Friday, April 19, 2024
spot_img
Homeहिन्दी जगत10वें विश्व हिंदी सम्मेलन के उपलक्ष्य में एक नई श्रृंखला

10वें विश्व हिंदी सम्मेलन के उपलक्ष्य में एक नई श्रृंखला

‘वैश्विक हिंदी-द्वीप’ शीर्षक के अंतर्गत ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ विश्व में बसे भारतवंशी बहुल देशों में हिंदी के प्रति प्रेम, भारतवंशियों द्वारा हिंदी भाषा-साहित्य, हिंदी-शिक्षण-प्रयोग, संवाद आदि के स्तर पर पर उनके कार्य व योगदान जानकारी प्रस्तुत करने जा रहा है। इस कार्य में नीदरलैंड की लेखिका व साहित्यकार प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने विशेष सहयोग देने की हामी भरी है। प्रो. पुष्पिता अवस्थी विश्व की अनेक आदिवासी प्रजातियों तथा भारतवंशियों के अस्तित्व और अस्मिता पर विशेष अध्ययन और शोधकार्य से संबद्ध रहीं हैं । भारतवंशी बहुल देशों के भारतवंशियों के जीवन, उनकी संघर्ष-यात्रा, उनकी भाषा संस्कृति पर उन्होंने बहुत कार्य किया है। पुष्पिता अवस्थी ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की यूरोप, कैरेबियाई सहित अन्य भारतवंशी बहुल देशों तथा यूरोप की समन्वय प्रभारी हैं इनके माध्यम से विश्वभर में फैले भारतवंशियों के इतिहास,जीवन और भाषा–संस्कृति पर विशेष सामग्री प्राप्त होती रहेगी और भारत से बिछुड़े भाई-बहनों और भारतीय भाषा-संस्कृति के विश्व-वाहकों के जन-जीवन की जानकारी मिलती रहेगी। – डॉ.एम.एल.गुप्ता ‘आदित्य’

unnamed (32)

 

 

 

 

इस क्रम में सबसे पहले प्रस्तुत है – भारतवंशी बहुल देशों के भारतवंशियों के जीवन का सिंहावलोकन

भारतवंशी बहुल देश

– प्रो. पुष्पिता अवस्थी

unnamed (33)

प्रो. पुष्पिता अवस्थी
यूँ तो भारतवंशी संपूर्ण विश्व में बसे हुए हैं लेकिन कुछ देशों में इनकी आबादी बहुत अधिक व उल्लेखनीय है। ऐसे भारतवंशी बहुल देशों में प्रमुख हैं – फिजी, मॉरिशस, दक्षिण अफ्रीका, कीनिया, युगांडा, सुरीनाम, गयाना, ट्रिनीडाड और टुबैगो। ऊष्णकटिबंधीय देश होने के नाते इन देशों का प्राकृतिक परिवेश भी समानधर्मी है। ब्रिटिश शासनकाल में भारत से अन्य औपनिवेशक (कॉमनवेल्थ) देशों में लगभग साढ़े तीन लाख की आबादी स्थानांतरित हुई थी। जिन देशों में अँग्रेजों और उनके अन्य मित्र देशों के उपनिवेश (कालोनियाँ) स्थापित थे। इन देशों में भारत से लाखों लोग ले जाए गए थे।

उन्नीसवीं सदी हिंदुस्तानियों के दारुण इतिहास की साक्षी है। जिसकी दर्दनाक दास्तान भारतवंशी बहुल देशों के हिंदुस्तानियों की धड़कनों में सुनी जा सकती है। हिन्दुस्तानी किसान – मजदूर भारत से मॉरिशस द्वीप में दिसंबर -1834 ईस्वी में, ट्रिनीडाड में 1845 ईस्वी में, दक्षिण अफ्रीका में 1862 ईस्वी में, गयाना में 1870 ईस्वी में, सुरीनाम में 5 जून को 1873 ईस्वी में, फीजी में 5 मई को 1879 ईस्वी में, कीनिया में 1896 ईस्वी में पहुंचे और 1916 ईस्वी तक जाने का क्रम जारी रहा। इन देशों में पहुंचनेवालों हिंदुस्तानियों की संख्या मॉरिशस में 270,000, ट्रिनीडाड में 152,000, ब्रिटिश गयाना में152,000, सुरीनाम में 33,000, फीजी में 60,500, युगांडा में 23,000, टांगानिका में 44,000, जंजौगट में 13,000 और दक्षिण अफ्रीका में पहुंचनेवालों की संख्या 25,000 थी, जो कि वहाँ की जनसंख्या की तीन प्रतिशत थी।

unnamed (2) भारतवंशियों का विस्थापन जहाँ से हुआ भारतवर्ष का वह भूभाग दिल्ली से लेकर पटना तकऔर दक्षिण में नर्मदा के किनारे तक माना जाता है। पंजाब, बंगाल तथा महाराष्ट्र आदि के निवासी इस भूभाग को प्राय: हिंदुस्तान और यहाँ के निवासियों को हिंदुस्तानी कहा करते थे। और इसमें बोलचाल या व्यवहार की वह हिंदी है जिसमें न तो बहुत अरबी- फारसी के शब्द हैं और न ही संस्कृत के। साहिब लोगों ने इस देश की भाषा का एक नया नाम हिंन्दुस्तानी रखा। (हिंद शब्द सागर- भाग-11 पृ. 5505) भारतवंशी बहुल देशों में यह शब्द इसी संदर्भ में प्रचलित है और सामान्य जन के बीच अपनी पहचान बनाए हुए है।

युरोपीय साम्राज्य ने औपनिवेशिक शासन के दौरान दुनिया को भौगोलिक रूप से दो हिस्सों में बांट दिया था। उन्होंने पूर्व को पिछड़ा हुआ और असभ्य माना जबकि पश्चिम को अनुशासित, सभ्य, तर्कशील एवं विकसित माना । उपनिवेशकाल के दौरान उपनिवेश बनानेवाले राष्ट्र कुछ नए मूल्य, नए विश्वास, विदेशी भाषाएँ तथा अजनबी से रीति- रिवाज अपने उपनिवेशों पर थोप कर चले जाते थे, उपनिवेश के लोग अपनी धरोहर को त्यागकर बिना सोचे-समझे जिसे ढोते रहते थे। इस सबके बावजूद भारतवंशी किसान – मजदूरों ने अपने श्रम, लगन, समर्पण और साहस से अद्भुद शक्ति उपार्जित की । जिसके चलते भारतवंशियों की विशाल ताकतवर जमात खड़ी हो गईं । जिनसे भारतीय संस्कृति और उनकी शक्ति और पहचान अभी तक बनी हुई है। इन्हीं भारतवंशियों की अग्रतर पीढ़ियाँ अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा, फ्रांस, स्पेन जैसे विकसित राष्ट्रों और पाकिस्तान, नेपाल, बांग्ला देश, थाईलैंड, इंडोनेशिया, चीन, जापान तथा रूस आदि में भी भारतीय संस्कृति को अपना जीवन बनाए हुए जी रही हैं। एक दूसरे महत्वपूर्ण रूप में भी भारतवंशियों की जड़ें दूसरे देशों में जम रही हैं। इस क्रम में मॉरिशस, फ्रेंच गयाना, दक्षिण अफ्रीका, के भारतवंशियों की अग्रतर पीढ़ियाँ फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड में भी व्यापार, रिश्तों तथा नौकरियों के कारण पहुंच रही हैं। ट्रिनीडाड, ब्रिटिश गयाना के भारतवंशियों की नई पीढ़ी इंग्लैंड में अपना घर – द्वार बना रही है। सुरीनाम, कुरूसावा, अरुबा के भारतवंशियों की नई पीढ़ी ने नीदरलैंड को अपना बसेरा बना लिया है।

दरअसल 1 जुलाई 1863 ईस्वी से विश्व में दासप्रथा के समाप्त हो जाने के बाद खेतीबाड़ी का कारोबार जारी रखने के लिए विश्व के सत्ताधारी राष्ट्रों का ध्यान दक्षिण एशियाई देशों की ओर गया। भारतीय मजदूरों के निर्यात-निमित्त ब्रिटिश, फ्रेंच और डच सत्ताधारी एजेंटों ने अपना मुख्य डिपो कलकत्ता ( जो अब कोलकाता है) में खोला। भर्ती के लिए इन एजेंटों ने गोरखपुर, वाराणसी, इलाहबाद, बस्ती तथा मथुरा में अपने उपकेंद्र खोले। इसके अलावा वे बंबई (जो अब मुंबई है।) और मद्रास (जो अब अब चेन्नै है।) के समुद्री तटों से भी मानव-मजदूरों का कारोबार करते थे। यद्यपि विश्व की अलग-अलग कालोनियों में अलग-अलग भर्ती उपकेंद्र थे। उन्हें आदमी के लिए पांच रुपए और औरत के लिए उससे भी अधिक कमीशन मिलता था। कोलोनाइजर अपने हिस्से में, प्रशासनिक केंद्रों और कार्यालयों में सुंदर स्त्रियां रख लेते थे। यही नहीं किसानों तथा मजदूरों में स्त्रियों का बंटवारा करते हुए वे अपने अनुसार जोड़े बना देते थे।

शर्करा, शक्कर अर्थात चीनी के दाने डचभाषियों के लिए ‘शाउकर’ है । विश्व में गुलामी और शर्तबंदीप्रथा के अंतर्गत विश्व के ब्रिटिश, फ्रांस तथा डच साम्राज्य से जुड़े द्वीपों, देशों और क्षेत्रों में गन्ना उगाई को ‘व्हाइट गोल्ड’ यानि सफेद सोना कहा गया, जिसने इन देशों को ‘श्वेत स्वर्ण-लंका’ में तब्दील कर दिया। इन गोरे सत्ताधारियों के ‘व्हाइट गोल्ड’ यानि सफेद सोने में ही हिन्दुस्तानियों की देह का खून-पसीना लगा। दरअसल वे गन्ना नहीं मानव देह ही पेर रहे थे। इन्हें उन्होंने ‘कुली’, ‘कुत्ता’ और ‘कलकतिया’ के संबोधन की पहचान दे रखी थी। ये पांच वर्ष की शर्तबंदी ( एग्रीमेंट-कॉन्ट्रेक्ट) गिरमिटिया और कन्त्राकी के तहत सात समुन्दर पार ले जाए जाते थे। जहाँ पांच वर्ष बाद वे अपना नया अनुबन्ध बना लेते थे, जिसके साथ उन्हें अलग-अलग देशों के नियमानुसार उन्हें व्यक्तिगत खेती की जमीनें और नकद धनराशि मिलती थी। जो वापस लौटना चाहते थे उन्हें कुछ राशि सहित वापस भेजने की नि:शुल्क व्यवस्था कर दी जाती थी। पर तीन-चार महीने की पालवाले जहाज की समुद्री यात्रा के आतंक से भयभीत हिंन्दुस्तानी वापस लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। सुरीनाम के पारामादिबो, मॉरिशस के पोर्ट लुई और ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न शहर में हिन्दुस्तानियों के जीवन संस्कृति और सूचनाओं को लेकर आकर्षक संग्रहालय बने हुए हैं।

ट्रिनीडाड के वेस्टइंडीज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक – समाजशास्त्री लारेन्स ने इमिग्रेइट (Emigrate) पुस्तक में कैरीबियाई और गयानी देशों के शर्तबंदी मजदूरों का जीवंत चित्रण किया है। किंग्सले डेविस के अनुसार तीस मिलियन भारतवासी विदेश ले जाए गए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि करीब दस प्रतिशत भारतीयों को विदेश ले जाया गया।

भारतवंशी बहुल देशों और द्वीपों की प्रकृति का चरित्र अनोखे रूप से एक समान है। मॉरीशस हो या फिजी, फ्रेंच गयाना हो या ब्रिटिश गयाना, ट्रिनीडाड हो या सुरीनाम, दक्षिण अफ्रीका हो या दक्षिण अमेरिका सभी पृथ्वी के ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र हैं। यहाँ की उपज एक जैसी समानधर्मी है। वैसे हिन्दुस्तानी किसानों- मदजूरों की पीढ़ियों का चरित्र भी प्रकृति की तरह समानरूपा रहा है। भले ही अपने विकास के क्रम में अब वे वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, व्यापारी , शिक्षक और कलाकार हो गए हैं।

पृथ्वी के अनेक देशों, हिस्सों और कोनों में हिन्दुस्तानियों को बैलों की जोड़ी से भी बदतर हालात में रखकर जोता गया और सत्ता और पूँजी का हल जिनके नाजुक कंधों पर रखा गया। लेकिन ये हिन्दुस्तानी ( भारतीय) संस्कृति की पहचान बनकर उगे, फले-फूले और फसल की तरह खड़े हुए । जिन देशों में भी ये गए उन्होंने वहाँ अपनी आस्थाओं के मन्दिर – मस्जिद बनाए। अपने विश्वास के तोरण खड़े किए । नदी हो या सरोवर, सागर हो या महासागर सबका नाम गंगा या गंगा सागर रखा गया। हिन्दुस्तान की कृषक आस्थाशील जनता अपनी मातृभूमि पर जर्जर झौंपड़ी छोड़कर अपने श्रम की शक्ति के भरोसे समुद्रपार के देशों की ओर निकल पड़ी थी। हिन्दुस्तान छूट गया था लेकिन अपने मन के आंचल में ये हिन्दुस्तानीपन को जो गंठिया लाए थे वो आज भी इनकी पीढ़ियों की जमा पूँजी है, जिससे आज भी इनकी पहचान बनी हुई है।

भाषा किसी समाज की जीवन – शैली और जनमानस की सास्कृतिक अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है तो बोलियाँ जन-मन की संपर्क की शक्ति के आधारभूत स्रोत हैं। फीजी, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, कीनिया, सुरीनाम, गयाना और ट्रिनीडाड के साथ-साथ यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा और दक्षिण अफ्रीकी बहुल देशों के कुछ शहरी इलाकों के हिन्दुस्तानी समाज में हिन्दुस्तानी भाषा में भोजपुरी, मैथिली, अवधी, मगही आदि बोलियों का मिलाजुला संस्करण लक्षित होता है। उन देशों की स्थानीय शब्दावलियों के साथ-साथ वहाँ की संपर्क भाषा के क्रियोली संक्रमण में आकर हिंदी भाषा विकसित हुई ।

पाँच वर्षों की शर्तबंदी प्रथा के दौरान भारतवंशियों ने अपनी भाषा साधी है। कहीं इन्हें गिरमिटिया कहा गया तो कहीं कन्त्राकी । कुली, कुत्ता और कलकतिया इनकी आम पहचान थी।जीवन-संघर्ष इन्हें तोड़ता रहा पर अपने भीतर की जिजीविषा की शक्ति से ये स्वयं को जोड़ते रहे। दिन में धान रोंपते, गन्ना काटते और रात में मन-मानस में धर्म की फसल खड़ी करते। भारतवंशियों की हिंदी की नसों में संस्कृति की शक्ति समाहित है। विश्व की असंख्य संस्कृतियों की पहचान इसमें अपनी छटा बिखेरती है।

विश्व के भारतवंशियों के घर-घर में गीता और रामचरित मानस का गुटका मिल जाएगा। घर के अहाते में तुलसी मैया का चौरा मिल जाएगा। अलग-अलग रंग की झंडियाँ, लाल (हनुमानजी की), पीली (गणेशजी की) सफेद (शिवशंकर की), वहाँ गड़ी हुई मिल जाएँगी, जिसे हवन-यज्ञ के बाद सनातनी अपने परिसर अथवा मंदिर में लगवाते हैं। आर्य-समाजी के घर-द्वार की प्रमुख दीवारों के हिस्से में ‘ऊँ’ लिखा दिख जाएगा। वह इसलिए भी कि हर रविवार को ईसाई मिशनरियों की दस्तकों से बचे रहें। पंडितों में पुरुषों में चुटिया रखने का रिवाज है जिसकी देखा-देखी धर्म में गहरी आस्था रखलेवाले अन्य पुरुष भी चुटिया रखते हैं और अपने बेटों- और नाती-पोतों को भी रखवाते हैं। भारतवंशी बहुल देशों में हिंदी भाषा और साहित्य का प्रमुख आधार इनकी अपनी हिंदुस्तानी संस्कृति है।


वैश्विक हिंदी सम्मेलन की वैबसाइट –www.vhindi.in
‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ फेसबुक समूह का पता-https://www.facebook.com/groups/mumbaihindisammelan/
संपर्क – [email protected]

आपको यह संदश इसलिए मिला है क्योंकि आपने Google समूह के “वैश्विक हिंदी सम्मेलन मुंबई (Vaishwik Hindi Sammelan mumbai)” समूह की सदस्यता ली है.
इस समूह की सदस्यता समाप्त करने और इससे ईमेल प्राप्त करना बंद करने के लिए, [email protected] को ईमेल भेजें.
इस समूह में पोस्ट करने के लिए, [email protected] को ईमेल भेजें.
http://groups.google.com/group/hindimumbai पर इस समूह में पधारें.
वेब पर यह चर्चा देखने के लिए, https://groups.google.com/d/msgid/hindimumbai/CAHTRAVSE7iPAGWZ%2B8%3DYaDrMFN3P2yBiKP3-v1%2BMU2-TCsvEPLQ%40mail.gmail.com पर जाएं.
अधिक विकल्पों के लिए, https://groups.google.com/d/optout में जाएं.

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार