Friday, March 29, 2024
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आचार्य अभिनव गुप्त ने भारतीय वांगमय को एक नया क्षितिज दिया

भारत की ज्ञान-परंपरा में आचार्य अभिनवगुप्त एवं कश्मीर की स्थिति को एक ‘संगम-तीर्थ’ के रुपक से बताया जा सकता है। जैसे कश्मीर (शारदा देश) संपूर्ण भारत का ‘सर्वज्ञ पीठ’ है, वैसे ही आचार्य अभिनव गुप्त संपूर्ण भारतवर्ष की सभी ज्ञान-विधाओं एवं साधनों की परंपराओं के सर्वोपरि समादृत आचार्य हैं। कश्मीर केवल शैवदर्शन की ही नहीं, अपितु बौद्ध, मीमांसक, नैयायिक, सिद्ध, तांत्रिक, सूफी आदि परंपराओं का भी संगम रहा है। आचार्य अभिनवगुप्त भी अद्वैत आगम एवं प्रत्यभिज्ञा –दर्शन के प्रतिनिधि आचार्य तो हैं ही, साथ ही उनमें एक से अधिक ज्ञान-विधाओं का भी समाहार है। भारतीय ज्ञान दर्शन में यदि कहीं कोई ग्रंथि है, कोई पूर्व पक्ष और सिद्धांत पक्ष का निष्कर्ष विहीन वाद चला आ रहा है और यदि किसी ऐसे विषय पर आचार्य अभिनवगुप्त ने अपना मत प्रस्तुत किया हो तो वह ‘वाद’ स्वीकार करने योग्य निर्णय को प्राप्त कर लेता है। उदाहरण के लिए साहित्य में उनकी भरतमुनिकृत रस-सूत्र की व्याख्या देखी जा सकती है जिसे ‘अभिव्यक्तिवाद’ के नाम से जाना जाता है। भारतीय ज्ञान एवं साधना की अनेक धाराएं अभिनवगुप्तपादाचार्य के विराट् व्यक्तित्व में आ मिलती है और एक सशक्त धारा के रुप में आगे चल पड़ती है।

आचार्य अभिनवगुप्त के पूर्वज अत्रिगुप्त (8वीं शताब्दी) कन्नौज प्रांत के निवासी थे। यह समय राजा यशोवर्मन का था। अभिनवगुप्त कई शास्त्रों के विद्वान थे और शैवशासन पर उनका विशेष अधिकार था। कश्मीर नरेश ललितादित्य ने 740 ई. जब कान्यकुब्ज प्रदेश को जीतकर काश्मीर के अंतर्गत मिला लिया तो उन्होंने अत्रिगुप्त से कश्मीर में चलकर निवास की प्रार्थना की। वितस्ता (झेलम) के तट पर भगवान शितांशुमौलि (शिव) के मंदिर के सम्मुख एक विशाल भवन अत्रिगुप्त के लिये निर्मित कराया गया। इसी यशस्वी कुल में अभिनवगुप्त का जन्म लगभग 200 वर्ष बाद (950 ई.) हुआ। उनके पिता का नाम नरसिंहगुप्त तथा माता का नाम विमला था।

भगवान् पतञ्जलि की तरह आचार्य अभिनवगुप्त भी शेषावतार कहे जाते हैं। शेषनाग ज्ञान-संस्कृति के रक्षक हैं। अभिनवगुप्त के टीकाकार आचार्य जयरथ ने उन्हें ‘योगिनीभू’ कहा है। इस रुप में तो वे स्वयं ही शिव के अवतार के रुप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के ज्ञान की प्रामाणिकता इस संदर्भ में है कि उन्होंने अपने काल के मूर्धन्य आचार्यों-गुरूओं से ज्ञान की कई विधाओं में शिक्षा-दीक्षा ली थी। उनके पितृवर श्री नरसिंहगुप्त उनके व्याकरण के गुरू थे। इसी प्रकार लक्ष्मणगुप्त प्रत्यभिज्ञाशास्त्र के तथा शंभुनाथ (जालंधर पीठ) उनके कौल-संप्रदाय –साधना के गुरू थे। उन्होंने अपने ग्रंथों में अपने नौ गुरूओं का सादर उल्लेख किया है। भारतवर्ष के किसी एक आचार्य में विविध ज्ञान विधाओं का समाहार मिलना दुर्लभ है। यही स्थिति शारदा क्षेत्र काश्मीर की भी है। इस अकेले क्षेत्र से जितने आचार्य हुए हैं उतने देश के किसी अन्य क्षेत्र से नहीं हुए| जैसी गौरवशाली आचार्य अभिनवगुप्त की गुरु परम्परा रही है वैसी ही उनकी शिष्य परंपरा भी है| उनके प्रमुख शिष्यों में क्षेमराज , क्षेमेन्द्र एवं मधुराजयोगी हैं| यही परंपरा सुभटदत्त (12वीं शताब्ती) जयरथ, शोभाकर-गुप्त महेश्वरानन्द (12वीं शताब्दी), भास्कर कंठ (18वीं शताब्दी) प्रभृति आचार्यों से होती हुई स्वामी लक्ष्मण जू तक आती है |

दुर्भाग्यवश यह विशद एवं अमूल्य ज्ञान राशि इतिहास के घटनाक्रमों में धीरे-धीरे हाशिये पर चली गई | यह केवल कश्मीर के घटनाक्रमों के कारण नहीं हुआ | चौदहवीं शताब्दी के अद्वैत वेदान्त के आचार्य सायण -माधव (माधवाचार्य) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सर्वदर्शन सङ्ग्रह’ में सोलह दार्शनिक परम्पराओं का विनिवेचन शांकर-वेदांत की दृष्टि से किया है| आधुनिक विश्वविद्यालयी पद्धति केवल षड्दर्शन तक ही भारतीय दर्शन का विस्तार मानती है और इन्हे ही आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन के द्वन्द्व-युद्ध के रूप में प्रस्तुत करती है|आगमोक्त दार्शनिक परम्पराएँ जिनमें शैव, शाक्त, पंचरात्र आदि हैं, वे कही विस्मृत होते चले गए| आज कश्मीर में कुछ एक कश्मीरी पंडित परिवारों को छोड़ दें, तो अभिनवगुप्त के नाम से भी लोग अपरिचित हैं| भारत को छोड़ पूरे विश्व में अभिनवगुप्त और काश्मीर दर्शन का अध्यापन आधुनिक काल में होता रहा है लेकिन कश्मीर विश्वविद्यालय में, उनके अपने वास-स्थान में उनकी अपनी उपलब्धियों को संजोनेवाला कोई नहीं है। काश्मीरी आचार्यों के अवदान के बिना भारतीय ज्ञान परंपरा का अध्ययन अपूर्ण और भ्रामक सिद्ध होगा। ऐसे कश्मीर और उनकी ज्ञान परंपरा के प्रति अज्ञान और उदासीनता कहीं से भी श्रेयस्कर नहीं है।

आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने अस्सी वर्षों के सुदीर्घ जीवन को केवल तीन महत् लक्ष्यों के लिए समर्पित कर दिया-शिवभक्ति, ग्रंथ निर्माण एवं अध्यापन। उनके द्वारा रचित 42 ग्रंथ बताए जाते हैं, इनमें से केवल 20-22 ही उपलब्ध हो पाए हैं। शताधिक ऐसे आगम ग्रंथ हैं, जिनका उल्लेख-उद्धरण उनके ग्रंथों में तो है, लेकिन अब वे लुप्तप्राय हैं। अभिनवगुप्त के ग्रंथों की पांडुलिपियां दक्षिण में प्राप्त होती रही हैं, विशेषकर केरल राज्य में। उनके ग्रंथ संपूर्ण प्राचीन भारतवर्ष में आदर के साथ पढ़ाये जाते रहे थे।

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80 वर्ष की अवस्था में जब उन्होंने महाप्रयाण किया तब उनके 10 हजार शिष्य काश्मीर में थे। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने वाले मार्ग पर स्थित भैरव गुफा में अकेले प्रवेश कर उन्होंने सशरीर महाप्रयाण किया। वह गुफा भी आज उपेक्षित है और इसका अस्तित्व संरक्षित नहीं है। जिस महादेवगिरि के शिखरों पर अवतरित होकर स्वयं भगवान शिव ने आगमों का उपदेश किया, वे धवल शिखर संपूर्ण देश से आज भी अपनी प्रत्यभिज्ञा की आशा रखते हैं। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है, स्वयं को विस्मृति के आवरणों से मुक्त कर स्वरूप को जानना, शिवोहं की प्रतीति। त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा जैसे दर्शन की पुण्यभूमि है काश्मीर और प्रकारान्तर से ‘प्रत्यभिज्ञा’ हमारे देश का सबसे प्रासांगिक जीवन–दर्शन होना चाहिए। हमें अपनी शक्तियों की प्रत्यभिज्ञा होनी ही चाहिए।

साभार-jkstudycentre.org से

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