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अंधे आलू की व्यथा

अंधा आलू नाम बड़ा अटपटा सा लगता है, परन्तु आज के वैज्ञानिक युग की सच्चाई है।एक बार मुझे कुछ आलू की खेती करने वाले किसानों के साथ बंगाल के पूर्व बर्धमान ज़िले के जमालपुर तहशिल के खानपुर ग्राम के आलू के खेत में जाकर उस अंधे आलू से मुलाक़ात करने का मौक़ा मिला। वह मुझे देखा और अपने को मिट्टी में समेट कर अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाने की इच्छा ज़ाहिर किया। एक मूक भाषी मुझसे अपनी व्यथा को समझाने की कोशिश कर रहा था कि उसे सिर्फ़ अंधा ही नहीं, अपितु बाँझ भी बना दिया गया है और इस जीवन के बाद मुक्ति तो शायद नहीं मिलेगी किन्तु अपने परिवार जनों और अपने परिजनों के साथ नहीं रह पाऊँगा। उसने बड़े सहमते हुए और दर्द भरी आवाज़ में मेरी दृष्टि को पास में ही एक दूसरे खेत में लगे आलू के पौधों की तरफ़ आकृष्ट कर बताया की वे देशी आलू हैं जिनकी एक नहीं सात आठ आँखें हैं और वे बड़े प्रसन्न हैं कि भारत माँ की कोख से जो रस उन्हें मिला है उससे वे जनसेवा के लिये वंश वृद्धि के सक्षम हैं और उनके खेत का मालिक उनमें से ही कुछ को सुरक्षित रख दूसरी फसल तैयार कर लेगा और उनका परिवार कुछ स्वदेशी और स्वावलंबी राष्ट्र प्रेमियों के कारण इस भूमि पर फलता फूलता रहेगा।

उसने यह भी बताया की उसकी प्रजनन क्षमता को अवरुद्ध किये जाने से उसके खेत के मालिक की आर्थिक अवस्था भी अच्छी नहीं रही क्योंकि उसे अब प्रत्येक बार बीजों को विदेशी कम्पनी के रजिस्टर्ड व्यापारी से ही ख़रीदना पड़ेगा। जाँच पड़ताल से पता चला कि आलू की खेती में विदेशी बीज को लेकर कई नए विवाद और जानकरियाँ उपलब्ध हुई हैं और अख़बारों में इन सब बातों की बड़ी चर्चा है कि आलू भी क्या अंधा हो सकता है? हमने अंधे राजनैतिक भक्तों को तो देखा है कि वे अपने निजी स्वार्थ में अपने मित्रों और समाज के साथ ग़द्दारी कर सकते हैं किंतु प्रकृति पर भी उनका ऐसा प्रकोप हो सकता है, यह थोड़ा अटपटा और अविश्वसनीय सा लग रहा था। तभी किसी राष्ट्रीयता से जुड़े व्यक्ति की गूंज मेरे कानों में आयी कि आधुनिक विज्ञान कुछ भी कर सकता है क्योंकि वैज्ञानिकों की खोजों और अविष्कारों का बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ नाजायज़ फ़ायदा उठाकर पैटेंट क़ानून के द्वारा ऐसी तकनीक का व्यवहार करती है जिससे चाहे धरती बंजर हो जाये, चाहे पौधों की प्रजनन क्षमता नष्ट हो जाये, चाहे फसल का उपभोग करने वाले इंसान का स्वास्थ्य खरब हो जाये। इन सब संवेदनशील विषयों से उनका कोई सरोक़ार नहीं है बल्कि दवा कंपनियाँ तो ख़ुश होकर इस तरह की कम्पनियों और उनके उच्च पदस्त अधिकारियों को तरह तरह के प्रलोभनों द्वारा उत्साहित करती रहती हैं कि लोग अस्वस्थ होंगे तो बीज कम्पनियों को और दवा कम्पनियों को बड़ा लाभ होगा।

(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ, देश के जाने माने कर एवँ वित्तीय सलाहकार हैं व चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और स्वदेशी अभियान से जुड़े हैं।)