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“गांधी गोडसे- एक युद्ध” फिल्म पर एक अधूरा नोट

मेरी इच्छा यही है कि लोग ‘गांधी गोडसे : एक युद्ध’ फिल्म देखें और उसके बाद उस पर अपनी राय दें। तर्कसंगत आलोचना/ समीक्षा मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत पसंद है। मैं मानता हूं कि प्रशंसा से अधिक महत्व आलोचना का है क्योंकि प्रशंसा से कुछ सीखा नहीं जा सकता लेकिन आलोचना और समीक्षा से कुछ सीखा जा सकता है। कोई भी रचना परफेक्ट नहीं हो सकती। इसलिए आलोचना की सभी संभावनाओं का स्वागत है।

मैं नहीं चाहता कि फ़िल्म देखना से पहले दर्शक को प्रभावित किया जाए लेकिन क्योंकि कुछ लोगों ने फिल्म के मुद्दों की अनदेखी और उपेक्षा करने और तोड़ने मरोड़ने का प्रयास किया है इसलिए मैं समझता हूं कि फिल्म के बारे में कुछ बात करना आवश्यक है।

यह फ़िल्म मेरे नाटक गांधी @गोडसे. कॉम पर आधारित है। यह नाटक पिछले 15 साल से हिंदी ही नहीं गुजराती और कन्नड में भी खेला जा रहा है। इसका कथानक आभासी इतिहास पर केंद्रित है। कल्पना की गई है कि गोली मारे जाने के बाद गांधीजी बच गए थे। यह आभासी इतिहास है जिसके माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं की ओर संकेत किए गए है।

फ़िल्म का पहला और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि क्या हिंदुत्व की दो धाराओं ( गांधी और गोडसे) के बीच संवाद होना चाहिए ?

दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा कांग्रेस पार्टी के चरित्र, उसकी भूमिका और उसके भविष्य से संबंधित है।

कुछ मुद्दे गांधी जी द्वारा स्वराज आंदोलन के माध्यम से उठाए गए हैं। लोगों द्वारा अपने ऊपर स्वयं शासन करने के सिद्धांत की चर्चा है जिसके अंतर्गत गांव में गांव के ही लोग पटवारी, पुलिस और न्यायालय बनाते हैं।

पर्यावरण संरक्षण एक मुद्दा बनता है। विकास संबंधी धारणाओं पर भी प्रश्न चिन्ह लगाएं गए हैं। विकास आरोपित करने की धारणा पर विचार किया गया है। ग्रामीण जनों के शोषण को भी एक बड़े मुद्दे के रूप में सामने रखा गया है।

गोडसे और गांधी के बीच संवाद के माध्यम से अखंड भारत का मुद्दा, महात्मा गांधी पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप, अखंड भारत की परिकल्पना,भारत की बहुलतावादी संस्कृति, सांप्रदायिकता, भारत विभाजन आदि विषय सामने आते हैं।

नाटक का अंत बहुत प्रतीकात्मक है। जेल के बाहर गांधी और गोडसे के समर्थक उनका स्वागत करने और उन्हें लेने आते हैं लेकिन गांधी और गोडसे अपने से अपने समर्थकों के साथ नहीं जाते। वे दोनों अपने समर्थकों के बीच से रास्ता बनाते आगे बढ़ जाते हैं।

ये केवल फिल्म की कथावस्तु से संबंधित कुछ बातें हैं। इन सब पर बहस करने की पूरी संभावना है।

फिल्म के और भी कई पक्ष हैं जिनकी चर्चा बाद में की जा सकती है।

कुछ लोग यही मान बैठे हैं कि फिल्म में गोडसे को गांधी के बराबर खड़ा किया गया है। और उनका मानना है के जितना महत्व महात्मा गांधी का है उतना महत्व गोडसे को दिया गया है। यह एक नासमझी है। गांधी और गोडसे के बीच बातचीत का यह अर्थ बिल्कुल नहीं हो सकता कि दोनों बराबर हैं।

दूसरी बात क्या गांधी ने कभी यह किया या दिखाया है कि कौन उनसे छोटा है और वे छोटे से बात नहीं करेंगे केवल अपने बराबर वाले से बात करेंगे? गांधी कहते थे पाप से घृणा करो पापी से नहीं।

गांधी अगर ऊंचे नीचे और छोटे बड़े को मानते होते तो शायद कभी दलित बस्ती में जाकर न रहते ।

आश्चर्य की बात है कि गांधी के कुछ मानने वालों ने गांधी को भगवान बना दिया हैं । लेकिन इस फिल्म में कोई भगवान नहीं है। सब इंसान हैं और उनके बीच एक दूसरे को समझने समझाने के लिए संवाद होता है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि मनुष्य के अंदर बनने और बिगड़ने की अनंत संभावनाएं होती हैं।

असगर वज़ाहत के फेसबुक पेज से