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दतिया-ओरछा की एक अध्यात्मिक यात्रा

हम दतिया पहुँचे तो दिन के करीब सवा बज चुके थे। ट्रेन बिलकुल सही समय से थी, लेकिन भूख से हालत खराब होने लगी थी। चूँकि सुबह पाँच बजे ही घर से निकले थे। चाय के अलावा और कुछ भी नहीं ले सके थे। ट्रेन में भी सिर्फ एक कप चाय ही पी। उतर कर चारों तरफ नजर दौड़ाई तो लंबे प्लेटफार्म वाले इस छोटे स्टेशन पर सिर्फ ताज एक्सप्रेस से उतरा समूह दिख रहा था। जहाँ हम उतरे उस प्लेटफार्म के बिलकुल बगल में ही टैंपुओं का झुंड खड़ा था। इनमें प्रायः सभी पीतांबरा पीठ की ओर ही जा रहे थे। तेज सिंह ने एक टैंपू खाली देखकर उससे पूछा तो मालूम हुआ कि सिर्फ पाँच सवारियाँ लेकर नहीं जाएगा। पूरे 11 होंगे तब चलेगा। तय हुआ कि कोई दूसरी देखें, पर जब तक दूसरी देखते वह भर कर चल चुका था। अब उस पर भी हमें इधर-उधर लटक कर ही जाना पड़ता। बाद में जितने टैंपुओं की ओर हम लपके सब फटाफट भरते और निकलते गए। करीब बीस मिनट इंतजार के बाद आखिर एक टैंपू मिला और लगभग आधे घंटे में हम पीतांबरा पीठ पहुँच गए।

वैसे स्टेशन से पीठ की दूरी कोई ज्यादा नहीं, केवल तीन किलोमीटर है। यह रास्ते की हालत और कस्बे में ट्रैफिक की तरतीब का कमाल था जो आधे घंटे में यह दूरी तय करके भी हम टैंपू वाले को धन्यवाद दे रहे थे। टैंपू ने हमें मंदिर के प्रवेशद्वार पर ही छोड़ा था, लिहाजा तय पाया गया कि दर्शन कर लें, इसके बाद ही कुछ और किया जाएगा। फटाफट प्रसाद लिए, स्टैंड पर जूते जमा कराए और अंदर चल पड़े। दोपहर का वक्त होने के कारण भीड़ नहीं थी। माँ का दरबार खुला था और हमें दर्शन भी बड़ी आसानी तथा पूरे इत्मीनान के साथ हो गया।

इस पीठ की चर्चा पहली बार मैंने करीब डेढ़ दशक पहले सुनी थी। गोरखपुर में उन दिनों आकाशवाणी के अधीक्षण अभियंता थे डॉ. शिवमंदिर प्रधान। उनके ससुर इस मंदिर के संस्थापक स्वामी जी के शिष्य थे। डॉ. उदयभानु मिश्र और अशोक पांडेय ने मुझे इस पीठ और बगलामुखी माता के बारे में काफी कुछ बताया था। हालाँकि जो कुछ मैंने समझा था उससे मेरे मन में माता के प्रति आस्था कम और भय ज्यादा उत्पन्न हुआ था। इसकी वजह मेरी अपनी अपरिपक्वता थी। बाद में मालूम हुआ कि ‘बगला’ का अर्थ ‘बगुला’ नहीं, बल्कि यह संस्कृत शब्द ‘वल्गा’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ ‘दुलहन’ होता है। उन्हें यह नाम उनके अलौकिक सौंदर्य और स्तंभन शक्ति के कारण दिया गया। पीतवसना होने के कारण इन्हें पीतांबरा भी कहा जाता है।

स्थानीय लोकविश्वास है कि दस महाविद्याओं में एक माँ बगलामुखी की यहाँ स्थापित प्रतिमा स्वयंभू है। पौराणिक कथा है कि सतयुग में आए एक भीषण तूफान से जब समस्त जगत का विनाश होने लगा तो भगवान विष्णु ने तप करके महात्रिपुरसुंदरी को प्रसन्न किया। तब सौराट्र क्षेत्र (गुजरात का एक क्षेत्र) की हरिद्रा झील में जलक्रीड़ा करती महापीत देवी के हृदय से दिव्य तेज निकला। उस तेज के चारों दिशाओं में फैलने से तूफान का अंत हो गया। इस तरह तांत्रिक इन्हें स्तंभन की देवी मानते हैं और गृहस्थों के लिए यह समस्त प्रकार के संशयों का शमन करने वाली हैं। मंदिर में स्थापित प्रतिमा का ही सौंदर्य ऐसा अनन्य है कि जो देखे, बस देखता रह जाए।

मुख्य मंदिर के भवन में ही एक लंबा बरामदा है, जहाँ कई साधक बैठे जप-अनुष्ठान में लगे हुए थे। सामने हरिद्रा सरोवर है। बगल में मौजूद एक और भवन के बाहरी हिस्से में ही भगवान परशुराम, हनुमान जी, कालभैरव तथा कुछ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर के अंदर जाते ही सबसे पहले पुस्तकों की एक दुकान और फिर शिवालय है। यहाँ मैंने पहला ऐसा शिवालय देखा, जहाँ शिव पंचायतन में स्थापित श्रीगणेश, माँ पार्वती, भगवान कार्तिकेय एवं नंदीश्वर सभी छोटे-छोटे मंदिरनुमा खाँचों में प्रतिष्ठित हैं। अकेले शिवलिंग ही हैं, जो यहाँ भी हमेशा की तरह अनिकेत हैं। वस्तुतः यह तंत्र मार्ग का षडाम्नाय शिवालय है, जो बहुत कम ही जगहों पर है। वनखंडेश्वर महादेव नाम से ख्यात यह मंदिर महाभारत काल का बताया जाता है।

इस भवन के पीछे एक छोटे भवन में महाविद्या माँ धूमावती का मंदिर है। यहाँ इनका दर्शन सौभाग्यवती स्त्रियों के लिए निषिद्ध है। धूमावती की प्रतिमा की प्रतिष्ठा स्वामी जी महाराज ने यहाँ भारत-चीन युद्ध के समय कराई थी। उस समय स्वामी जी के नेतृत्व में यहाँ राष्ट्ररक्षा अनुष्ठान यज्ञ किया गया था। साधना पीठ होने के कारण अनुशासन बहुत कड़ा है। पूजा-पाठ के नाम पर ठगी करने वालों का यहाँ कोई नामो-निशान भी नहीं है। परिसर में अनुशासन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न तो यहाँ कहीं गंदगी दिखती है और न हर जगह चढ़ावा चढ़ाया जा सकता है।

मुख्य मंदिर के सामने हरिद्रा सरोवर है और पीछे मंदिर कार्यालय एवं कुछ अन्य भवन। इन भवनों में ही संस्कृत ग्रंथालय है और पाठशाला भी। पीठ संस्थापक स्वामी जी महाराज संस्कृत भाषा-साहित्य तथा शास्त्रीय संगीत के अनन्य प्रेमी थे। हालाँकि स्वामी जी की पृष्ठभूमि के बारे में यहाँ किसी को कोई जानकारी नहीं है। लोग केवल इतना जानते हैं कि सन 1920 में उन्होंने देवी की प्रेरणा से ही यहाँ इस आश्रम की स्थापना की थी। फिर उनकी देखरेख में ही यहाँ सारा विकास हुआ। शास्त्रीय संगीत की कई बड़ी हस्तियाँ स्वामी जी के ही कारण यहाँ आ चुकी हैं और इनमें कई उनके शिष्य भी हैं।

माँ बगलामुखी के दर्शन की वर्षों से लंबित मेरी अभिलाषा आनन-फानन ही पूरी हुई। हुआ यह कि मंगल की शाम हरिशंकर राढ़ी से फोन पर बात हुई। उन्होंने कहा, ‘हम लोग दतिया और ओरछा जा रहे हैं। अगर आप भी चलते तो मजा आ जाता।’ पहले तो मुझे संशय हुआ, पर जब पता चला कि केवल दो दिन में सारी जगहें घूम कर लौटा जा सकता है और खर्च भी कुछ खास नहीं है तो अगले दिन सबका रिजर्वेशन मैंने खुद ही करवा दिया। राढ़ी के साथ मैं, तेज सिंह, अजय तोमर और एन. प्रकाश भी।

सोनागिरि पर पक्षीगान
मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद यह तय नहीं हो पा रहा था कि आगे क्या किया जाए। तेज सिंह इसके निकट के ही कस्बे टीकमगढ़ के रहने वाले हैं। उनकी इच्छा थी कि सभी मित्र यहाँ से दर्शनोपरांत झाँसी चलें और ओरछा होते हुए एक रात उनके घर ठहरें। जबकि राढ़ी जी एक बार और माँ पीतांबरा का दर्शन करना चाहते थे। मेरा मन था कि आसपास की और जगहें भी घूमी जाएँ। क्योंकि मुझे विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के अनुसार दतिया कसबे में ही दो किले और संग्रहालय है। इसके अलावा यहाँ से 15 किमी दूर जैन धर्मस्थल सोनागिरि है। 17 किमी दूर उनाव में बालाजी नाम से प्रागैतिहासिक काल का सूर्य मंदिर, करीब इतनी ही दूर गुजर्रा में अशोक का शिलालेख, 10 किमी दूर बडोनी में गुप्तकालीन स्थापत्य के कई अवशेषों के अलावा बौद्ध एवं जैन मंदिर, भंडेर मार्ग पर 5 किमी दूर बॉटैनिकल गार्डन, 4 किमी दूर पंचम कवि की तोरिया में प्राचीन भैरव मंदिर और 8 किमी दूर उडनू की तोरिया में प्राचीन हनुमान मंदिर भी हैं।

दतिया कस्बे में ही दो मध्यकालीन महल हैं। एक सतखंडा और दूसरा राजगढ़। इनमें राजगढ़ पैलेस में एक संग्रहालय भी है। दतिया से 70 किमी दूर सेंवधा है। सिंध नदी पर मौजूद वाटरफॉल के अलावा यह कन्हरगढ़ फोर्ट और नंदनंदन मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है। 30 किमी दूर स्थित भंडेर में सोन तलैया, लक्ष्मण मंदिर और पुराना किला दर्शनीय हैं। महाभारत में इस जगह का वर्णन भांडकपुर के नाम से है। मैं दतिया के आसपास की ये सारी जगहें देखना चाहता था। समय कम था तो भी कुछ जगहें तो देखी ही जा सकती थीं। मंदिर में ही खड़े-खड़े देर तक विचार विमर्श होता रहा और आखिरकार यह तय पाया गया कि आज की रात दतिया में गुजारी जाए। हम सब तुरंत मंदिर के पीछे मेन रोड पर आ गए। वहीं एक होटल में कमरे बुक कराए और फ्रेश होने चल पड़े। फ्रेश होकर निकले तो मालूम हुआ कि तेज और तोमर जी अपने किसी रिश्तेदार से मिलने कस्बे में चले गए हैं। वे लोग आ जाएँ तो हम घूमने निकलें। पर वे लोग आए करीब दो घंटे इंतजार के बाद। फिर काफी देर विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि अब हमें सोनागिरि चलना चाहिए। आखिरकार दो सौ रुपये में एक टैंपो तय हुआ और हम सब सोनागिरि निकल पड़े।

करीब 5 किमी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने के बाद ग्वालियर हाइवे मिल गया। हालाँकि यह मार्ग भी अभी बन ही रहा था, पर फिर भी शानदार था। दृश्य पूरे रास्ते ऐसे खूबसूरत कि जिधर देखने लगें उधर से आँखें किसी और तरफ घुमाते न बनें। दूर तक पठार की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर फैली हरियाली और ऊपर धरती की ओर झुकते बादलों से भरे आसमान में अस्ताचल की ओर बढ़ते सूरज की लालिमा। किसी को भी अभिभूत कर देने के लिए यह सौंदर्य काफी था। थोड़ी देर बाद सड़क छोड़कर हम फिर लिंक रोड पर आ गए थे। हरे-भरे खेतों के बीच कहीं-कहीं बड़े टीलेनुमा ऊँचे पहाड़ दिख जाते और वे भी हरियाली से भरे हुए। हर तरफ फैला हरियाली का यह साम्राज्य शायद सावन का कुसूर था।

दूर से ही सोनागिरि पहाड़ी पर मंदिरों का समूह दिखा तो हमारे सुखद आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। पहाड़ी पर रंग-बिरंगी हरियाली के बीच श्वेत मंदिरों का समूह देख ऐसा लगा, गोया हम किसी दूसरी ही दुनिया में आ गए हों। साथ के सभी लोग कह उठे कि आज यहाँ ठहरना वसूल हो गया। मालूम हुआ कि इस पहाड़ी पर कुल 82 मंदिर हैं और नीचे गाँव में 26। इस तरह कुल मिलाकर यहाँ 108 मंदिरों का पूरा समूह है।

यह जैन धर्म की दिगंबर शाखा के लोगों के बीच अत्यंत पवित्र धर्मस्थल के रूप में मान्य है। यहाँ मुख्य मंदिर में भगवान चंद्रप्रभु की 11 फुट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भगवान शीतलनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ भी यहाँ प्रतिष्ठित हैं। श्रमणाचल पर्वत पर स्थित इस स्थान से ही राजा नंगानंग कुमार ने मोक्ष प्राप्त किया था। इनके अलावा नंग, अनंग, चिंतागति, पूरनचंद, अशोकसेन, श्रीदत्त तथा कई अन्य संतों को यहीं से मोक्ष की उपलब्धि हुई। करीब 132 एकड़ क्षेत्रफल में फैली दो पहाड़ियों वाले इस क्षेत्र को लघु सम्मेद शिखर भी कहते हैं। यहीं बीच में एक नंदीश्वर द्वीप नामक मंदिर भी है, इसमें कई जैन मुनियों की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इन पहाड़ियों पर हम करीब दो घंटे तक घूमते रहे। आते-जाते श्रद्धालुओं के बीच नीरवता तोड़ने के लिए यहाँ सिर्फ मयूरों तथा कुछ अन्य पक्षियों का कलरव था। इन पहाड़ियों पर मोर जिस स्वच्छंदता के साथ विचरण कर रहे थे, वह उनकी निर्भयता की कहानी कह रहा था। सुंदरता के साथ शांति का जैसा मेल यहाँ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इहलोक में ही अलौकिक अनुभूति देते इस दिव्य वातावरण को छोड़ कर आने का मन तो नहीं हो रहा था, पर हमें वापस होटल पहुँचना भी था। क्योंकि अगले दिन बिलकुल सुबह ही ओरछा के लिए निकलना था।

रात में करीब साढ़े सात बजे हम दतिया पहुँच गए थे। लौटते समय जिस रास्ते से टैक्सी वाले हमें ले आए, वह रास्ता शहर के भीतर से होते हुए आता था। गलियों में व्यस्त यहाँ के जनजीवन का नजारा लेते हम होटल पहुँचे। कई जगह निर्माण चल रहे थे और शायद इसीलिए जिंदगी काफी अस्त-व्यस्त दिखाई दे रही थी। होटल से तुरंत हम फिर पीतांबरा मंदिर निकल गए। रात की मुख्य आरती 8 बजे शुरू होती है। उसमें शामिल होने के बाद काफी देर तक मंदिर परिसर में ही घूमते रहे। इस समय भीड़ बहुत बढ़ गई थी। मंदिर से लौटते समय तय किया गया कि खाना बाहर ही खाएँगे। हालाँकि बाहर भोजन बढ़िया मिला नहीं। बहरहाल, रात दस बजे तक होटल लौट कर हम सो गए।

सुबह उठते ही मैं सबसे पहले कैमरा लेकर होटल की छत पर गया। पीछे राजगढ़ किले का दृश्य था और आगे दूर तक फैला पूरे शहर का विहंगम नजारा। इसे कैमरे में कैद कर मैं नीचे उतरा और तैयारी में जुट गया। साढ़े सात बजे तक दतिया शहर छोड़ कर झाँसी के रास्ते पर थे। झाँसी पहुँच कर तेज सिंह ने न तो खुद कुछ खाया और न हमें खाने दिया। उनका इरादा यह था कि सबसे पहले ओरछा में रामराजा के दर्शन करेंगे। इसके बाद ही कुछ खाएँगे। खैर, ओरछा के लिए झाँसी बस स्टैंड से ही टैक्सी मिल गई।

ओरछा के रामराजा
कालिदास का मेघदूत हम पर मेहरबान था। पूरे रास्ते मूसलाधार बारिश का मजा लेते दिन के साढ़े दस बजे हम ओरछा पहुँच गए थे। पर्यटन स्थल होने के नाते यह एक व्यवस्थित कस्बा है। टैक्सी स्टैंड के पास ही बाहर से आने वाले निजी वाहनों के लिए भी अलग से व्यवस्थित पार्किंग है। सड़क के दाईं ओर मंदिरों का समूह है और बाईं ओर महलों व अन्य पुरातात्विक भवनों का। मध्यकालीन स्थापत्य कला के जैसे नमूने यहाँ चारों तरफ बिखरे पड़े हैं, कहीं और मिलना मुश्किल है। सबसे पहले हम रामराजा मंदिर के दर्शन के लिए ही गए। एक बड़े परिसर में मौजूद यह मंदिर काफी बड़ा और अत्यंत व्यवस्थित है। अनुशासन इस मंदिर का भी प्रशंसनीय है। कैमरा और मोबाइल लेकर जाना यहाँ भी मना है। दर्शन के बाद हम बाहर निकले और बगल में ही मौजूद एक और स्थापत्य के बारे में मालूम किया तो पता चला कि यह चतुर्भुज मंदिर है। तय हुआ कि इसका भी दर्शन करते ही चलें। यह वास्तव में पुरातत्व महत्व का भव्य मंदिर है। मंदिर के चारों तरफ सुंदर झरोखे बने हैं और दीवारों पर आले व दीपदान। छत में जैसी नक्काशी की गई है, वह आज के हिसाब से भी बेजोड़ है। यह अलग बात है कि रखरखाव इसका बेहद कमजोर है। इन दोनों मंदिरों के पीछे थोड़ी दूरी पर लक्ष्मीनारायण मंदिर दिखाई देता है। आसपास कुछ और मंदिर भी हैं।

नीचे उतरे तो रामराजा मंदिर के दूसरे बाजू में हरदौल जी का बैठका दिखा। वर्गाकार घेरे में बना यह बैठका इस रियासत की समृद्धि की कहानी कहता सा लगता है। आँगन के बीच में एक शिवालय भी है। सावन का महीना होने के कारण यहाँ स्थानीय लोगों की काफी भीड़ थी। इस पूरे क्षेत्र में अच्छा-खासा बाजार भी है। यह सब देखते-सुनते हमें काफी समय बीत गया। बाहर निकले तो 12 बज चुके थे। भोजन अनिवार्य हो गया था, लिहाजा रामराजा मंदिर के सामने ही एक ढाबे में भोजन किया गया।


मंदिरों के ठीक सामने ही सड़क पार कर राजमहल थे। भोजन के बाद हम उधर निकल पड़े। मालूम हुआ कि यहाँ प्रति व्यक्ति दस रुपये का टिकट लगता है। कई विदेशी सैलानी भी वहाँ घूम रहे थे। इस किले के भीतर दो मंदिर हैं, एक संग्रहालय और एक तोपखाना भी। पीछे कई और छोटे-बड़े निर्माण हैं। अनुमान है कि ये बैरक, अधिकारियों के आवास या कार्यालय रहे होंगे। मुख्य महलों को छोड़कर बाकी सब ढह से गए हैं। सबसे पहले हम रानी महल देखने गए। मुख्यतः मध्यकालीन स्थापत्य वाले इस महल की सज्जा में प्राचीन कलाओं का प्रभाव भी साफ देखा जा सकता है।

इस महल में वैसे तो कई जगहों से चतुर्भुज मंदिर की स्पष्ट झलक मिल सकती है, पर एक खास झरोखा ऐसा भी है जहाँ से चतुर्भुज मंदिर और रामराजा मंदिर दोनों के दर्शन किए जा सकते हैं। कहा जाता है कि इसी जगह से रानी स्वयं दोनों मंदिरों के दर्शन करती थीं। यह अलग बात है कि अब उस झरोखे वाली जगह पर भी कूड़े का ढेर लगा हुआ है। यह राजा मधुकर शाह की महारानी का आवास था, जो भगवान राम की अनन्य भक्त थीं और यहाँ स्थापित भगवान राम का मंदिर उनका ही बनवाया हुआ है। महल का आँगन भी बहुत बड़ा और भव्य है। बीचोबीच एक बड़ा सा चबूतरा बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ रानी का दरबार लगता रहा होगा। जबकि राजमंदिर का निर्माण स्वयं राजा मधुकर शाह ने अपने शासनकाल 1554 से 1591 के बीच करवाया था।

इसके पीछे जहाँगीर महल है। इसका निर्माण 17वीं शताब्दी में मुगल सम्राट जहाँगीर के सम्मान में राजा बीर सिंह देव ने करवाया था। वर्गाकार विन्यास में बने इस महल के चारों कोनों पर बुर्ज बने हैं। जालियों के नीचे हाथियों और पक्षियों के अलंकरण बने हैं। ऊपर छोटे-छोटे कई गुंबदों की शृंखला बनी है और बीच में कुछ बड़े गुंबद भी हैं। हिंदू और मुगल दोनों स्थापत्य कलाओं का असर इस पर साफ देखा जा सकता है और यही इसकी विशिष्टता है। भीतर के कुछ कमरों में अभी भी सुंदर चित्रकारी देखी जा सकती है। कुल 136 कक्षों वाले इस महल के बीचोबीच एक बड़ा से हौजनुमा निर्माण है। इसके चारों कोनों पर चार छोटे-छोटे कुएँ जैसी अष्टकोणीय आकृतियाँ हैं। हालाँकि इनकी गहराई बहुत मामूली है। अंदाजा है कि इसका निर्माण हम्माम के तौर पर कराया गया होगा।

महल की छत से पीछे देखने पर पीछे मीलों तक फैली बेतवा नदी की घाटी दिखाई देती है। दूर तक फैली इस नीरव हरियाली के बीच कई छोटे-बड़े निर्माण और कुछ निर्माणों के ध्वंसावशेष भी थे। ध्यान से देखने पर बेतवा की निर्मल जलधारा भी क्षीण-सी दिखाई दे रही थी। भीतर गाइड किसी विदेशी पर्यटक जोड़े को टूटी-फूटी अंग्रेजी में बता रहा था, ‘पुराने जमाने में महल के नीचे से एक सुरंग बनी थी, जो बेतवा के पार जाकर निकलती थी।’ आगे उसने बताया कि इस महल का निर्माण 22 साल में हुआ था और जहाँगीर इसमें टिके सिर्फ एक रात थे। राढ़ी जी गाइड के ज्ञान से ज्यादा उसके आत्मविश्वास पर दंग हो रहे थे।

खैर, सच जो हो, पर ‘ओरछा’ का शाब्दिक अर्थ तो छिपी हुई जगह ही है। इसका इतिहास भी दिलचस्प है। इसकी स्थापना टीकमगढ़ के बुंदेल राजा रुद्रप्रताप सिंह ने 1501 में की थी, पर असमय कालकवलित हो जाने के कारण वे निर्माण पूरा होते नहीं देख सके। एक गाय को बचाने के प्रयास में वे शेर के पंजों के शिकार हो गए थे। बाद में राजा बीर सिंह देव ने अपने 22 वर्षों के शासनकाल में यहाँ के अधिकतर मनोरम निर्माण कराए। उन्होंने पूरे बुंदेल क्षेत्र में 52 किले बनवाए थे। दतिया का किला भी उनका ही बनवाया हुआ है। बाद में 17वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में ही ओरछा के राजा ने मुगल साम्राज्य से विद्रोह किया। फिर शाहजहाँ ने आक्रमण करके इस पर कब्जा कर लिया, जो 1635 से 1641 तक बना रहा। बाद में ओरछा राज्य को अपनी राजधानी टीकमगढ़ में करनी पड़ी।

सभ्रूभंगं मुखमिव पयो…

महलों के बहाने कुछ देर तक अतीत में जीकर हम उबरे तो सीधे बेतवा की ओर चल पड़े। मुश्किल से 10 मिनट की पैदल यात्रा के बाद हम नदीतट पर थे। महल की छत से दिखने वाली घाटी से भी कहीं ज्यादा सुंदर यह नदी है। नदी की अभी शांत दिख रही जलधारा के बीच-बीच में खड़े लाल पत्थर के टीलेनुमा द्वीप अपने शौर्य की कथा कह रहे थे या बेतवा के वेग से पराजय की दास्तान सुना रहे थे, यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था। यूँ मुझे नाव चलाने का कोई अनुभव नहीं है, लेकिन इस पर नाव चलाना आसान काम नहीं होगा। पानी के तल के नीचे कहाँ पत्थर के टीलों में फँस जाए, कहा नहीं जा सकता। मैंने मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘बेतवा बहती रही’ का जिक्र किया तो राढ़ी जी कालिदास के मेघदूत को याद करने लगे –

तेषां दिक्षु प्रथित विदिशा लक्षणां राजधानीं
गत्वा सद्यः फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा।
तीरोपांत स्तनित सुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात्स
भ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।

कालिदास का प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मित्र मेघ को रास्ते की जानकारी देते हुए कहता है – हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुँचेगा, तो तुझे वहाँ विलास की सब सामग्री मिल जाएगी। जब तू वहाँ सुहानी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीएगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कँटीली भौहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है।

बेतवा का ही पुराना नाम है ‘वेत्रवती’ और संस्कृत में ‘वेत्र’ का अर्थ बेंत है। कालिदास का यह वर्णन किसी हद तक आज भी सही लगता है। प्रदूषण का दानव अभी बेतवा पर वैसा कब्जा नहीं जमा सका है, जैसा उसने अपने किनारे महानगर बसा चुकी नदियों पर जमा लिया है। इसके सौंदर्य की प्रशंसा बाणभट्ट ने भी कादंबरी में की है। वैसे वराह पुराण में इसी वेत्रवती को वरुण की पत्नी और राक्षस वेत्रासुर की माँ बताया गया है। शायद इसीलिए इसमें दैवी और दानवीय दोनों शक्तियाँ समाहित हैं। गंगा, यमुना, मंदाकिनी आदि पवित्र नदियों की तरह बेतवा के तट पर भी रोज शाम को आरती होती है। लेकिन बेतवा की आरती में हिस्सेदारी हमारी नियति में नहीं था। क्योंकि हमें झाँसी से ताज एक्सप्रेस पकड़नी थी, जो तीन बजे छूट जाती थी। मौसम पहले ही खराब था। बूँदाबाँदी अभी भी जारी थी। समय ज्यादा लग सकता था। लिहाजा डेढ़ बजते हमने ओरछा और बेतवा के सौंदर्य के प्रति अपना मोह बटोरा और चल पड़े वापसी के लिए टैक्सी की तलाश में।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं व नियमित रूप से व्यंग्य, उपन्यास, कहानी, गीत, यात्रा संस्मरण लेखन के माध्यम से साहित्य साधना में रत हैं)

साभार http://www.hindisamay.com/ से