Saturday, April 20, 2024
spot_img
Homeभारत गौरवबलिदानी वीर कुंवर सिंह

बलिदानी वीर कुंवर सिंह

भारत को स्वाधीन कराने के लिए हमाँरे देश के वीर बांकुरे जवानों ने अपने जीवनों की आहुतियों की एक अविरल धरा बहा दी| सनˎ १८५७ में स्वाधीनता का प्रथम शंखनाद हुआ| देश का बड़ा भाग स्वाधीन भी करवा लिया गया किन्तु देश के ही एक अन्य भाग के जवानों ने स्वाधीनता के मूल्य को नहीं पहचाना और उन्होंने अंग्रेज का साथ दिया, इस कारण जो कुछ देश के वीरों ने अपने बलिदान की चिंता न करते हुए जीता था, वह सब कुछ अंग्रेज सरकार ने इन देश के दुश्मनों का साथ लेकर शीघ्र ही वापिस ले लिए और जिन दीवानों ने इस युद्ध में स्वाधीनता के लिए भाग लिया था, उन्हें पकड़ पकड़ कर खुले रूप मे फांसी दी गई| फांसी के इस क्रम में आम जनता को भी नहीं छोड़ा गया| उन्हें भी स्थान स्थान पर पेड़ों से लटका कर या तोप से उड़ा कर इस दुनिया से दूर किया गया| इस अवस्था में देश की स्वाधीनता की अलख जगाने वाले बिहारी बाबू, बाबू कुंवर सिंह ने भी अपने शौर्य से अंग्रेज सरकार को खूब आतंकित किया| आओ आज हम इस वीर के संबंध मे संक्षिप्त सी जानकारी पाने का प्रयास करें:-

अंग्रेज काल के बिहार में एक जिला होता था शाहाबाद| इस जिले के अनतर्गत पड़ने वाले गाँव जगदीशपुर के एक क्षत्रीय परिवार में १७६२ ईस्वी में एक बालक का जन्म हुआ| यह बालक वीरवर बाबू साहबजादा सिंह के यहाँ जन्मा था और इस बालक का नाम ही कुंवरसिंह था| कुंवरसिंह के तीन बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमश: बाबू दयालसिंह, राजपति सिंह और अमर सिंह थे| इन तीन बड़े भाइयो के अतिरिक्त तीन छोटे भाई भी थे| बालक आरम्भ से ही होनहार था किन्तु पढ़ाई की और इस बालक को बहुत न्यून रूचि थी| तो भी यह बालक हिंदी और उर्दू को पढ़ और लिख सकने में सक्षम था| अपने बाल्य काल से ही इस बालक को शिकार खेलने में अत्यधिक रुचि थी| घुड़सवारी में इतने प्रवीण थे कि जिस घोड़े को कोई अन्य व्यक्ति छू पाने का साहस तक भी नहीं करता था, कुंवर सिंह जी एक छलांग में ही उस पर सवार हो कर उसे काबू कर लेते थे| शस्त्रों से खेलने में इस बालक को अत्यधिक आनंद का अनुभव होता था| इस कारण बन्दूक चलाने के अतिरिक्त तलवार, भाला और तीर अन्दाजी मे भी यह बालक अत्यधिक प्रवीण हो गया था| जन्म के आरम्भ से ही इस बालक की रूचि स्वाधीन रहने की होने के कारण स्वाधीनता और स्वाभिमानी जीवन जीने में ही इन्हें आनंद आता था|

बिहार में ही गया जी नामक नगर के पास एकस्थान देवमुन्गा के नाम से है| इस देवमुन्गा के राजा फतह नारायन सिद्दकी की कन्या से सन १८०० में आपका विवाह हो गया| इस दम्पत्ति के विवाह के लगभग पांच वर्ष बीतने पर एक बालक ने इनके यहाँ जन्म लिया| इस बालक का नाम दलभंजन सिंह रखा गया| देश अब तक विदेशी लोगों के पंजे में था और अंग्रेज लोग यहाँ के शासक होते हुए यहाँ की जनता पर अत्यधिक अत्याचार कर रहे थे तथा देशी राजाओं को अकारण ही अपने आधीन करते जा रहे थे| इस सबसे कुपित होकर तथा सेना में भी देश की स्वाधीनता के लिए चिंगारी फूट जाने के कारण १८५७ ईस्वी के जून महीने में उत्तर भारत के लघभग सब स्थानों पर देश की स्वाधीनता के लिए चिंगारी भड़क उठी तथा इस चिंगारी ने एक भयंकर स्वाधीनता संग्राम का रूप ले लिया, जिसे अंग्रेज ने सैनिक विद्रोह अथवा विप्लव का नाम दिया|

जब देश में स्वाधीनता के लिए भावनात्मक ही सशस्त्र रुप मे भी स्वाधीनता कि अग्नि की ऊंची ऊँची लपटें उठ रहीं थीं तो बिहार भी इस सब से किस प्रकार से अछूता रह पाता| इस मध्य में ही वहां के कमिश्नर मिस्टर टेलर की क्रूरता भी सामने आई| यह उसकी अदूरदर्शिता का एक नमूना था| उसके इस दुर्व्यवहार से उस क्षेत्र में भी विद्रोह की अग्नि फूट उठी| यह साधारण सी विद्रोह की चिंगारी शीघ्र ही भयानक अग्नि के रूपों में प्रकट होकर प्रलयंकारी दृश्य दिखाने लगी|

मिस्टर टेलर बाबू कुंवर सिंह के सम्बन्ध में पहले से ही परिचित था| वह जानता था कि इस सब विद्रोह का केंद्र बिंदु बाबू कुंवर सिंह जी ही हैं| इसलिए वह उन्हें न केवल गिरफ्तार ही करना चाहता था अपितु उसकी यह भी इच्छा थी कि वह उन्हें हिरासत में लेकर तत्काल उन्हें फांसी पर लटका देवे| वीर कुंवरसिंह इस युद्ध में कूदने से पूर्व अपनी स्थिति मजबूत करना चाहते थे, वह चाहते थे कि पूरी तैयारी से इस प्रकार का आक्रमण किया जावे कि अंग्रेज को अत्यधिक हानि हो और देवश में हमारी अपनी सरकार बंजावे किन्तु इस के उल्ट इधर विद्रोहियों ने, जो इस समय स्वाधीनता सेनानी के रूप में थे, तत्काल युद्ध के पक्ष में थे और उन्होंने कुंवर जी की दूरदर्शिता को न समझते हुए कुंवरसिंह जी को चेतावनी दे दी कि यदि वह तत्काल उनका साथ नहीं देगा तो परिवार सहित उन्हें यमलोक पहुंचा दिया जावेगे| कुंवरसिंह जानते थे कि अंग्रेजों से लड़ने का यह सही समय नहीं है किन्तु उनकी इस चेतावनी के परिणाम स्वरूप बाध्य हो कर उन्हें भी विद्रोहियों का साथ देना ही पडा और उस क्षेत्र में देश के इस स्वाधीनता संग्राम के लिए लडे जा रहे इस युद्द का उन्हें नेता बना दिया गया|

बाबू कुंवरसिंह एक वीर योद्धा थे| वह सब प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग करना जानते थे| वह अवसर को भी खूब भाँप लेते थे और यह भी जानते थे कि कहाँ किस समय और किस प्रकार से आक्रमण किया जावे कि उसका अत्यदिक लाभ हो| इस कारण वीर बाबू कुंवर सिंह की सेनायें अंग्रेज से जा भिड़ीं और एक बार नहीं अनेक बार उसकी वीर सेना ने अंग्रेज को पराजय का मुंह दिखाया| इतना होते हुए भी वीर बहादुर अपने उददेशय में सफल नहीं हो पा रहे थे| अंग्रेज एक बहुत बड़ी सरकार से सम्बंधित सेना थी और यह एक छोटे से क्षेत्र से एक छोटी सी सेना के साथ थे, कहाँ तक लड़ते और शीघ्र ही अंग्रेज की जब विशाल सेना आई तो उस सेना के साथ वीरता पूर्वक युद्ध करने के पश्चातˎ भी वीर बाबू कुंवर सिंह की पराजय हुई| बाबू जी जानते थे कि देश को स्वाधीनता के लिए जीवित रह कर फिर से तैयारी करना आवश्यक होता है| इसलिए इस पराजय के पश्चातˎ वह युद्ध क्षेत्र से भाग निकले | वह भागते हुए अनेक स्थानों पर गए, अंग्रेज सेना उन्हें खोजते हुए लगातार उनका पीछा कर रही थी|इस प्रकार भागते हुए स्वाधीनता की अलख जगाने वाले वीर बहादुर बाबू कुंवर सिंह जी नेपाल जा पहुंचे| उन्होंने वहां के उस समय के राजा जंगबहादुर जी से शरण मांगी किन्तु नेपाल के इस राजा ने उन्हें शरण देने से मना कर दिया|

नेपाल के राजा के इन्कार करने पर वह कुछ समय के लिए निराश हो गए किन्तु शीघ्र ही अपने आप को संभालकर कुंवर सिंह जी पुन: अपने जन्मस्थान जगदीशपुर लौट आये| जगदीशपुर लौटने पर उनके बड़े भाई अमरसिंह जी ने अपने छोटे भाई का खूब स्वागत किया| इस गाँव में जब कुंवरसिंह जी लौटे तो उनकी आयु लगभग सत्तर वर्ष की हो चुकी थी| इस समय उनका स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं दे रहा था| अत: इस सब अवस्था में अकस्मात् एक दिन बाबू कुंवर सिंह जी का देहांत हो गया| उनके देहांत के पश्चातˎ भी उनके बड़े भाई बाबू अमर सिंह जी ने अपने छोटे भाई के कार्य को अधूरा नहीं रहने दिया और वह भी कुछ समय तक अंग्रेज सरकार से लड़ते रहे| इस लडाई में उन्होंने अंग्रेज को खूब हानि पहुंचाई परन्तु एक अकेला इतनी विशाल अंग्रेज सरकार से कब तक लड़ सकता था| परिणाम स्वरूप वही हुआ जो होना निश्चित था| एक दिन एसा आया जब वह अंग्रेज सेना के हाथ लग गए और गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए| अब जेल ही अमरसिंह जी का निवास बन गया था| अपने इस जेल काल में भी वह स्वाधीनता के सपने संजोते रहे और इस प्रकार के स्वप्न लेते हुए एक दिन उनका भी जेल में ही देहांत हो गया|

डॉ. अशोक आर्य
पॉकेट १/ ६१ रामप्रस्थ ग्रीन से, ७ वैशाली
२०१०१२ गाजियाबाद उ. प्र. भारत
चलभाष ९३५४८४५४२६ e mail
[email protected]

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार