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एक अंजान शायर की सर्दी के प्रकोप पर लाजवाब शायरी

ऐसी सर्दी न पड़ी ऐसे न देखे जाड़े
दो बजे दिन को अज़ाँ देते हैं मुर्गे सारे
एक शायर ने कहा चीख़ के साग़र भाई
उम्र में पहले पहल चमचे से चाए खाई

आग छूने से भी हाथों में नमी लगती है
सात कपड़ों में भी कपड़ों की कमी लगती है
वक़्त के पाओं की रफ़्तार थमी लगती है
रास्ते में कोई बारात जमी लगती है
जम गया पुश्त पे घोड़े की बेचारा दूल्हा
खोद के खुरपी से साले ने उतारा दूल्हा

कड़कड़ाते हुए जाड़ों की क़यामत तौबा
आठ दिन कर न सके लोग हज़ामत तौबा
सर्द है इन दिनों बाज़ार-ए-मोहब्बत तौबा
कर के बैठे थे शरीफ़ा से शराफ़त तौबा
वो तो ज़हमत भी क़दमचों की न सर लेते थे
जो भी करना था बिछौने पे ही कर लेते हैं

सर्द गर्मी का भी मज़मून हुआ जाता है
जम के टॉनिक भी तो माज़ून हुआ जाता है
जिस्म लरज़े के सबब नून हुआ जाता है
ख़ासा शायर भी तो मजनून हुआ जाता है
कीकियाते हुए होंटों से ग़ज़ल गाता है
पक्के रागों का वो उस्ताद नज़र आता है

कुलफा खाते हैं कि अमरूद ये एहसास न था
नाक चेहरे पे है मौजूद ये एहसास न था
मुँह पे रूमाल रखे बज़्म से क्या आए हैं
ऐसा लगता है वहाँ नाक कटा आए हैं

सख़्त सर्दी के सबब रंग है महफ़िल का अजीब
एक कम्बल में घुसे बैठे हैं दस बीस ग़रीब
सर्द मौसम ने किया पंडित ओ मुल्ला को क़रीब
कड़कड़ाते हुए जाड़े वो सुख़न की तरकीब
दरमियाँ शायर ओ सामेअ के थमे जाते हैं
इतनी सर्दी है कि अशआर जमे जाते हैं