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अमेरिका में गर्भपात : पिण्ड, भ्रूण, गर्भ, अजन्मा बालक, प्राणी या मनुष्य

#गर्भपात को #अमेरिका के सुप्रीमकोर्ट ने मूलत: अवैध घोषित कर प्रतिबन्धित घोषित कर दिया हुआ है। इस का कड़ा विरोध हो रहा है, होना भी चाहिए; अन्ततः स्त्री–स्वातंत्र्य का प्रश्न है!!

मेरे जैसा व्यक्ति सुप्रीमकोर्ट की अवमानना का सोच भी नहीं सकता। न मेरा कोई सीधा इस प्रकरण से सम्बन्ध है। किन्तु इस बहाने जो बहस पक्ष–विपक्ष में हुई है उसे देखना आँखें खोलने लायक है।

मूल बहस के दो पक्ष मूलतः अजन्मे बालक के अधिकार vs स्त्री के अधिकार हो गए। अजन्मे बालक को क्या ‘व्यक्ति’ कहा जाना उचित है? यदि नहीं, तो उस के व्यक्तिगत अधिकार का प्रश्न कैसे उठता है, की बात की गई। क्योंकि वह बालक नहीं, अतः व्यक्ति नहीं, व्यक्ति नहीं तो फिर बात किस के अधिकार और पक्ष की हो रही है? तो फिर अजन्मे गर्भस्थ शिशु को क्या माना जाए? तब गर्भ, पिण्ड और भ्रूण का उल्लेख हुआ। मैं दोनों के अपने–अपने पक्ष में दिए तर्कों की सूची नहीं देना चाहती किन्तु एक कारणवश इस प्रसंग में आए एक तर्कविशेष का उल्लेख करना उद्देश्य है, जिस का भाव कुछ ऐसा है कि भ्रूण का अधिकार जीवित प्राणी के समकक्ष नहीं हो सकता, उस के जीवन का निर्णय उस की माँ की इच्छा पर आश्रित होना चाहिए, न कि जीवित प्राणी के रूप में उस के अधिकार का क्षेत्र। भ्रूण को मानव के एक अङ्ग का उत्पाद माना गया। तर्क की दृष्टि से ठीक है, जैसे जन्म देने वाली को वाली या वाला तथा माँ या स्त्री नहीं, अपित लैंगिक/यौनिक से इतर वह सत्ता कहा गया जो जन्म दे सकती है…; अस्तु।

तो मनुष्य की देह के एक अङ्ग का उत्पाद यदि अपने कोई अधिकार नहीं रख सकता जब तक कि वह मनुष्य जैसे रंग–रूप में विधिवत् आ कर गति न करने लगे।

अब ऐसे तर्क–वितर्क की भाषा ने समाज में नई तर्कप्रणाली विकसित कर पशु–अधिकारों, हिंसा–अहिंसा पर कुछ लोगों को पुनर्विचार को बाधित कर दिया है। ऐसे में समुद्री जीवों (कई बार मृत होने की कगार पर पहुँचे जलचरों के गर्भ से जीव को बचाने) इत्यादि के कार्य में जुटे असंख्य कर्मवीरों के योगदान पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। शार्क का भ्रूण क्या बचाए जाने का अधिकार रखता है या वह शार्क के एक अंग का उत्पाद है? यदि वह उत्पाद है तो उस का बचाव मानवता नहीं कहा जा सकता; इत्यादि–इत्यादि।

ये प्रश्नचिह्न हमें विचलित भले करते हैं, किन्तु वस्तुत: जैसे–जैसे ये प्रश्न एक वर्ग का विचार बनेंगे, ये एक विमर्श को जन्म देंगे। और वही विमर्श मनुष्य को अपने किए–धरे का उत्तरदायी बनने की ओर अग्रसर करेगा, ऐसी आशा से मैं इसे देखती हूँ।

मुझे प्रसन्नता है कि जिस–किसी प्रकार इस दो हाथ व दो पैर वाले खड़े हो सकने, हँस सकने व विचार कर सकने में सक्षम प्राणी को यह समझ विकसित हो कि सृष्टि का स्वामी वह नहीं है, वह भी अनेकानेक प्राणियों में से एक है। और प्रत्येक जीव तथा प्राणी का अधिकार इस धरती, पर्यावरण व सौरमण्डल पर समान है। प्राणिवध में किसी भी प्रकार की भागीदारी या भूमिका निभाने वाला व्यक्ति अहिंसा के गीत गाने या उस का झण्डा उठाने का अधिकार कदापि नहीं रखता।

अहिंसक होना तो मूलतः निर्वैर होना होता है, हत्या तो वैर–भाव से बहुत आगे की चीज है, भले ही वह पिण्ड की हो या भ्रूण की, जलचर, नभचर, भूचर की हो या प्राणी की। इसलिए अब समाज जिस तर्क के तिराहे दोराहे चौराहे पर गर्भपात के बहाने पहुँचा है वहाँ उस प्रणाली में ‘जीवात्मा’ के प्रवेश की पृष्ठभूमि मुझे तैयार होती दीखती है। इस प्रसन्नता में उस दुर्भाग्य का स्मरण भी अनिवार्य है कि जिन के पास यह दर्शन है वे पोंगापन्थी मठाधीशी तुच्छताओं से अब तक उबर नहीं पाए, अतः इस योग्य नहीं कि इस समाज को दिशा दे सकें; उन्हें समाज की नब्ज का क, ख, ग भी समझ नहीं आता और दूसरी बात कि उन्हें अपनी पदलोलुपताओं की पूर्ति अधिक अनिवार्य प्रतीत है अतः अपनी ढफलियाँ एवं गीत उन की वरीयता हैं।

(लेखिका अमरीका में रहती हैं और विभिन्न विषयों पर लिखती हैं)