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गाँव जैसी खुशबू शहर में कहाँ
यह सच है कि अब शहर और गांव के रहन-सहन में अंतर लगभग खत्म होता जा रहा है। गांवों की पहचान में दरवाजे पर गाय, भैंस, बकरी आदि मुख्य होते थे, वहीं पुआल के टाल (पहाड़नुमा), लकड़ी के ढेर, बैलगाड़ी और भी विशेष वस्तुएं जो खेतिहर परिवार की पहचान बनाते हों। वहां भी परिवर्तन हुआ। फिर भी गांव आखिर गांव है। शहरी जीवन की आपाधापी से भाग कर लोग परिवर्तन के लिए गांव भागते हैं। गांव से शहर जाने का आकर्षण तो है ही। समय के मुताबिक मनुष्य को परिवर्तन चाहिए। राजभवन से पूरी तैयारी के साथ सांगे तालुका के आदिवासी गांव वाडेम में जाना आनंद की अनुभूति दे रहा था। बड़ी उत्सुकता थी। गेस्ट हाउस से जंगल की तरफ काली सड़क के दोनों ओर फलदार वृक्षों के घने जंगल थे। नारियल और काजू के वृक्षों की बहुतायत। बहुत दूर-दूर पर एक मकान। बीच-बीच में कुछ मकान वीरान लग रहे थे। उनकी खपड़े (टाइल) वाली छतों पर घास-फूस और छोटे-छोटे वृक्ष उग आए थे। घर-विहीन मकानों का यही हश्र होता है। कहा जाता है- ‘मनुष्य ही लक्ष्मी है।’ आगे बढ़ते हुए दूर-दूर पर कुछ मकान ‘घर’ की श्रेणी में दिखने लगे। लिपे-पुते मकान। ऐसे मनभावन घरों के रूप-रंग निरखते हम आगे बढ़ रहे थे।