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बेबी बाबूः जिन्होंने अपना पूरा जीवन ज्योतिष और तंत्र को समर्पित कर दिया

लंबे समय से टलता जा रहा था। साल या डेढ़ साल पहले से। मधुबनी के मंगरौनी जाकर बेबी बाबू से मिलना, उनसे बात करना। जानना और थोड़ा समझना उस ज्ञान के संबंध में जो उन्होंने दशकों की तपस्या से पाई है। अब उनकी उम्र 90 की होने को है। अब भी वे सुबह पांच बजे अपने दरवाजे पर मिलते हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात और ना जाने कहां—कहां से लोग नहीं आते उनके पास। हिन्दू भी और मुसलमान भी। हां मधुबनी वालों का उन पर विश्वास जम नहीं पाया शायद। इस बात का उन्हें दुख भी है। अपने यहां के लोगों को उनकी संचित विद्या का लाभ नहीं मिल सका।
ज्योतिष और तंत्र को लेकर वामपंथी प्रोपगेंडा ने हरसंभव प्रयास करके देश में एक नकारात्मक वातावरण बनाने का प्रयास किया। लेकिन बेबी बाबू जैसे लोग उसके बावजूद ना जाने किस आकर्षण में जमशेदपुर की अपनी जमी—जमाई नौकरी छोड़कर गांव आ गए। एक दिन की वकालत भी की और सब छोड़कर उन्होंने अपना सर्वस्व जीवन ज्योतिष और तंत्र को समर्पित कर दिया। बिना किसी व्यावसायिक विज्ञापन के, कई रविवार उनके घर ऐसा गुजरता है कि दालान में पांव रखने की जगह नहीं मिलती। दो—दो सौ लोग भी एक दिन में आए हैं उनके पास।

यहां खास बात यह है कि बेबी बाबू किसी को अप्वाइंटमेंन्ट नहीं देते। वे फोन इस्तेमाल नहीं करते। फिर भी लोग बिना किसी अप्वाइंटमेन्ट के दूर—दूर से इस यकिन से उनके पास आते हैं कि वे मिलेंगे और उनके दुख का निदान करेंगे। उनके संबंध में जितना जान पाया, उनके परिचितों से, वे किसी को नाहक दिलासा नहीं देते। एक परिवार को बता दिया कि जिसके लिए पूरा परिवार इतनी भाग—दौड़ कर रहा है, उन्हें बचाया ना जा सकेगा। लेकिन ऐसे किसी के कहने पर कहां विश्वास किया जा सकता है? उस परिवार ने बहुत कोशिश की। किसी ने सिंगापुर जाने की सलाह दी। परिवार वहां भी गया। लेकिन अपने प्रियजन को बचा नहीं पाए। ऐसी अनगिनत कहानियां हैं उनकी। वे मीडिया से बातचीत नहीं करते। इतना ही नहीं, वे अपने ज्ञान के बदले किसी प्रकार का धन भी नहीं लेते। वे मानते हैं कि उन्हें अपने गुरू से यह ज्ञान समाज की भलाई के लिए मिला है। यदि इस ज्ञान का लाभ समाज के किसी हिस्से को होता है तो वही इस ज्ञान का पारिश्रमिक है। बेबी बाबू को इस बात का दुख जरूर है कि दरभंगा—मधुबनी के लोगों को इस ज्ञान का लाभ नहीं मिल पाया।

बातचीत के दौरान बेबी बाबू से मैने आग्रह किया कि वे इस ज्ञान को किताब की शक्ल में क्यों संजो देते, इससे उनका ज्ञान संरक्षित होगा। आने वाली पीढ़ियों को भी इसका लाभ मिल सकेगा। इस सवाल पर बेबी बाबू कहते हैं— क्या है जो लिखा नहीं गया? उसे पलटने की और एक बार पढ़ने की फूर्सत किसके पास है? मेरे पास कुछ भी बताने को नया नहीं है। अब गुुरू से जो ज्ञान मिला है, बचे हुए जीवन में उसका अधिक से अधिक लाभ समाज को मिले, इतनी सी इच्छा है।

बेबी बाबू मानते हैं, आज धर्म की जो हानि हम समाज में देख रहे हैं उसके लिए शत—प्रतिशत ब्राम्हण जिम्मेवार हैं। जिनके ऊपर जिम्मेवारी थी धर्म को घर—घर तक पहुंचाने की। वे भूल गए इस बात को। उन्हें जो दक्षिणा भूलनी थी, वह दक्षिणा नहीं भूले। धर्म भूल गए। कर्मकांड बचा लिया।

बेबी बाबू याद दिलाते हैं— आदि शंकराचार्य का कथन — जब धर्म की हानि हो। धर्माचार्य समाज के बीच जाएं, समाज का मार्गदर्शन करें, धर्म क्या है? समाज को बताएं। जबकि यही सारा काम मुसलमान कर रहे हैं। उनके लोग अपनो के बीच घर—घर जाकर बता रहे हैं कि इस्लाम क्या है? उनके लोग अपना मजहब समझ रहे हैं। अपने मजहब पर बात करने में वे समर्थ हैं। लेकिन हिन्दूओं में गीता के चार श्लोक याद हों, ऐसे हिन्दू कितने हैं? धर्म को जानते हों, ऐसे कितने हैं? कर्मकांड घर—घर तक पहुंच गया क्योंकि इसे पंडितों नहीं पहुंचाया। धर्म पहुंचाने की जिम्मेवारी भी इन्हीं ब्राम्हणों पर थी लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। वास्तव में यही ब्राम्हण हिन्दू धर्म के वास्तविक अपराधी हैं।

मुझे बेबी बाबू से मिलने के बाद लगा कि इस विलक्षण व्यक्तित्व से आप सबका परिचय होना चाहिए। इसलिए एक संक्षिप्त मुलाकात में जितना उन्हें समझ पाया, लिख दिया। आज भी वे शनिवार को छोड़कर पूरे सप्ताह सुबह पांच बजे से लेकर नौ बजे तक जनता की सेवा में रहते हैं। गर्मी—सर्दी—बरसात की बिना परवाह किए। इस सेवा के बदले वे कोई सेवा शुल्क नहीं लेते। उनके सुझाव से आने वाले व्यक्ति को लाभ हो, यही उनकी सेवा का शुल्क है।

(आशीष कुमार ‘अंशु’ स्वतंत्र पत्रकार हैं और मुख्य धारा के मीडिया से हटकर खोजपूर्रण खबरें लिखते हैं)