक समाज में कैसे घटित होते हैं? क्या हाल के वर्षों में इन संस्कारों में कुछ बदलाव हुए हैं?

हिंदू ऑस्ट्रेलिया जैसे आधुनिक समाज को आसानी से अपना सकते हैं क्योंकि हिंदू धर्म समय की जरूरतों के अनुसार सदा बदलता रहा है। जन्म से संबंधित कुछ अनुष्ठान अभी भी किए जाते हैं, लेकिन शास्त्रों के अनुसार इसका कड़ाई से पालन नहीं होता। एक ऑस्ट्रेलियाई हिन्दू परिवार अभी भी नाम-करण, अन्न-प्राशन, और चूडाकरण संस्कार अलग-अलग रूपों में पालन करते हैं। इन्हें या तो घर पर ही या पास के हिंदू मंदिर में पुजारी को आमंत्रित करके किया जा सकता है। जैसा कि पहले ही ऊपर बताया गया है, अधिकांश अनुष्ठान गायब हो गए हैं। यह दुर्लभ है कि ऑस्ट्रेलिया में रहने वाला एक हिंदू परिवार इनका अक्षरशः पालन करेगा। आज के भारत में स्थिति ऑस्ट्रेलिया से बहुत भिन्न नहीं भी हो लेकिन सुविधाएं उपलब्ध होने के कारण अनुष्ठान ऑस्ट्रेलिया की अपेक्षा अधिक भली प्रकार किया जा सकता है। जब ऑस्ट्रेलिया में रहने वाला परिवार भारत की यात्रा करता है, तो इनमें से कुछ संस्कार तब कर लिए जाते हैं| उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में, महिला को एक दो दिनों में प्रसव के बाद घर भेजा जा सकता है। तो बच्चा वास्तव में बाहरी दुनिया के संपर्क में बिना किसी विशिष्ट निष्क्रमण-संस्कार के ही आ जाता है!

आमतौर पर, ऑस्ट्रेलिया में रहने के कारण एक हिंदू के रूप में आपका जीवन कैसे प्रभावित होता है?

ऑस्ट्रेलिया में रहना मेरे जीवन को एक हिंदू होने के कारण बिल्कुल प्रभावित नहीं करता है, हालांकि हम वैसा आनंद नहीं उठा पाते, उदाहरण के लिए, दिवाली जहां पूरा देश उत्सव में डूबा होता है जिसमें दोस्तों और रिश्तेदारों से मुलाक़ात का अवसर मिलता है और हम एकसाथ उत्सव मानते हैं। जैसा कि पहले कहा गया है, हिंदू किसी भी समाज में आसानी से घुल-मिल जाने वाले और जिम्मेदार सदस्य होते हैं और समाज के अनुरूप खुद को ढाल लेते हैं। वे आम तौर पर धर्म को घर या मंदिर की तरह के पूजा स्थलों पर सीमित रखते हैं। जब वे धार्मिक रीति-रिवाजों के पालन की बात करते हैं तो वे निश्चित रूप से कट्टरपंथी या धर्मांध नहीं होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हिंदू धर्म का ध्यान स्वयं(आत्मा) के आध्यात्मिक विकास पर है (उदाहरण के लिए, योग के माध्यम से) और जीवन का उद्देश्य देवत्व या सर्वोच्च चेतना (सथ्य, 2018) की खोज करना है। हिंदू जिस भी रूप में चाहें अपनी आस्था का अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र हैं। पूजा-पद्धति की बहुलता को देखते हुए, एक हिंदू स्वाभाविक रूप से दूसरे लोगों को उनके तरीके से पूजा करने के अधिकार को स्वीकार करता है और दूसरों पर अपना दृष्टिकोण नहीं थोपता है। नतीजतन, एक हिंदू किसी भी समाज को आसानी से आत्मसात कर सकता है।

वाराणसी(भारत) में गंगा नदी पर घाटों की तीर्थ यात्रा के संबंध में आपका अनुभव और राय क्या है?

मैं अब तक तीन बार(1974-75 दोस्तों के साथ, 1985-86 माता-पिता के साथ, और 1994-95 पत्नी और बेटी के साथ) वाराणसी गया हूँ।

हर अवसर पर, यह एक उल्लेखनीय अनुभव था। जैसे ही मैं घाटों तक पहुँचने के लिए संकरी गलियों से गुज़रता और पहली बार गंगा को देखता, मैं पानी के अथाह सागर, जहाँ से नदी का दूसरा किनारा भी नहीं दीखता था, को देख अभिभूत हो जाता। दूसरे किनारे तक पहुँचने के लिए एक नाव लेनी पड़ती थी- जो एक दिलचस्प यात्रा होती थी। मैं इस पवित्र नदी के प्रति श्रद्धा से अपने हाथ जोड़ लेता था। मेरे मन में यह विचार कौंधता कि यह एक ऐसी नदी है, जिसके तट पर हजारों वर्षों से कई ऋषियों ने देवत्व या सर्वोच्च चेतना की खोज में तपस्या की। यह वह स्थान है जहाँ प्रमुख भारतीय धर्मगुरुओं ने अपना पहला उपदेश दिया – उदाहरण के लिए, बुद्ध ने सारनाथ (वाराणसी) में अपना पहला प्रवचन दिया था।

सीढ़ियों की लंबी पंक्तियों वाले कई घाट हैं (100 से अधिक) जो आपको नदी तक ले जाते हैं। मैंने केवल दो मुख्य घाटों (दशाश्वमेध और अस्सी) का दौरा किया। सुबह के समय, कोई भी सैकड़ों तीर्थयात्रियों को गंगा में डुबकी लगाते हुए और अर्घ्य अर्पित करते हुए देख सकता है। जो चीज मुझे सबसे अधिक प्रभावित करती है, वह है उनकी भक्ति, माँ प्रकृति के प्रति पूर्ण श्रद्धा – गंगा और सूर्य जीवन को बनाए रखने के लिए इसका प्रतिनिधित्व करते हैं और एक प्रार्थना कि हम अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हों, असत्य से सत्य की ओर अग्रसर हों(परम सत्य) और मृत्यु से अमरत्व(आनंद) की ओर अग्रसर हों। शाम को दशाश्वमेघ घाट पर प्रतिदिन गंगा आरती की जाती है जिसे देखना आप छोड़ना नहीं चाहेंगे।

घाट एक बहुत भीड़-भाड़ वाला स्थान है जहाँ रोज़ाना हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। स्वच्छता अक्सर कम ही होती है। वर्तमान मोदी सरकार ने बड़े पैमाने पर स्वच्छ भारत आंदोलन शुरू किया है जिसके अंतर्गत कई घाटों को गंदगी से मुक्त कर दिया है। गंगा की सफाई के लिए एक राष्ट्रीय परियोजना भी कार्यान्वित की जा रही है।

आप हिंदू कैसे बने? क्या आप हिंदू पैदा हुए थे, या आपने जीवन में बाद में इस धर्म को अपनाने का निर्णय लिया?

जैसा कि ज्यादातर हिंदुओं के साथ है, मैं एक हिंदू हूँ क्योंकि मेरे माता-पिता हिंदू थे। कोई बाद में भी हिंदू धर्म अपनाने का फैसला कर सकता है (उदाहरण के लिए, बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन[3] या जूलिया रॉबर्ट्स- ऑस्कर विजेता अभिनेत्री[4])। जैसा कि पहले ही कहा गया है, हिंदू धर्म एक ‘विश्वास’ या ‘इज्म’ बिल्कुल नहीं है। यह जीवन-दर्शन या जीवन जीने का तरीका है। नतीजतन, इसे ‘विश्वास’ के संकीर्ण ढांचे में नहीं डाला जा सकता है, जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है। यह एक संगठित धर्म नहीं है और न ही अन्य धर्म के लोगों को धर्म-परिवर्तन के लिए उकसाता है। जैसा कि सभी उसी एक ईश्वर की संतान हैं, आप किसको धर्म परिवर्तित करवा रहे हैं – एक ईश्वर को दूसरे ईश्वर में? – एक हिंदू पूछेगा।

प्रार्थना जो हिंदू रोज करते हैं, वे सभी के कल्याण, स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना करते हैं, न कि अपने पंथ के सदस्यों के लिए, जैसा कि कुछ संगठित धर्म करते हैं। हिंदू सब कुछ को दिव्य मानते हैं क्योंकि परमात्मा का वास हर जगह है। एक हिंदू के लिए, ’अपने पड़ोसी से प्यार करो’ के आदेश में ’पड़ोसी’ में न केवल मनुष्य, बल्कि जानवर, पौधे, नदी, पहाड़ सब कुछ शामिल हो जाता है। तदनुसार, हिंदू आमतौर पर इनमें से किसी के प्रति हिंसा से बचता है। यह स्वाभाविक रूप से एक पारिस्थितिकी के अनुकूल प्रतिमान है। हिंदू धर्म में कोई काल्पनिक ईश्वर नहीं है जो किसी विशेष व्यक्ति को, किसी विशेष समय पर और किसी विशेष स्थान पर अपना संदेश देता है जो इसके बावजूद सभी लोगों पर, हर समय, हर स्थान पर लागू होता हो| हिंदू सर्वोच्च चेतना के साधक हैं – जो काल्पनिक ईश्वर में विश्वास नहीं करते। हिंदू धर्म में कोई बुत-पूजा नहीं है जैसा कि गलत तरीके से समझा जाता है[5]। हिंदू मूर्ति की पूजा करते हैं। मूर्ति दिव्यता का प्रकटीकरण है(सथ्य, 2018)|

(लेखक ऑस्ट्रेलिया में शिक्षा शास्त्री हैं)
(अंग्रेजी से अनुवाद सत्यम द्वारा)

साभार- http://indiafacts.org/ से