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सुख-सुविधाओं को बढाने का साधन अग्निहोत्र

यजुर्वेद के द्वितीय अद्याय का आरम्भ यज्ञ की अग्नि से हुआ है| इस आग्नि द्वारा अग्नि होत्र का कार्य किस प्रकार से संपन्न हो इस पर ही अब तक के सब मन्त्रों में हमने विचार किया है| जब हम सब मन्त्रों के माध्यम से यज्ञ के रूप का वर्णन कर रहेहैं तो इस सप्तम मन्त्र में भी इस विषय को ही प्रतिपादित किया गया है कि यह यज्ञ कैसा हो? इस हेतुमंत्र अवलोकनीय है:-
अग्ने वाजजिद् वाजं त्वा सरिष्यन्तं वाजजितं सम्मार्ज्मि।
नमो देवेभ्य: स्वधा पितृभ्य: सुयमे मे भूयास्तम्॥ यजुरद २.७॥

भावार्थ
ऋषि भाष्य के अनुसार इस मन्त्र का अर्थ इस परकर किया गया है:-
ईश्वर उपदेश करता है कि प्रथम मन्त्र में कहे हुए यज्ञ का मुख्य साधन अग्नि होता है| क्योंकि जैसे प्रत्यक्ष में भी उसकी लपट देखने मे आती है वैसे अग्नि का ऊपर ही को चलने जलने का स्वभाव है|तथा सब पदार्थों के छिन्न भिन्न करने का भी उसका स्वभाव है और यान व अस्त्र शस्त्रों में अच्छी प्रकार युक्त किया हुआ शीघ्र गमन व विजय का हेतु हो कर वसंत आदि ऋतुओं से उत्तम उत्तम पदार्थों का सम्पादन करके अन्न और जल को शुद्ध या सुख देने वाले कर देता है ऐसा जानना चाहिए|

व्याख्यान
मन्त्र के इस भावार्थ के आलोक में जो तथ्य उभर कर सामने आते हैं, वह इस प्रकार हैं:-
घर की उन्नति का साधक गृहपति होता है:-
गृहपति ही इस घर की सब प्रकार की उन्नतियों का साधन होता है| वह ही अग्नि को अपने घर में स्थापित करता है, जिस पर सब प्रकार के यज्ञ किये जाते हैं और भोजनादि पदार्थ बनाने का यज्ञ भी गृहपति के धन पैदा की गई अग्नि से ही होता है| गृहपति ही घर की सब व्यवस्था करता है और घर की आर्थिक तथा अन्य सब प्रकार की सम्पन्नता भी उस पर ही निर्भर होती है| इस सब की प्राप्ति के लिए वह सदा अग्नि से खेलता है| जब वह कोई व्यापार कर रहा होता है तो इस व्यापार में प्रयोग होने वाला तेज उसे अग्नि से ही मिलता है| किसी से व्यवहार करता है तो यह व्यवहार भी हमारे आतंरिक तेज से आता है| यह आतंरिक तेज भी हमारे अन्दर निरंतर जल रही अग्नि से ही मिलता है| इस प्रकार विश्व के सब कार्य, सब व्यवसाय अग्नि से ही संपन्न होते हैं| इस अग्नि को ही घर का स्वामी सदा अपने घर में बनाये रखता है|
अग्नि सदा ऊपर को ही उठती है।

हम प्रति दिन अपने घरों में अग्नि को जलाते हुए देखते हैं और पाते हैं कि अग्नि को चाहे कहीं से भी जलाया जावे, इसकी लपट सदा ऊपर को ही जाती है, कभी नीचे नहीं जाती| इस सिद्धांत का आदर्श ही प्रत्येक जीव के अन्दर भी दिखाई देता है| इस अग्नि की गरमी से चलने वाला जीव का शरीर तथा जीव की सोच भी सदा ऊपर को ही उठती है, उन्नति की ओर ही जाती है, भौतिक अग्नि का ही रूप होता है हमारे अन्दर की अग्नि का भी| जब हम अन्दर की अग्नि के ऊपर उठने के कारण स्वयं भी ऊपर उठने लगते हैं तो सब प्रकार की उन्नति हमें मिलती है| यही बाह्य अग्नि का गुण है और यही ही हमारी अन्दर की अग्नि का भी गुण होता है|

अग्नि सब बुराइयों का नाश्करती है:-
जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि का गुण है कि यह दुर्गन्ध का नाश करती है और सुगंध को बढ़ाती है| रोगाणुओं का नाश कर पौषटfकता देती है| जो भी इस के संपर्क में आता है उसे शुद्ध पवित्र बनाकर वापिस लौटा देती है| इस प्रकार यह अग्नि सब बुराईयों को छिन्न भिन्न कर देती है और इसके स्थान पर अच्छाइयों को एकत्र कर देती है| इससे स्पष्ट होता है कि यह अग्नि बुराइयों को छिन्न भिन्न करने की शक्ति रखती है और यह अपनी इस शक्ति का सदा प्रयोग करती रहती है| हमारे अन्दर जो गर्मी है, वह भी तो अग्नि का ही एक रूप है| जब हम हमारे अन्दर की गर्मी को तीव्र करने के लिए सुगंधित तथा पौष्टिक पदार्थ भोजन के माध्यम से देते हैं, रोगनाशक पदार्थ हमारे भोजन का भाग होते हैं तो हमारे अन्दर की अग्नि इन पदार्थों का भोजन कर, इनकी शक्ति को बढ़ा कर हमें स्वस्थ बनाने का काम करती है किन्तु जब हम रोग लाने वाले गंदे पदार्थ यथा मद्यपान करना, तम्बाकू का प्रयोग करना, मानवीय भोजन को छोड़ कर दानवीय भोजन करना अर्थात् मांसाहार करने लगते हैं तो हमारे अन्दर की अग्नि इन गंदे पदार्थों के सेवन से दूषित हो जाती है| इस अवस्था में यह अग्नि शुद्ध रुधिर नहीं बना पाती| इसका ही परिणाम होता है कि हम रोगों से ग्रसित हो जाते हैं| इसलिए इह रोग रूपी गन्दगी का नाश करने के लिए हमें शुद्द पवित्र अग्नि की आवश्यकता होती है जो शुद्ध पवित्र पदार्थों से ही बन पाती है| जब हम यह पदार्थ उपभोग करते हैं तो हमारी अन्दर की अग्नि भी अन्दर के सब दोषों को छिन्न भिन्न कर देती है|

शीघ्र गमन का कारण अग्नि:-
चाहे हम सीधे रूप में अग्नि जलाकर और उसे ऊपर से उसे ढंक कर इस अग्नि को सुरक्षित रखते हुए वायु में उड़ें या फिर कोई मशीन बनाकर उस में पैट्रोल आदि के प्रयोग से अग्नि पैदा कर उड़ते हैं तो हम बहुत दूर की यात्रा को भी बहुत शीग्र ही पूरा कर लेते हैं| इस प्रकार अग्नि के प्रयोग से हम अपनी बहुत लम्बी यात्रा को भी शीघ्र ही पूर्ण करने में सक्षम होते हैं| इस शीघ्र गमन के साधन को आज हम वायुयान के नाम से जानते हैं| लाखों वर्ष पहले से ही हमारे देश में वायुयानों से यात्रा करने की परम्परा रही है| इनके प्रयोग से ही राक्षस लोग हमारे देष में आतंक को फैलाए हुए थे और जब हमने इसका प्रयोग आरम्भ किया तो हम देश को विनाश से निकाल कर उन्नति की और ले गए| योगीराज कृष्ण जी गुजरात के नगर द्वारिका में रहते थे किन्तु प्रतिदिन दिल्ली के हस्तिनापुर क्षेत्र में ही हमें मिलते रहे हैं| यह सब वायुयान की अग्नि के कारण ही संभव हो पाता था| इसलिए हम अपनी बुद्धि का पयोग करते हुए इसे अपनी यात्रा के साधन के रूप में भी प्रयोग करते हुए यात्रा को सुगम और शीघ्र पूर्ण होने वाली बना पाने में सक्षम हुए हैं|

शत्रु विजय का साधन अग्नि:-
शत्रुओं पर विजय पाने के लिए भी अग्नि और इसके विनाशक रूप, दोनों की ही आवश्यकता होती है| जब तलवारों का युग था तो लोहे को अग्नि में डाल कर पिघलाया जाता था और फिर इस पिघले हुए लोहे को बार बार अग्नि में डालते थे और बार बार कूटते थे, जिससे इस का आकार तलवार का दिया जाता था और एक बार फिर से इसे अग्नि में डाल कर खूब गर्म कर इस की धार बनाई जाती थी| इस धार में इतनी शक्ति होती थी कि एक झटके से ही शरीर को चीर कर रख देती थी| आज के युग में गोली, बम गोले और एटम आ गए हैं| यह सब भी अग्नि का ही रूप हैं और अग्नि से ही प्राप्त होते हैं | इनके अन्दर अग्नि ही भरी होती है, जिसे सुरक्षित किया होता है और जब चाहें इसे प्रकट कर शत्रु पर फैक दिया जाता है और कुछ क्षणों में ही शत्रु का नाश हो जाता है| इस प्रकार यह अग्नि हमें शत्रु पर विजयी होने के साधन के रूप में भी काम आती है| यह इस अग्नि का विनाशक रूप है|

वसंतादी ऋतुओं को बनाती है:-
हम एक वर्ष में अनेक ऋतुओं को झेलते हैं और इनका आनंद लेते हैं| कभी उष्णता आती है, कभी ठंडक आती है, कभी वसंत आ जाती है| यह सब ऋतुएं भी अग्नि के कारण होती हैं| जब सूर्य हमें गर्मी देने लगता है तो इसकी गर्म अग्नि अपना तेज दिखा रही होती है| जब हम ठंडक अनुभव करते हैं तो सूर्य की यह अग्नि कुछ शांत हो कर हमें मध्यम अग्नि देती है| जब हमें सर्दी से ठिठुर रहे होते हैं तो यह अग्नि थोडी सी शीतल हो कर शीत की अवस्था बना देती है और जब यह मध्यम हो जाती है तो हम वसंत का आनंद लेते हैं| इस वसंती मौसम के कारण हमारी खेतियां पकने लगती है| इन हरी भरी खेतियों के हरे दुग्धीय अन्नों का हम सेवन करके स्वयं को पौष्टिकता देते हैं| वसंत के पश्चातˎ मौसम में थोडा और परिवर्तन आता है, अब अग्नि कुछ तीव्र हो जाने से गर्मी धीरे धीरे बढ़ने लगती है| इससे हमारे खेतों में लह लहा रही फसलें पक जाती है और हम इन्ह्ने काट कर इनका भंडारण कर लेते हैं ताकि आने वाले समय में इनके उपभोग से हम अपने जीवन को आगे बढ़ा सकें| इस प्रकार यह सब ऋतुएं भी इस अग्नि के प्रभाव से ही बनाती हैं|
अन्न तथा जल को शुद्ध करती हैं:-

अन्न तथा जल को शुद्ध करने के दो साधन होते हैं| एक भौतिक अग्नि और दूसरे सूक्ष्म अग्नि अथवा अन्दर की अग्नि अथवा प्राकृतिक अग्नि| अनेक खाने के पदार्थ इस प्रकार के होते हैं, जिन्हें हम सीधे तोड़ कर नहीं खा सकते| जैसे काजू का फ़ल| इस फ़ल को वृक्ष से तोड़कर भौतिक अग्नि में पकाया जाता है,पकाने पर इसका छिलका उतारा जाता है और फिर यह फ़ल खाने के योग्य बन कर हमें पौष्टिकता देने का साधन बनता है| इस प्रकर ही अनेक प्रकार के अन्नों को भी पका कर ही खाया जाता है, कच्चा खाने से यह हानि करते हैं| गेहूं काटते ही खा लेवें तो पेचिश पैदा कर देता है, वर्षा ऋतु की ठंडक इसे ठंडा करती है और फिर यह खाने के योग्य होता है| काजू भी यदि वृक्ष से तोड़कर सीधा मुंह में डालें तो मुंह पक जाता है| इस सब के शोधन के लिए हमें भौतिक अग्नि का प्रयोग करना होता है तो अन्नादि के शोधन में प्राकृतिक अग्नि कार्य करते हुए सब प्रकर के जलों को शुद्ध करती है और सब प्रकार के अन्नों का भी शोधन करती है|

हम जो अग्निहोत्र कारते हैं, उसकी क्रियाओं को जब हम बड़ी महीनता से समझते हैं तो हम पाते हैं कि ऊपर की सब गुणों वाली तथा मानव के लिए लाभदायक जितनी भी अग्नियाँ हैं इस अग्निहोत्र से हमें मिलती हैं| जहां पर यह अग्निहोत्र नहीं होता, वहां का सब कुछ दूषित हो जाता है| कुछ सीमा तक सूर्य की अग्नि इस दूषण को दूर करने का कार्य करती है किन्तु पूरा प्रदुषण दूर करने के लिए अग्निहोत्र की ही आवश्यकता होती है|

डॉ. अशोक आर्य
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