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मप्र में शिक्षा और शिक्षकों का बुरा हाल

मप्र में हजारों सरकारी शिक्षक दक्षता संवर्धन परीक्षा में फेल हो गए तब जबकि उन्हें किताब अपने साथ ले जाकर इस परीक्षा के जबाब लिखने थे।फेल होने वाले प्रदेश की सरकारी माध्यमिक शालाओं यानी मिडिल स्कूलों में पदस्थ है। समझा जा सकता है कि जिस राज्य के मिडिल स्कूल के शिक्षक किताब में से देखकर भी परीक्षा पास नही कर सकते है उस राज्य में बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता किस दर्जे की होगी।मप्र की सरकार ने यह दक्षता परीक्षा उन शिक्षकों के लिये आयोजित की थी जिनके स्कूलों से निकलकर बच्चे नजदीकी हाईस्कूलों में दाखिल हुए थे और इस साल उन स्कूलों का हाईस्कूल रिजल्ट 30 फीसदी से कम रहा था।

अफसरों ने माना था कि हाईस्कूलों का रिजल्ट इसलिये बिगड़ा है क्योंकि मिडिल स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नही दिया गया है यहां पदस्थ सरकारी शिक्षक अध्यापन में दक्ष नही है।इस परीक्षा को आयोजित करते समय प्रदेश की शिक्षा आयुक्त ने दावा किया था कि जो शिक्षक पर में फेल होंगे उनके विरुद्ध अनिवार्य सेवा निवृत्त की करवाई की जाएगी।बाद में सरकार ने इस महीने अक्टूबर में फिर से अलग अलग तारीखों में परीक्षाओं का आयोजन किया उसमें भी जून की तरह बड़ी संख्या में सरकारी शिक्षक फेल हो गए।अब सरकार क्या अनुशासनात्मक करवाई करेगी यह देखना होगा।लेकिन सवाल प्रदेश की समग्र नीति पर भी उठ रहे है।शिक्षकों के अपने तर्क है उनका कहना है कि जब 2009 के शिक्षा गारंटी कानून में किसी भी बच्चे को फेल नही करने के प्रावधान है तब वह कैसे बच्चों को अगली कक्षा में जाने से रोक सकते है?2009 के आरटीई कानून में मिडिल तक शालेय बच्चों को ग्रेडिंग करने का प्रावधान था इसके पीछे मूल वजह मासूम बच्चों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्धा से दूर रखकर उनका स्वाभाविक विकास करना था।

आरटीई के तहत गांव के हर बच्चे का शाला में प्रवेश कराया जाना अनिवार्य है इसके लिये हर गांव का विलेज एजुकेशन रजिस्टर तैयार किया जाता है जिसमें 06 से 14 साल तक के प्रत्येक बच्चे का रिकार्ड रखा जाना है।मप्र में अब हर बच्चे की समग्र आईडी जारी की गई है जिसे समग्र ऑनलाइन पोर्टल पर देखा जा सकता है।0 से 6 साल के सभी बच्चों का रिकॉर्ड गांव कस्बे की आंगनबाड़ी में रखा जाता है जैसे ही बच्चे की आयु 6 वर्ष होती है उसकी सूचना संबंधित शाला के वीइआर यानी विलेज एजुकेशन रजीस्टर में दर्ज हो जाती है।संख्यात्मक पंजीयन के लिये यह सिस्टम भले ही कारगर लगता हो लेकिन बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता के लिहाज से यह बेहद ही खराब साबित हुआ है क्योंकि सरकारी शिक्षक के हाथ पूरी तरह से बंधे हुए है उसकी पहली प्राथमिकता अपनी शाला क्षेत्र के सभी बच्चों को शाला में पंजीकृत करना है ऐसा न करने पर उसके विरुद्ध अफसरों की करवाई का भय है।दूसरा हर बच्चे को अगली शाला में प्रोन्नत करना ही था इसलिए आज मप्र के लाखों बच्चें मिडिल पास करने के बाद भी अक्षर ज्ञान और गणित की प्राथमिकी तक से वाकिफ नही है।कमजोर बच्चों के लिये ग्रीष्मावकाश में अलग से विशेष कक्षाओं के प्रावधान भी है।लेकिन व्यवहार में ग्रामीण शालेय शिक्षा आज बुरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है।मंत्रालय में बैठे अफसर पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन में आदर्श लगने वाले नित नए प्रयोग सिस्टम के साथ करते रहते है।

नवाचार के नाम पर पिछले 25 सालों में बुनियादी शिक्षा के ढांचे को पूरी तरह से प्रयोगशाला की तरह लिया गया।सबसे ज्यादा नुकसान तो मध्यान्ह भोजन और इसमें छिपी लूट के सुगठित रैकेट ने पहुचाया है।कभी शाला विकास समितियों,पालक शिक्षक संघ,फिर जनभागीदारी समिति जैसे प्रयोग कर इन समितियों के माध्यम से स्कूलों में स्थानीय राजनीति का प्रवेश कराया गया क्योंकि सरकारी धन इन्ही के माध्यम से खर्च किया जा रहा है।पहले स्कुलों में सिर्फ पढ़ने पढ़ाने का काम होता था आज स्कुलों में भोजन निर्माण,गणवेश वितरण,स्थानीय विकास के लिये मारामारी होती है।दूसरी तरफ 85 फीसदी गांवों में शिक्षक निवास नही करते है वे पास के कस्बे या शहर में रहते है।जाहिर है स्कूलों में शिक्षक भी समय पर नही आते है।सरकार के लगभग सभी सर्वे शिक्षकों के माध्यम से ही होते है एक गांव में अगर दो मतदान केंद्र है तो दो शिक्षक तो बीएलओ की ड्यूटी में ही हमेशा व्यस्त रहते है।मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने शिक्षाकर्मी ,गुरुजी,की भर्ती स्थानीय निकायों से इसलिये कराई थी ताकि शिक्षकों को गांव के बाहर या शहर से न आना पड़े।लेकिन इस अच्छी सोच को शिक्षकों ने भी तिरोहित कर दिया आज हकीकत यही है कि गांवों में मजबूरी में ही कोई शिक्षक निवास करता है।

स्कूलों में आज भी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है 80 फीसदी स्कूलों में बिजली कनेक्शन नही है।शिक्षा के अधिकार कानून से नए स्कूल तो हर जगह खोल दिये गए लेकिन उनमें न शिक्षक है न कोई अन्य सुविधाएं।शालेय शिक्षा में लगातार बढ़ता बजट असल मे उच्च अफसरशाही और नेताओं के लिये दुधारू साबित हो रहा है।इसलिये नित नए प्रयोग हो रहे है जिनकी आड़ में अरबों रुपये अब तक खर्च हो चुके है।मसलन 1999 में मप्र में हेड स्टार्ट नाम की योजना शुरू हुई जिसमें गांव गांव कम्प्यूटर रखवा दिए गए जबकि न इन स्कूलों में बिजली थी न इन्हें चलाने वाले ऑपरेटर।कभी शाला पुस्तकालय,कभी स्मार्ट क्लास,कभी आर ओ वाटर,कभी व्यावसायिक निपुणता, कभी कौशल विकास,कभी अंग्रेजी कौशल ,कभी फिट इंडिया जैसे नित प्रयोग असल मे अफसरों के लिये कुबेर के खजाना साबित हो रहे है।क्योंकि सब खरीदारी केंद्रीयकृत ही होती है और शिक्षको पर थोप दी जाती है।

अक्षर ज्ञान तक से दूर लाखों बच्चों की यह संख्या और किताब से नकल तक न उतार पाने वाले शिक्षकों के युग्म से कैसा भविष्य गढा जा रहा है?यह आसानी से समझा जा सकता है।

डॉ अजय खेमरिया
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