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आर्य समाजी स्वामी ध्रुवानन्द

स्वामी ध्रुवानंद यथा नाम आर्य समाज के ध्रुव ही थे| गुरुकुल हरदुआगंज (अलीगढ) से निकल कर आपने आर्य समाज की सेवा का संकल्प लिया और सेवा करते हुए आपने आर्य समाज के उच्चस्थ पदों को प्राप्त किया| इस सेवा का ही परिणाम था कि आप आर्य समाज की सर्वोच्च संस्था सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के सर्वोच्च पद अर्थात् प्रधान पद को अनेक वर्ष तक सुशोभित करते रहे |

गांव पानी जिला मथुरा उतर प्रदेश में सन् १८९५ इस्वी में आप का जन्म हुआ। आप का नाम धुरेन्द्र था तथा शास्त्री होने पर नाम के साथ शास्त्री लग गया और सन् १९३९ में राजा उम्मेद सिंह, नरेश शाहपुर ने आप को राजगुरु की उपाधि दी तो आप के नाम के साथ राजगुरु भी जुड़ गया । इस प्रकार आप का पूरा नाम धुरेन्द्र शास्त्री राजगुरु बना ।

स्वामी सर्वदानन्द जी ने अलीगढ से पच्चीस किलोमीटर दूर काली नदी के तट पर एक सुरम्य स्थान पर गुरुकुल की स्थापना की। इस स्थान का नाम हर्दुआगंज है । यहां से छ्लेसर नामक गांव इस गुरुकुल से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर है। इस गांव में ही स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य सेवक श्री मुकन्द सिंह जी निवास करते थे। उनकी सन्तानें अब भी यहीं रहती हैं। स्वामी जी जब भी इधर आते थे तो काली नदी के पुल के पास स्थापित चौकी पर बैठा करते थे। यह चौकी गुरुकुल के मुख्य द्वार के ठीक सामने है। आप की शिक्षा मुख्य रुप से इस गुरुकुल में ही हुई ।

आर्य समाज की सेवा का ही परिणाम था कि आप आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त के प्रधान बने तथा बाद में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के भी अनेक वर्ष तक प्रधान रहे। आर्य समाज के आन्दोलनों में आप सदा ही बढ-चढ कर भाग लेते थे। इस कारण ही आप हैदराबाद सत्याग्रह में भी आगे आए तथा इस आन्दोलन का नेतृत्व किया ।

आप ने जब संन्यास लिया तो आप को स्वामी ध्रुवानन्द का नाम दिया गया। आप की सम्पादित एक पुस्तक सन् १९३८ इस्वी में शाहपुर से ही प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में विवाह संस्कार के अन्तर्गत “वर वधू के बोलने योग्य मंत्र” शीर्षक दिया गया। दिनांक २९ जून १९६५ इस्वी को आप का देहान्त हो गया ।

डॉ. अशोक आर्य
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