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आतंकवाद के लिए अमरीका भी कम गुनाहगार नहीं

अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए विनाशकारी हमले को आज सोलह साल का समय बीत गया है. इस घटना को मीडिया ने इतनी बार दिखाया है कि य़े वाक्या हमारे मानस पटल पर अंकित हो चुका है और हालांकि विश्व में कई आंतकवादी घटनाएं लगभग रोज़ घटित हो रहीं हैं, पर इतनी ह्रदय विदारक, बर्बर, भयावह और अभूतपूर्व त्रासदी शायद अब तक कहीं नहीं हुई. कहना गलत ना होगा कि इस घटना ने पिछले दशक में संसार के प्रजातान्त्रिक ढांचे और आम जन-जीवन को जिस प्रकार प्रभावित किया है, उतना शायद हिरोशिमा या नागासाकी में गिरने वाले बम्बों ने भी नहीं किया था.

हालांकि जापान में बम्ब गिराना भी एक घिनौना कृत्या था, तदापि उसने विश्व युद्ध को विराम दे, दुनिया को शांति स्थापित करने के लिए प्रेरित किया. इसके विपरीत, ग्यारह सितम्बर 2001 के आंतकवादी हमले के बाद, अमरीकी रुख ने विश्व में ना केवल घृणा का अमिट बीज बो दिया बल्कि भय का ऐसा साम्राज्य स्थापित कर दिया है कि इससे निजात पाना अब लगभग नामुमकिन सा लगता है. इसके फलस्वरूप, आज सड़क पे गिरे लिफाफे या बटुए को देख हम काँप जाते हैं; अनजान व्यक्ति को तकलीफ में जानकार भी कोई मदद के लिए आगे नहीं आता और बस अड्डे, रेलवे स्टेशन या सिनेमा घर में हर साया, हमें आतंकवादी नज़र आता है. मुंबई या दिल्ली ही नहीं, लन्दन से सिडनी तक हर कोई सहमा हुआ है और कभी-कभी शंका के चलते, बेक़सूर जीवन बेवजह तबाह कर दिए जाते हैं.

आज विश्व भर में न्यूयोर्क हमले में मारे गये लोगों के लिए प्रार्थनाएं की जा रही हैं, श्रद्धांजलियाँ दी जा रही हैं, जो इंसानियत की पुकार है. पर क्या य़े वक्त उन लाखों बेकसूरों के लिए भी आंसू बहाने का नहीं है जिन्हें अमरीकी दमनकारी नीतियों द्वारा दशकों से कुचला गया और जिसके कारण डब्लूटीसी का दर्दनाक हादसा हुआ. जो लोग अमरीका को स्वर्ग का प्रतीक मानते हैं और जिनकी नज़र में उसकी प्रत्येक चीज़, व्यवस्था और नीति अनुकर्णीय है, वे महानुभव् भूल जाते हैं कि विश्व में अराजकता फैलाने का सबसे बड़ा गुनाहगार अमरीका ही है. कहने को आतंकवाद के लिए विभिन्न समुदायों और संगठनों को दोष दिया जाता है, लेकिन जिनकी समझ चापलूसी से भ्रमित नहीं है, वो जानते हैं कि पिछले विश्व युद्ध के बाद, विश्व में तमाम तनावों और युद्धों के पीछे अमरीका का ही हाथ रहा है. अरब-इस्राईल, विएतनाम, कोरिया, इराक-इरान, भारत-पाकिस्तान के तनावों से लेकर अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना और ओसामा बिन लादेन तक, सब के पीछे अमरीकी साज़िश उजागर हुई है और इराक में सामूहिक विनाश के हथियारों की झूठी बात कह कर अमरीका ने कैसे सद्दाम हुसैन का तख्ता पलटा, य़े सबको पता है.

अमरीका ने वितीय ताकत के सहारे, विश्व में कई जगह मानव अधिकारों का दमन किया है और येन-प्रकारेण अपनी प्रभु सत्ता को कायम रखने की कोशिश की है. लेकिन इस सब के बावजूद, अमरीका को विश्व में सत्य, मानवीय संवेदना और गणतंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक बताया जाता है क्यूंकि जन प्रचार-प्रसार की अपार ताकत अमरीकी हाथों में ही कैद है. भले ही विशेषज्ञ मानते हैं कि अमरीका की बदसलूकी और बदनीयती के कारण ही तथाकथित इस्लामिक कट्टरपंथीयों नें २००१ की अभूतपूर्व घटना को अंजाम दिया, लेकिन खुद अमरीका के कई विशिष्ट लोग इसे अमेरीकी साजिशों का फल मानते हैं. अफ़सोस इस बात का है कि अपनी रणनीती को अधिक उदारवादी बनाने की बजाये, अमरीकी प्रतिक्रिया इतनी द्वेषपूर्ण और दमनकारी है कि सारा संसार उससे आहत हो, धधक रहा है.

अमरीकी नीतियों का सबसे बड़ा खामियाजा आज आम आदमी को उठाना पड़ रहा है. अमरीकी नक़्शे कदम पर चलते हुए विश्व भर में भौतिक सुरक्षा के नाम पर निजी स्वतंत्रता का हनन हो रहा है जिसके अंतर्गत सारी सरकारें आम आदमी के निजी फोन, सन्देश या संबंधों पर निगरानी रखने लगी हैं. सामाजिक सुरक्षा के नाम पर सरकारों ने आम नागरिक की प्रत्येक हरकत पर नज़र रखना शुरू कर दिया है, जिससे समाज में नकारात्मकता में वृद्धी हुई है. इन्ही नीतियों ने विश्व में ना केवल सैनिक साज समान का खर्च बढ़ा दिया है बल्कि हर दिन “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” के नाम पर अथाह पैसा उजाड़ा जा रहा है जबकि समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है. हैरानी की बात य़े है की आतंकवाद चाहे भारत में हो या इंडोनेसिया में, अमरीका में हो या ब्रिटेन में, पाकिस्तान में हो या ऑस्ट्रेलिया में, कभी किसी अपराधी का नाम उजागर नहीं होता ना ही किसी को कोई दंड मिलता है. य़े बात समझ से परे है कि आखिर विश्व समुदाय को ओसामा बिन लादेन की गिरफ्तारी और तथाकथित मौत का कोई सबूत क्यूँ नहीं दिया गया. ये जानना बहुत ही मुश्किल हो रहा है कि आखिर परदे के पीछे से आतंकवाद का खेल कौन खेल रहा है, किसको इससे फायदा पहुँच रहा है और सारी विश्व की सरकारें सत्य को जनता के सामने उजागर क्यों नहीं करतीं?