Tuesday, March 19, 2024
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एक मुलाकात उभरती व्यंग्य लेखिका आरिफा एविस से

व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में कैसे आई?
व्यंग्य लेखन से पहले लेखन की शुरूआत बताना ज्यादा जरूरी है.महिला विमर्श की एक पत्रिका निकलती है ‘मुक्ति के स्वर’ जो मुझे मेरे अध्यापक के जरिये मिली थी . उस पत्रिका को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया लिखकर भेजी, जो अगले अंक में छपी . यही मेरा पहला लेखन था. मैं उस समय नौवीं में थी . इसी दौरान मैं शहीद भगत सिंह पुस्तकालय और नारी चेतना के संपर्क में आई. जहाँ मुझे समाज को देखने का नया नजरिया मिला. उन दिनों मैं सिर्फ कविताएँ लिखती थी , वो भी उर्दू में लिखकर फेविकोल से चिपका देती ताकि कोई पढ़ न सके. कारण यही था कि मुझे बड़ी मुश्किल से लड़ झगड़ कर पढ़ने का मौका मिला था. इंटर की पढ़ाई के बाद तो घर ही बैठ जाती लेकिन डीयू की पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा में पास होने पर दोस्तों ने फीस देकर मेरी पढ़ाई पूरी करवाई. एम.ए. की पढ़ाई नौकरी करते हुए करती रही .
ग्रेजुएशन के बाद एक वेब मैगजीन में खबरें बनाकर लिखना ही काम था. इसके बाद एक दो लेख पाठक की कलम से ही आये. कुछ दिन तक पुस्तकों के बारे में लिखना और पढ़ना चलता रहा .इन्हीं दिनों समीक्षा,लेख और कविता जनवाणी, देशबन्धु वगैरह में छपी . यहीं से नियमित लिखना शुरू कर दिया और फिर विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में लेख भी मांगे जाने लगे .

विश्व पुस्तक मेले में अनूप श्रीवास्तव जी से मुलाकात होती है, तब उन्होंने बुक फेयर की रिपोर्टिंग व्यंग्यात्मक शैली में लिखकर मेल करने के लिए कहा था . रिपोर्ट लिखकर भेजी तो उन्होंने कहा कि अनूप शुक्ल की तरह लिखो.फिर क्या था अनूप शुक्ल को फेसबुक पर खोजा ,उनको पढ़ा लेकिन उन की तरह लिख नहीं पाई. व्यंग्यकारों को पढ़ते-पढ़ते हम भी व्यंग्य लिखने लगे . यहीं से हमारी व्यंग्य लेखन की शुरूआत हुई.

आज मैं जो कुछ भी हूँ उसमें पुस्तकालय और साथियों की वजह से हूँ और उस दृष्टिकोण की वजह से हूँ जो मुझे वहां से मिला.

पहला व्यंग्य लेख कब लिखा?
जबाब : पहला व्यंग्य लेख जनवरी 2016 में लिखा था .

व्यंग्य आपकी समझ में क्या है? आपके नजरिये से आदर्श व्यंग्य कुछ उदाहरण अगर फ़ौरन ध्यान में आते हों तो बताइये।
जबाब : व्यंग्य विसंगतियों पर आलोचनात्मक प्रहार है जो बेहतर समाज बनाने में मदद करता है. ‘एक मध्यवर्गीय कुत्ता’ भोला राम का जीव, सुअर,सदाचार का ताबीज.


अपने लेखन के विषय कैसे तय करती हैं?

जबाब : जो विषय बहुसंख्यक आबादी को प्रभावित करते हैं और जो मुझे अन्दर तक झकझोर कर रख देते हैं. ऐसे ही विषयों को चुनती हूँ.

आपके व्यंग्य में सरोकार की धमक रहती है। हास्य से परहेज जैसा है क्या?
जबाब : रोजाना किसान, नौजवान , महिलाएं आत्महत्या करते हैं. इन्सान को इन्सान नहीं समझा जाता है. तो बताइए हास्य कैसे लिखूं.मैं भी लतीफ घोंघी की तरह लिखता चाहती हूँ. लेकिन लिखते लिखते लेख अपने आप गंभीर हो जाते हैं. रही बात सामाजिक सरोकार की तो हर लेखक के व्यंग्य के अन्दर सामाजिक सरोकार होता है. फर्क बस इतना है कि वह सरोकार किसी व्यक्ति विशेष के लिए होता है या छोटे समूह के लिए या फिर जनसमूह के लिए. लेखक होता ही है सामाजिक तो फिर वह गैर-सरोकारी कैसे हो सकता है. हास्य व्यंग्य से मुझे कोई परहेज नहीं है.

किसी खास व्यंग्यकार के लेखन से प्रभावित हैं जिसके जैसा लिखना चाहती हैं?
जबाब : परसाई के लेखन से मैं बहुत प्रभावित होती हूँ . कोई भी व्यंग्य लेखक व्यंग्य परम्परा में अभी तक किसी को दोहरा नहीं पाया है.आप लाख कोशिश करो लेकिन आप जिनसे प्रभावित होते हैं उनसा नहीं लिख पाते हैं . समय काल और बदली हुई परिस्थितियां एक दूसरे से अलग करती है समानता तो सिर्फ वैचारिक स्तर पर होती है. कोई भी लेखक अपने समय का प्रतिनिधि होता है . वह अपनी भाषा, शिल्प और विधा चुनता है. मैं व्यंग्य की विकसित परम्परा में विश्वास करती हूँ. परम्परा में अच्छा और बुरा दोनों होता है. मुझे अपनी परम्परा से जो भी अच्छा मिला है उसे ग्रहण करूंगी और सिर्फ आरिफा की तरह लिखना चाहती हूँ.

आपके व्यंग्य लिखने की प्रक्रिया क्या है? मतलब कब लिखती हैं? कितना समय लगाती हैं एक ’शिकारी का अधिकार’ जैसा व्यंग्य लिखने में?
जबाब : रोजी रोटी के चक्कर में समय कम मिलता है. इसलिए घर पर ही काम करते हुए विषय के बारे में सोचती हूँ. फिर विषय की तथ्यात्मक जांच पड़ताल करती हूँ. उसके बाद दिमाग में एक ब्लू प्रिंट तैयार करके लिखती हूँ. दूसरी बार फिनिशिंग करती हूँ. तीसरी बार खुद पढ़कर ठीक करती हूँ. चौथी बार किसी मित्र को पढ़ाती हूँ उनका सुझाव लेती हूँ. फिर कुछ बदलाव के साथ व्यंग्य लिख कर छोड़ देती हूँ. एक व्यंग्य में एक दिन और कभी कभी एक सप्ताह से ज्यादा समय लग जाता है.

व्यंग्य के क्षेत्र में महिलायें काफ़ी कम रहीं शुरु से ही। इसका क्या कारण है आपकी समझ में?
जबाब : व्यंग्य में ही में नहीं साहित्य,समाज और यहाँ तक कि राजनीति में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है. जो आज भी जारी है. पहला कारण है – भारत की विशिष्ट सामाजिक संरचना. दूसरा – भारत में अभी तक किसी भी बड़े सामाजिक, राजनीतिक आन्दोलन का खड़ा न होना. इसके बावजूद व्यंग्य में महिलाओं का अकाल नहीं रहा. शुरूआत से ही महिला व्यंग्यकारों का योगदान रहा है. जिनमें -शान्ति मेहरोत्रा, सरला भटनागर, गीता विज, बानो सरताज, अलका पाठक,शिवानी, सूर्यबाला की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है .आज तो और भी बेहतर स्थिति है महिला व्यंग्यकारों में रोज नई नई महिलाएँ व्यंग्य क्षेत्र में आ रही है. वो बात अलग है कि बहुत सी महिलाओं को व्यंग्यकार ही नहीं माना जाता .वैसे कुछ पुरुष व्यंग्यकारों को भी बहुत से व्यंग्यकार नहीं मानते है .

आपके व्यंग्य लेखन में आम जनता की समस्याओं पर नजर रहती है। महिलाओं की समस्याओं पर आधारित व्यंग्य नहीं दिखते आपके यहां। क्या मेरा यह सोचना ठीक है? यदि हां तो इसका क्या कारण है?
जबाब : महिलाओं की समस्या समाज की समस्या से अलग नहीं है. समाज की समस्या हल होगी तो बहुत हद तक महिलाओं का समस्या भी हल हो जायेगी. आज महिलाओं का मुद्दा अस्मिता और अस्तित्व से जुड़ा है. ऐसी धारणा बन गयी है कि महिला मुद्दों पर सिर्फ महिलाएं ही और दलित समस्या पर दलित ही लिख सकता है. बाकी राजनीति और अर्थतन्त्र पर पुरुष ही लिखें ऐसा ही क्यों? मेरा मानना है कि अस्तित्व और अस्मिता दोनों पर व्यंग्यकार की दृष्टि होनी चाहिए. महिला अस्तित्व और अस्मिता का संकट भारत की आर्थिक , सामाजिक, राजनैतिक गतिविधि से तय होती है. यदि समस्या की मूल जड़ पर कुछ सार्थक प्रहार किया जायेगा तो उसमें तक स्त्री हो या पुरुष सभी आयेंगे. वैसे मैंने महिलाओं पर भी लिखा है.

आज के समय में हास्य व्यंग्य लेखन की स्थिति को आप स्तर और वातावरण के लिहाज से कैसी समझती हैं?
जबाब : हर दौर में हास्य व्यंग्य का आधार अलग अलग रूप में दिखाई देता है. हास्य व्यंग्य का सौन्दर्य विकसित भी हुआ है और विकृत भी हुआ है. जहाँ एक तरफ सामाजिक विसंगतियों पर हास्य व्यंग्य रचा जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ कुछ जगह फूहड़ता, वल्गर , लम्पट और महिला विरोधी भी होता है. समाज हमेशा आगे की तरफ बढ़ता है तो जाहिर है हास्य व्यंग्य भी आगे ही बढ़ा है. रही बात स्तर की तो हर दौर में अच्छा बुरा रहा है.

अक्सर हास्य-व्यंग्य के लोगों की आपस में सोशल मीडिया पर आपस में बहस हो जाती है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
जबाब: पहले मैं सिर्फ यही जानती थी कि फलां लेखक बड़े हैं. उनकी फलां पुस्तक आई है. या फलां अखबार में छपते हैं. सोशल मीडिया ने सबको एक जगह पर ला दिया है. अगर कोई सक्रिय नहीं है तो भी पता चल जाता है. रही बात सोशल मीडिया पर बहस की तो यहाँ भी वही बात होती है जो अक्सर मंचो पर कही जाती है. मंच पर कोई जवाब नहीं दे पाता. सोशल मीडिया पर यह स्वतंत्रता होती है कि अगर मुद्दा आया है तो हर इन्सान हास्य-व्यंग्य पर अपनी बात रखता है.
बहस किसी भी तरह की क्यों न हो अच्छी हो या बुरी, व्यक्तिगत हो या प्रवृतियों पर व्यंग्यकारों को समझने में हमारी मदद करती है . क्योंकि लेखन में शिल्प द्वारा ईमानदारी, चालाकी,छिप जाती है. लेकिन बहसों में व्यक्तित्व उजागर होता है.कोई भी बहस नवीनता की जननी है. बहस करने वाले ज्यादा खतरनाक नहीं होता, चुप्पी साधने वाले ज्यादा खतरनाक है . हर बहस के बाद इन्सान की मानसिक दशा के बारे में जानने समझने का मौका मिलता है.

अपनी किताब ’शिकारी का अधिकार’ छपवाने की विचार कैसे आया? इसको छपने के बाद कैसा महसूस हुआ? होता है ?
जबाब: जब लेख प्रकाशित होने लगे तो कई लोगों ने पूछा कोई पुस्तक हो तो दो पढ़ना चाहते हैं. यानि जिसकी कोई किताब छपी न हो वह लेखक नहीं माना जाता . मैंने भी सोचा क्यों न एक छोटी सी किताब छपवा ली जाए. कई जगह पांडुलिपि भेजी एक प्रकाशक ने स्वीकृति दी तो छपवा दी.एक रुपया भी खर्च नहीं करना पड़ा.
किताब आई तो लखनऊ अट्टहास कार्यक्रम में विमोचन भी हो गया. किताब ने पहचान दी है. किताब न होती तो शायद आज जो व्यंग्य की दुनिया देखने को मिली है शायद बहुत देरी से देखने को मिलती.

रही बात महसूस करने की तो अच्छा ही लगता है . अब और भी अच्छा लगता है क्योंकि तीन किताबों पर और काम चल रहा है. लिखने, पढने और समझने की प्रेरणा है मेरी पहली किताब. पहली पुस्तक ने मेरी ताकत और कमियों को भी चिन्हित करने में मदद मिली है .

सुना है जल्दी ही आपका एक उपन्यास भी प्रकाशित होने वाला है। इसकी विषय वस्तु के बारे में बतायें।
जबाब:यह उपन्यास दिल्ली से लखनऊ की यात्रा का संस्मरणात्मक व्यंग्य उपन्यास है बस इतना ही.

अपना सबसे पसंदीदा कोई लेख बतायें। इसको पसंद करने का क्या कारण है?
जबाब:’शिकारी का अधिकार’ मेरा पसंदीदा लेख है. इसका कारण यही है कि जंगल के बहाने पूरे सिस्टम को समझना हुआ.जंगल में सिर्फ शेर ही नहीं रहता बाकी जीवन भी होता है. उनका भी अपना एक पक्ष है.

अभी तक की पढी पुस्तकों में सबसे पसंदीदा पुस्तक और उसका कारण?
जबाब: सबसे पसंदीदा पुस्तकों में किसी एक पुस्तक का नाम बताना मुश्किल है. फिर भी चंगेज आइत्मतोव द्वारा लिखा गया रूसी उपन्यास ‘पहला अध्यापक’. इस लघु उपन्यास का मुख्य पात्र सोलह साल का लड़का ‘दुइशेन ‘ होता है. उसे वर्णमाला के कुछ ही अक्षर का ज्ञान होता है.वह जितना जानता है उतना ही स्कूल खोलकर बच्चों को सिखाता है.जब बच्चे उतना अक्षर ज्ञान सीख जाते हैं तो उन्हें दूसरे स्कूल में पढ़ने भेज देता है.
कुल मिलकर यही कि वह समाज से जितना सीखता है उतना समाज को वापस लौटा देता है.इसका मतलब यही है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है वह सामाजिक है व्यक्तिगत कुछ भी नहीं. इस किताब से यही प्रेरणा मिलती है कि हमें भी समाज ने जो दिया है; कम से कम तो उतना तो वापस देना ही चाहिए.

लेखन करते हुये आपको अपने अन्दर अभी क्या कमी लगती है जिसमें अभी आपको सुधार करने गुंजाइश लगती है?
मुझे लगता है वैचारिक पक्ष मुझे विरासत से मिला है जो दोस्तों की मंडली से प्राप्त हुआ है.रही बात कमी की तो शिल्प पर काम करना बाकी है. शिल्पगत महारथ भी करत करत अभ्यास से हासिल होगी, ऐसा मेरे वरिष्ठ व्यंग्यकारों ने कहा है.

हाल के लेखकों में सबसे पसंदीदी लेखकों के नाम और वे अपने लेखन के किस पहलू के चलते पसंद हैं आपको?
जबाब: मैं अपने समकालीन सभी लेखकों को पसंद करती हूँ. कोई भी किसी को ख़ारिज नहीं कर सकता मेरा ऐसा मानना है. सीखने के लिए सभी में कुछ न कुछ मिल जाता है. प्रतिबद्धता, शिल्पता, भाषा ,शब्दों की बनावट, आक्रामकता, वैचारिकता, संरचनात्मकता, सरोकार, यहाँ तक कि पठनीयता भी सीखने को मिलती है. सभी को पढ़ती हूँ. बिना नाम लिए उन लेखकों की तरफ इशारा कर दिया है जिनको मैं पसंद करती हूँ.

आज के समय में जब हर तरफ़ बाजार हावी हो रहा है ऐसे समय में व्यंग्य लिखने में क्या चुनौती महसूस करती हैं?
जबाब:बाजार की समझ ही व्यंग्य लेखन की असली चुनौती है. आज का बाजार एक देश तक सीमित नहीं रहा है. यह वैश्विक आधार प्राप्त कर चुका है. वैश्विक पूंजी का चरित्र बदल चुका है. वित्तीय पूंजी की समझ के बिना कोई व्यंग्य लेख संभव नहीं हो सकता. इसकी धमक हर इन्सान की मानसिकता हो प्रभावित कर रही है. मुनाफाखोर बाजार हर इन्सान को लालच,मुनाफे पे आधारित संबंधों के निर्माण में सचेत रूप से लगा हुआ है. व्यंग्य लेखन में भी इसी समझ का सचेत प्रयास करना पड़ेगा.

आपकी रुचियाँ क्या हैं? उसको पूरा करने का समय कैसे निकालती हैं?
जबाब:मेरी हॉवी पढ़ना और घूमना है. मानसिक जरूरत को पूरा करने के लिए जैसा साहित्य पढ़ना चाहती हूँ पढ़ती हूँ. घूमने के लिए हर साल एक कोष बचाती हूँ जिससे पहाड़ी इलाके में घूमा जा सके.

जीवन में आगे क्या करना चाहती हैं और उसको करने की योजनायें क्या हैं?
जबाब: उर्दू और अंग्रेजी व्यंग्य का अनुवाद करना चाहती हूँ. धीरे-धीरे खोज रही हूँ. कर भी रही हूँ. उनको पूरा करने की योजना है. जब भी टाइम मिले पढ़ती हूँ और करती हूँ.

जब लिखना शुरु किया और अब कुछ साल/महीने हुये लिखते हुये। इस दौरान आपने लेखन के क्षेत्र में क्या बदलाव देखे?
जबाब: एक ही बदलाव आया है. व्यंग्य लेखन ज्यादा हो गया है. व्यंग्य ने ही मुझे पहचान दी है. व्यंग्य के प्रति ज्यादा जिम्मेदारी महसूस होने लगी है जिसको पूरा नहीं कर पाती हूँ.

लिखना शुरु करने के पहले और अब लेखन बनने के समय में आपकी सोच और समझ में क्या बदलाव आये?
जबाब: पहले लिखने का मतलब अपनी भावना को जाहिर करना लगता था. अब लगता कि लेखन भी सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका निभा सकता है.

आज सोशल मीडिया के चलते व्यंग्य लेखन का विस्फ़ोट सा हो रखा है। आम आदमी लिखने और छपने लगा है। कुछ पुराने , सिद्ध लेखक इसको व्यंग्य लेखन के लिये ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि लिखास और छपास की कामना के चलते व्यंग्य लेखन का स्तर गिरा है। आपका क्या मानना है इस बारे में।

दुनिया को परिवर्तित करने में अगर किसी टूल का सबसे ज्यादा योगदान रहा है तो वह है तकनीक. जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ है समाज की संरचना भी बदली है. आदिम युग से दास प्रथा, दास प्रथा से सामन्ती युग, सामन्ती युग से पूंजीवाद, पूंजीवाद से समाजवाद में परिवर्तन नई तकनीक के कारण ही संभव हो पाया है.
सोशल मीडिया से सभी को एक साथ आने का मौका मिलता है. कुछ लोग लगातार अखबार में छपते हैं लेकिन उनका नाम लेने वाला नहीं है क्योंकि वो सोशल मीडिया पर सक्रिय नहीं हैं.जो सक्रिय है अगर वो छपते है और अपनी वाल पर लगाते हैं तो इसमें बुराई क्या है. सबके अपने पाठक हैं.जो नहीं छपता वो भी अच्छा लिखता है. सोशल मीडिया एक प्लेटफार्म है. इसका उपयोग कैसे करना है यह आप पर निर्भर है.

आज अखबारों में छपने वाला व्यंग्य 400 शब्दों तक सिमट गया है। व्यंग्य की स्थिति के लिये आप इसे कैसे देखती हैं? आप इस फ़ार्मेट में नहीं लिखती?
जबाब: हर अख़बार का अपना एक कॉलम है अपना अलग फोर्मेट है. यहाँ तक कि 2000 शब्दों में भी व्यंग्य छपता है. इसको सीमित शब्दों का नाम देना शायद ठीक नहीं. यह फोर्मेट का सवाल है. कविता, कहानी,व्यंग्य शब्दों की सीमा से नहीं बंधे होते. विचार की अवधारणाओं से बंधे होते हैं.
मैं किसी भी फोर्मेट में नहीं लिखती . जितना लिखा जाता है उतना लिखती हूँ.

वनलाइनर को किस तरह देखती हैं? लिखती क्यों नहीं वनलाइनर? रुचि न होना या जीवन की आपाधापी की व्यस्तता?
जबाब: व्यंग्य में वनलाइनर नया शब्द नहीं है. अपने विचारों को कम शब्दों में लिखना पहले भी था और आज भी जारी है. व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति किसी भी रूप में हो अच्छी ही होती है. चाहे वो वनलाइनर के रूप में ही क्यों न संभव हो. लिखने के बारे में सोचा नहीं. अगर लिखने का मन होगा तो जरुर लिखूंगी.

सवाल-व्यंग्य लेखन में आम तौर पर व्यंग्य की स्थिति पर चिंता व्यक्त करने वाले लोग नये-नये बयान जारी करते रहते हैं। सपाटबयानी सम्प्रदाय, गालीगलौज सम्प्रदाय, कूड़ा लेखन आदि। इस स्थिति को आप किस तरह देखती हैं।
जवाब : सृजनशीलता सामाजिक सम्पत्ति है. हर इन्सान समाज से ही सीखता है. अपने व्यवहार, आसपडोस के माहौल से सीखता है. कोई भी लेखक पैदाइशी लेखक नहीं होता. न ही व्यंग्य लेखन DNA में होता है. यह कोई अनोखी घटना नहीं है . यह सब चलता रहता है . कुछ खराब ब्यान आते है तो कुछ अच्छी चिंताएं भी तो व्यंग्य में दिखाई देती है. शोधपरख लेख भी तो दिखाई देते है. आज की दुनिया एकतरफा नहीं यदि अँधेरा है तो उजाला भी है .

समाज में महिलाओं की स्थिति और व्यंग्य लेखन में महिला लेखिकाओं की स्थिति पर आपका क्या सोचना है?
जबाब: समाज में महिलाएं दलितों से भी दलित हैं. उनकी दोयम दर्जे की स्थिति बदस्तूर जारी है. महिलाओं के सामने अस्तित्व और अस्मिता दोनों का सवाल है. इसके बावजूद महिलाएं आगे आ रही हैं. पढ़ लिख रही हैं , नौकरी पेशा कर रही हैं.हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी निभा रही हैं. ऐसी विषम परिस्थितियों के बावजूद महिलाएं अगर लेखन में आयीं हैं तो उन्हें देखकर अच्छा लगता है. आधुनिक व्यंग्य काल महिलाओं के लिए स्वर्णकाल है . जितनी महिलाये आज व्यंग्य लेखन में सक्रिय है , शायद पहले इतनी नहीं थी .व्यंग्य लेखन में डॉ. नीरज शर्मा , शशि पाण्डेय , वीणा सिंह, नेहा अग्रवाल , शैफाली पाण्डेय, डॉ. स्नेहलता पाठक, इंद्रजीत कौर,अर्चना चतुर्वेदी, सुनीता सानु, पल्लवी, शशि पुरवार ,यामिनी चतुर्वेदी,ऋचा श्रीवास्तव, सुनीता सनाढय पांडे, सोमी पांडे, सुधा शुक्ला, डा विनीता शर्मा,सपना परिहार, छमा शर्मा और दर्शन गुप्ता आदि दमदार तरीके से अपनी भूमिका निभा रही है. महिलायें और भी है जिनके व्यंग्य यदा कदा अख़बारों में पढ़ने को मिलते रहते है .

सअपने देश , समाज की सबसे बड़ी खूबी क्या है आपकी नजर में?
जबाब: अपना देश ही नहीं पूरी दुनिया बड़ी ही खूबसूरत है. समाज में विभिन्नता है. ढेरों बोली,कई भाषाएँ हैं. अलग अलग रहन सहन है. कई तरह के मौसम है. कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी जिन्दा रहने की जद्दोजहद हमारे देश की सबसे बड़ी ख़ूबी है.

…और खामी?

जबाब: जहाँ एक तरफ शाइनिंग इण्डिया है वहीं दूसरी तरफ गरीब भारत है. इस समाज में क्षेत्रवाद,जातिवाद,धर्म ,औरत मर्द में गैर बराबरी,गरीबी ,भुखमरी,मुनाफे पर आधारित व्यवस्था जो अंदर ही अन्दर देश को खोखला कर करती जा रही है.

आपको एक हफ़ते/महीने की फ़ुल फ़्रीडम दी जाये तो आप क्या करना पसंद करेंगी?
जबाब: अगर सच में मुझे ऐसी छूट मिल जाये तो मैं पूरी दुनिया घूमना चाहूँगी.बेहतर दुनिया का सपना पहुंचाऊगी और उन पलों को विरासत के लिए लिखना चाहूँगी.

जीवन का कोई यादगार अनुभव साझा करना चाहें?
जबाब: वैसे तो पूरी जिन्दगी ही मेरे लिए यादगार है. एक यादगार लम्हा मुझे हमेशा याद आता है – मैं अपने दोस्तों के साथ ट्रेकिंग पर गयी थी, जिंदगी में पहली बार पहाड़ों का नजारा देखना और उनकी खूबसूरती को निहारना और महसूस करना एक अजब एहसास है.. तभी महसूस किया कि राहुल सांकृत्यायन ने अधातो घुमक्कड़ जिज्ञासा क्यों लिख डाली. उन पहाड़ों की पगडंडियों पर चलना कभी उबड़ खाबड़ रास्ता कभी एक दम साफसुथरा रास्ता. अपनी मंजिल पर पहुंचने की चाह में आगे बढ़ते रहने का जुनून मुझे हमेशा प्रेरणा देता है.

और कुछ बताना चाहें अपने बारे में, लेखन के बारे में , समाज के बारे में।
जबाब:बस यही कि बहुत कुछ सीखना है, बहुत कुछ पढ़ना है और अमल करना है . रही बात लेखन की तो एक लेखक के लिए कलम ही उसका हथियार है.जहाँ तलवार काम नहीं आती वहां कलम काम आती है. समाज को बदलने में कलम ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और आगे भी निभाती रहेगी. मुनाफे और गैर -बराबरी पर आधारित समाज को समाप्त करके, एक बेहतर समाज की नींव रखने में यदि मेरी कलम साथ देती रहे . बस इतनी-सी चाहत है.

लेखिका परिचय
आरिफा एविस
शिक्षा -बी.ए., एम.ए. (हिन्दी पत्रकारिता दिल्ली विश्व विद्यालय)
प्रकाशित व्यंग्य संग्रह – ‘शिकारी का अधिकार ‘
अप्रकाशित व्यंग्य उपन्यास -‘पंचतंत्रम्’
अनुवाद – उर्दू से हिन्दी ‘मजाकिए खाने’
छिटपुट लेखन – ‘दैनिक जनवाणी’, ‘देशबन्धु’ , ‘राजएक्सप्रेस’, ‘, लोकजंग’ व ‘ऑन्लाइन पत्रिकाओं व न्यूज पोर्टल पर

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एक निवेदन

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