Tuesday, April 16, 2024
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धारा 370ः मासूम सा सवाल, मासूम सी जिंदादिली

कश्मीर की आज़ादी, 370 का हटना, 35ए का समाप्त होना, कश्मीरियत का हिंदुस्तानी तिरंगे में लिपट-सा जाना, चश्म-ए-शाही का मीठा पानी देना, झेलम का बासंती उफान, चिनार का खुशियाँ मनाना, चीड़ और देवदार का झुक-सा जाना, डल का केसरिया बाना, कानून का एक-सा हो जाना, जब जायज है, पर उससे भी अधिक आवश्यक है हिंदुस्तानियों को कश्मीरियत के लिए प्यार लुटाना।

यकीन मानिए कश्मीर कभी अलग नहीं था, बस चंद अतिमहत्वाकांशियों की भेंट चढ़ रहा था। मैं कश्मीर जब भी गया, बहुत मोहब्बत पाई, रिक्शेवाले से लेकर भोजनालय वाले तक, भाई से लेकर बहन तक, कश्मीरी भाषा के लेकर हिन्दी तक। कश्मीर के व्याकरण को समझने के लिए कुछ दिन तो गुजारना कश्मीर में। वहाँ कि आवाम भी इन फसाद, जंग, झगड़ों से उतनी ही परेशान रहती है जितने हिंदुस्तानी सैनिक, सरकार आप और हम।हम तो केवल देखते-सुनते है, वो झेलते है। घर नहीं बल्कि कैदखाने बन गए है, घर के बाहर पहरा देता जवान, विद्यालय-महाविद्यालय जाते बच्चें कब किसी की संगत में आ कर पत्थर उठा ले, या कब उसे मिल्टन समझ कर धर पकड़ लिया जाएं, इससे कश्मीर के माँ-बाप भी चिंतित रहते है।

यकीन मानना, हालात कश्मीर के इन अलगाववादियों की अतिवादिता के चलते बिगड़े और फिर कभी सुधार नहीं पाएं। राजनैतिक रेलमपेल में झेलम व्यथित हुई, लालचौक बदनाम हुआ, और नफरत ने जगह बना ली। क्योंकि उन्हें प्यार नहीं मिला, और जब प्यार नहीं मिलता है तो नफरत बखूबी उस जगह को भरने का काम करती है। और यही हुआ कश्मीर के साथ।

हिंदुस्तान उखड़ा-उखड़ा रहा और पाकिस्तान छद्म स्नेह लुटाता रहा, झुकाव उधर होने लगा ,और वैसे ही पाक के नापाक मंसूबे दिखने लगे तो बेचारे कश्मीरी अधर में लटकने लग गए। अब मरते क्या न करते, उठाया पत्थर और चले नफरत निकालने। नादान बच्चा इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है। पर आज हालात बदले है, अब हमारी जिम्मेदारी है कश्मीर।

यदि कश्मीरी कहवे में दालचीनी या केशर ज्यादा हो गई तो कसैला लगेगा, और कम हुई तो भी कड़वा, इसलिए उसमें मिठास बरकरार रखिए, कहवा बहुत आनंद दायक रहेगा।

मैं जब भी श्रीनगर अपने भाई को फोन लगाता हूँ तो उसका जवाब होता है ‘भाई कैसे हो, घर में सब ठीक हैं?’ वैसे ही जब बहन से बात करता हूँ तो शुरुआत राधे-राधे से होती है और संवाद होता है। ये असल कश्मीर है, जब एक कश्मीरी भाई अपने भाई से मिलने उसके साथ वक्त बिताने मुसीबतों को झेलते हुए टीआरसी पहुँच जाता है, और फिर न भूल पाने वाली यादें दे जाता है ,तब कश्मीर याद आता है, जब एक बहन अपने भाई को मुसीबत में देख कहती है कि आप चिंता न करना, हम सब आपके साथ है, तब कश्मीर याद आता है।

ये कश्मीर की खासियत है कि वो दिल से मिलने वालों के दिल में रहता है। वादी से रिश्ते प्रेम के कहवे का स्वाद प्रेम से ही लिया जा सकता है। अन्यथा जाफरान की खुश्बू से हम भी वंचित रह जाएंगे और उन्हें भी गंगा के मीठे जल में घुलने-मिलने से रोक देंगे। आज हालत कमजोर जरूर है पर दुरूह नहीं। वर्जनाएँ आप पहले तोड़ने की पहल कीजिए, वहाँ भी प्रेम के मिलते ही नफरतों के शीश महल बिखरेंगे। फिर देखिएगा हिंदुस्तान की नई तस्वीर।

वैसे भी हिंदुस्तानियों का दिल प्रशांत महासागर की तरह गहरा और गंभीर है। अब हमें उन्हें उतना स्नेह देना है जितना एक नाराज़ हुए बच्चे को दिया जाता है, ताकि उन्हें प्यार की कमी न लगे और नफरत का जहर खुद ब खुद उतर जाएं।

नफरत, जिद और ग़ुस्से का समाधान डर, ताना, धमकी और झूठा गुस्सा नहीं होता। और यदि यही करते रहें तो गुस्सा नफरत में बदलने लगेगा, फिर कभी सम्भावनाएँ नहीं रहेगी एक हो जाने की। फिर राज्य तो अपना रहेगा पर केशर की क्यारियों से नेह नहीं बरसेगा। शरीर फिर भी मिल जाएगा पर मन के लिए दोनों तरस जाओगे।

वाकई अब हिंदुस्तानी जनमानस को तरीका बदलना होगा, भूल जाओ कि हम किस तरीके से उन्हें अपना बना रहें थे, अब नया तरीका अपनाएं, जिसका रास्ता प्रेम और स्नेह से जाता है। उन्हें विश्वास दिलाना होगा कि हिंदुस्तानी सरहद में वे महफूज है, कही उनके आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचेगी, उनका मान कही कमजोर नहीं होगा, कही उनके साथ वो सुलूक नहीं किया जाएगा जो बरसों पहले उन्होंने किया। जब उनके दिलों से डर निकल जाएगा तो असल मायनों में कश्मीरी खुद तिरंगा लहराएगा।

क्योंकि कश्मीरियत खुद भी सुरक्षित ससुराल चाहती है, जहाँ मायके सा प्यार मिलें। और ससुराल में साँस (भारत सरकार) के रूप में माँ (कश्मीरीयों की माँग अनुसार स्वयं का प्रधानमंत्री) मिले। हिंदुस्तानी आवाम उन्हें वैसे ही गले लगाएं जैसे दीवाली और ईद पर हम हिंदुस्तानियों को गले लगाते है। हो सकता है थोड़े दिन नाराज़ रहें वो कश्मीरी,पर हमारा दायित्व है कि हम उनकी नाराज़गी को प्रेम से कम करें, न कि नफरत का सिला हम भी गुस्से और जिद से दें। यदि हमने प्रेम नहीं दिया तो हम कश्मीर जीत कर भी हार जाएंगे।

और ये हुआ तो फिर कभी हम दिल से एक और नेक नहीं हो पाएंगे, बल्कि घर के अंदर ही तूफान को हवा देंगे।

आज संकल्प लें कि हम उन्हें अपनों की तरह मोहब्बत और प्यार देंगे।

आखिरकार वे है भी तो अपने ही, और अपने रूठ सकते है पर घातक तब तक नहीं होते जब तक नफरत न भर जाएं।

इसी विश्वास के साथ….

जय हिंद-जय हिंदी

डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं स्तंभकार
संपर्क: ०७०६७४५५४५५
अणुडाक: [email protected]
अंतरताना:www.arpanjain.com

[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

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