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गोधरा के बलिदानी पुरुषोत्तमदास मगनलाल शाह

देश में गुजरात का नगर गोधरा उस समय चर्चा मे आया जब वहां पर जा रही एक गाड़ी को जिस में श्रीराम मंदिर में जा रहे कार सेवकों को आग लगा कर जीवित ही जला दिया गया आग लगा दी गई,जिस गाड़ी में श्रीराम मंदिर के लिए जा रहे कार सेवकों को आग लगा कर जीवित ही जला दिया गया| यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी| यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी इस प्रकार की घटनाएँ गोधारा में लगभग एक शताब्दी पूर्व से होती चली आ रहीं थीं|आ रहीं थीं वास्तव में गोधरा एक ऐसा नगर है जहाँ सौ वर्ष पूर्व भी हिन्दुओं की आबादी दो तिहाई से भी अधिक थी किन्तु मुसलमानों के मुकाबले इअत्नी अधिक संख्या होते हुए भी वहांका हिन्दू मुसलमानों से सदा ही मार खाता रहा इसका कारण यह था कि मुसलमान चाहे दो भागों में बनते हुए थे जो सुन्नी और शिया हो, वह आपस में लड़ते झ्हगादते रहते थे जबकि हिन्दू एक समुदाय मात्र होते हुए भी शान्ति प्रिय होने के कारण सदा इन मुसलमानों से मार ही खाते रहते थे अपमानित ही होते रहते थे और इन की बहु बेटियों की इज्जत लुटती ही रहती थी

जब मुसलमानों ने हिन्दुओं को दुर्बल मान लिया तो उनके लिये भी निश्चित हो गया कि जब भी अवसर मिले हिन्दुओं को नीचा दिखाया जावे और स्वयं को ऊपर सिद्ध किया जावे| वह जानते थे कि हिन्दू शान्ति प्रिय हैं और अपनी इस आदत के कारण पशु पक्षियों पर भी अत्याचार नहीं करते और यदि कोई व्यक्ति इन पशु पक्षियों आदि जीवों को परेशान करता है तो इन्हें कष्ट होता है, इस कारण वहां के मुसलमानों ने हिन्दुओं को तंग करने का इसे एक साधन मान लिया| मुसलमान हिन्दू मुहल्लों में घुस जाते और गुलेल से पक्षियों को निशाना बनाते रहते ताकि हिन्दू लोग भड़क कर उन से झगड़ा करें किन्तु हिन्दू लोगों ने इन से भयभीत होते हुए कभी इन्हें इस प्रकार पक्षियों पर किये जा रहे अत्याचारों से रोका नहीं|

जब मुसलमानों ने देखा कि हिन्दू तो इतना कायर हो रहा है कि वह पक्षियों को मारते हैं और वह भी हिन्दुओं के मोहल्ले में जाकर तो भी हिन्दू बोलता नहीं तो हिन्दुओं को परेशान करने का उनका साहस बढ़ गया| अब इनका एक झुण्ड रात्री के समय हिन्दुओं के मोहल्ले में निकल कर यह गाने लगता कि
हम हिन्दुओं को मुसलमान बनायेंगे
और हिन्दुस्तान को बीबी बनायेंगे
इस प्रकार के शब्द सुनकर भी वहां का हिन्दू कुछ न बोलता और चुपचाप आँखें बंद कर अपनी चारपाई पर लेटा रहता, जैसे वह सोया हुआ हो|

जब बहुमत में होते हुए भी हिन्दुओं ने कभी कोई विरोध नहीं किया तो मुसलमानों का उत्साह और उनका अभिमान आसमान पर चढ़ गया| यहाँ मुसलामनों के दोनों समुदाय समय समय पर आपस में लडते हुए टूटे हुए दिखाई देते थे किन्तु जब भी कभी उनका सामना हिन्दुओं से होता तो यह दोनों गुट एक साथ ही हुआ करते थे अर्थात् हिन्दुओं के लिए दोनों ही दुश्मन थे| इस प्रकार समय समय पर मुसलामानों के अत्याचार बहुमत के हिन्दुओं पर लगातार बढ़ते ही चले गए| अब वह खुले आम हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करने लगे, उनकी मां बहिनों का अपमान करने लगे| इस प्रकार इनकी रक्षा का प्रश्न अत्यंत जटिल हो गया| इन कारणों से हिन्दू युवकों में एक नई चेतना आई जब कि बड़ी आयु के हिन्दू भी इन घटनाओं से अत्यधिक चिंतित थे| अब हिन्दुओं में प्रतिकार की भावना बलवती होती जा रही थी, इस भावना को ठोस भूमि देने के लिए हिन्दुओं की एक सभा बुलाई गई| नित्यप्रति कायरों की भाँति मरने के स्थान पर इनका प्रतिकार करने के लिए एक संगठन की आवश्यकता अनुभव की गई और तत्काल इस संगठन का गठन कर वहां के पढ़े लिखे श्री पुरुषोत्तमदास मगनभाई शाह को इस संगठन का सर्व सम्मति से नेता अर्थात् प्रधान चुन लिया गया|

पुरुषोत्तमदास मगनभाई शाह नगर के एक सुप्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उस समय गोधरा त्तालुका लोकल बोर्ड के भी प्रधान थे| आप अत्यधिक वीर और साहसी होने के साथ ही साथ अत्यधिक स्वाभिमानी भी थे| मुसलमानों के कारण हिन्दुओं पर हो रहे निरंतर अत्याचारों से आप सदा ही दु:खी रहे थे| प्रधान तो आप इस सभा में ही बने थे किन्तु इससे पहले भी आप जाति रक्षा के लिए जब भी कभी कोई अवसर आता था तो आप बिना किसी की प्रेरणा के स्वयं ही सब से आगे की पंक्ति में आकर खड़े हो जाते थे|

वर्ष १९२७ का चल रहा था| इस अवसर पर शिवाजी महाराज की जयन्ती पर पूर्व वर्षों की भाँति हिन्दू लोग अवश्य ही ही शोभायात्रा निकालेंगे, यह सोचकर मुसलमानों ने उनके विरोध की तैयारी पहले से ही आरम्भ कर दी थी| वह हिन्दुओं की शोभायात्रा पर हमला कर के दंगा खडा कर हिंसा फैलाते हुए हिन्दुओं के घरों और दुकानों में लूटपाट करना चाहते थे| मुसलमानों ने यह सब करने के लिए पूरी तैयारी कर रखी थी किन्तु अकस्मात् हिन्दुओं ने इस समारोह के लिए एक नई योजना बना ली थी| इस बार उन्होंने शोभा यात्रा नहीं निकाली और इस शोभा यात्रा के स्थान पर शिवाजी जयंती का कार्यक्रम एक सभा के रूप में संपन्न किया| इससे मुसलमान लोग अत्यधिक निराश हुए और उनकी सब बनाई गई योजनायें धरी की धरी ही रह गईं|

इस प्रकार ९ सितम्बर १९२७ का शिवाजी ज्यन्ती का कार्यक्रम बड़े शान्ति पूर्ण ढंग से संपन्न हो गया| इस कार्यक्रम की सम्पन्नता से मुसलमान लोग अत्यधिक निराशा अनुभव करने लगे थे और इस कारण ही वह नए अवसर की खोज करने लगे| इसके लिए उन्होंने यह अफवाह फैला दी कि हिन्दुओं ने ९ सितम्बर को शोभा यात्रा नहीं निकाली थी, अब यह शोभायात्रा का कार्यक्रम १२ सितम्बर को किया जावेगा| इस अवासर पर वह ढोला नगाड़े बजाते हुए मस्जिद के आगे से निकलेंगे| हिन्दुओं की तो कोई शोभायात्रा निकालने की योजना थी ही नहीं किन्तु मुसलमानों ने नगर में एक जुलुस निकालकर नगर में भय का वातावरण पैदा कर दिया| इस जुलुस में मुसलमानों ने अनेक प्रकार के शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए हन्दू विरोधी नारेबाजी भी की| इस जुलूस के मध्य ही एक प्रतिष्ठित हिन्दू को पकड़ कर न केवल उसे अपमानित ही किया अपितु बुरी तरह से मारपीट भी की गई| यह केवल एक घटना नहीं थी| इस प्रकार की घटनाएँ गोधरा में प्राय: होती ही रहती थीं|

इस घटना क्रम को देखते हुए हिन्दू संगठन के प्रधान के नाते पुरुषोत्तम शाह जी ने २० सितम्बर १९२७ को मुंबई के राज्यपाल को तार भेज कर सूचित किया कि गोधरा में हिन्दुओं की जान सुरक्षित नहीं है| यहाँ के सुन्नी मुसलमान और उनमें भी घांची मुसलमान हिन्दुओं को हानि पहुंचाते ही रहते हैं| यहाँ पुलिस की व्यवस्था संतोषजनक न होने से भी यह सब संभव हो जाता है| अत: इस सब की वयवस्था की जावे| इस आशय से ही उन्होंने २४ सितम्बर १९२७ को जिला मजिस्ट्रेट को मिलने के लिए एक शिष्टमंडल को साथ लिया और उनके कार्यालय में पहुँच गए| उनके सामने भी मुसलमानों की अनिष्टकारी गतिविधियों की जानकारी देते हुए कुछ करने की मांग की| यहाँ से कोरा आश्वासन मिलने के अतिरिक्त कोई कार्यवाही नहीं की गई| इस के बाद इस संगठन ने वहां पर हड़ताल करने का निर्णय लिया|

गोधरा नगर के मध्य में एक सरोवर पड़ता है| इसके जल का प्रयोग दोनों समुदाय किया करते थे किन्तु दोनों समुदाय तो पहले से ही आपस में इर्ष्या रखते थे| इस कारण मुसलमान समुदाय के लोग यहाँ आने वाली माताओं- बहिनों से छेड़छाड़ करते रहते थे, जिस से लड़ाई झगड़े की संभावना बनी ही रहती थी| इस झगड़े को बढ़ने से बचाने के लिए प्रशासन ने इस सरीवर के तट को दो भागों में बाँट दिया| एक भाग मुसलमानों के लिए सुरक्षित कर दिया गया और दूसरा भाग हिन्दुओं को दे दिया गया| इस प्रकार का बंटवारा हो जाने के पश्चातˎ इनका झगड़ा समाप्त हो जाना चाहिए था किन्तु तो भी मुसलमान कोई न कोई बहाना बना कर झगड़ा खडा कर ही देते थे| अब मुसलमानों ने सब प्रकार की शालीनता को लांघते हुए सरोवर के केवल अपने भाग पर ही नहीं अपितु हिन्दुओं वाले भाग पर भी अर्थात् पूरे के पूरे सरोवर पर ही अपना कब्जा जमा लिया| इस पर शासन की और से एक अधिकारी को वहां नियुक्त करने की हिन्दुओं ने मांग की और अपने गठित किये गए संगठन के सदस्यों को भी देखभाल के लिए यहाँ तैनात कर दिया|

इस प्रकार अत्यधिक प्रयास करते हुए श्री पुरुषोत्तमदास शाह जी हिन्दुओं की सुरक्षा की व्यवस्था कर रहे थे| इस व्यवस्था के कारण जहाँ हिन्दुओं में उनके प्रति नित्य सम्मान बढ़ रहा था, वहां उनका नाम मुसलामानों की आँखों का शहतीर बन गया| वह उन्हें समाप्त करने के उपाय खोजने लगे| इस प्रकार किसी प्रकार इस संस्था की स्थापना का एक वर्ष पूर्ण हुआ और अब १९२८ में नया वर्ष आरम्भ हो चुका था| इस वर्ष सितम्बर मास फिर निकट आ चुका था| सितम्बर १९२८ के तृतीय सप्ताह में जैन समुदाय का एक त्यौहार आता था| जैनियों का यह त्यौहार बड़ी शान्ति के साथ सम्पन्नता की और जा रहा था कि अकस्मातˎ मुसलामानों ने उत्पात मचा दिया| मुसलमानों के इस उत्पात के परिणाम स्वरूप बीस से अधिक हिन्दू लोग घायल हो गए| इन घायल लोगों में हमारे कथानायक पुरुषोत्तम दास मगनभाई शाह भी एक थे| आप पर बड़ी बुरी तरह से मुसलामानों ने आक्रमण कर बहुत बुरी तरह से घायल कर दिया था| घाव इतने भयंकर थे कि इस झगड़े के अगले दिन ही आपका बलिदान हो गया|

इतनी भयंकर घटना घटी किन्तु जो कांग्रेस आज गोधरा कांड का नाम लेकर मुसलामानों से अत्याचार के नाम पर इतना बवाल मचा रही है, उस कांग्रेस के किसी नेता तो क्या महात्मा गांधी जी ने भी एक शब्द तक नहीं बोला| बोलते भी कैसे? वह तो कहा करते थे कि यह तो मुसलमानों का अधिकार है क्योंकि उनका धर्म ग्रन्थ इस प्रकार के कार्य करने का आदेश देता है| इस घटना की जाँच के लिए एक न्यायाधीश अवश्य नियुक्त कर दिया गया| किन्तु इस जांच का भी कुछ भी परिणाम सामने नहीं आया क्योंकि न तो किसी अपराधी को पकड़ा गया और न ही किसी अपराधी को कोई दण्ड ही मिला| पुरुषोत्तम जी अपने माता पिता की एक मात्र संतान होने के साथ ही साथ चढ़ती जवानी में थे| इस समय उनकी आयु मात्र चालीस वर्ष की ही थी| जब उनका बलिदान हुआ, उस समय वह अपने बूढे माता पिता और पत्नी के अतिरिक्त अपने चार पुत्रों का पालन भी कर रहे थे| इनके बलिदान के बाद इन सब की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा|

बलिदानी कभी परिणाम को नहीं देखा करते| वह अपने जीवन की भी चिन्ता नहीं किया करते| उनके हाथों जन कल्याण हो सके, मात्र यह ही उनके जीवन का उद्देश्य होता है, जिसे वह जन्म से मृत्यु तक पूरा करने का प्रयास नित्य करते ही रहते हैं| कुछ इस प्रकार का प्रयास ही हमारे कथानायक ने किया और जनसेवा करते हुए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी| जब तक इतिहास के पन्ने सुरक्षित रहेंगे तब तक भाई पुरुषोत्तमदास मगनभाई शाह का नाम भी स्वर्णाक्षरों में सुरक्षित रहेगा| हम उनकी याद में मेले लगाकर जन जन में उत्साह पैदा करते ही रहेंगे|

डॉ. अशोक आर्य
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