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विक्रम संवत् का आरंभ

काल गणना का आरंभ सृष्टि की रचना के साथ ही शुरू हो जाता है, जो लगभग 1 अरब 97 करोड़, 29 लाख, 49 हजार 113 वर्ष पुराना है। भारत में प्राचीन समय से ही पंचांग प्रचलन में थे। ये सभी पंचांग खगोलीय वैदिक पद्धति से काल गणना का निर्धारण करते हंै। काल और इतिहास एक दूसरे के पर्याय हैं। भारतीय इतिहास कई महत्वपूर्ण घटनाओं और काल पुरुषों से भरा हुआ है। अर्थात् काल विशेष में किसी इतिहास पुरुष का अवतरण होता है। ऐसे ही महापुरुष महाराजा विक्रमादित्य की शकों पर विजय के उपलक्ष्य में नवसंवत् ‘विक्रम संवत्’ का आरंभ प्रथम सदी ईसा पूर्व में भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में यह हर वर्ष चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में इसी दिन भारतीय नववर्ष का प्रारंभ होता है। महान सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रवर्तित संवत् का पहला दिन और संवत् दोनों ही उनके नाम पर आंरभ होते हैं जो हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।

विक्रम संवत को लेकर विभिन्न मत

विक्रम संवत् एवं उसके प्रवर्तक महाराजा विक्रमादित्य के विषय में यूरोपीय तथा भारतीय विद्वानों में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं। यद्यपि संवत् प्रवर्तन एक ऐसी घटना है, जिससे कोई भी इतिहासज्ञ इंकार नहीं कर सकता क्योंकि, लगभग दो सहस्त्राब्दी बीत जाने के बाद भी विक्रम संवत प्रचलन में है। विक्रम संवत ने अपने स्थापनाकाल के 2070 वर्ष पश्चात् भी जीवित रहकर संवत् परम्परा में सर्वाधिक जीवन शक्ति प्रदर्शित की है, जो किसी अन्य संवत् ने नहीं प्रदर्शित की। भारत वर्ष में हिमालय से लेकर दक्षिण तक तथा पूर्व से लेकर पश्चिम के विभिन्न भू-भागों में अपनी उपस्थित दर्ज की है। परन्तु फिर भी विक्रमादित्य और विक्रम संवत् को लेकर एवं उनकी ऐतिहासिकता तथा प्रामाणिकता पर कई प्राच्य विद्याविशारदों ने संदेह व्यक्त किया है। सर्वप्रथम हम विभिन्न सिद्धांतों व मतों का नीचे वर्णन करेंगे जो विक्रमादित्य और नवसंवत् पर आधारित हैं।

फर्गुसन का मत
सर्वप्रथम यूरोप के लेखक फरगुसन ने विक्रम संवत् के प्रारंभ की तिथि को लेकर अपना मत प्रकट किया। उनके अनुसार इस संवत् का प्रवर्तन 57 ईसा पूर्व में न होकर 544 ई. सन् में हुआ था।
उनका मत था, कि ईसवीं सन् 545 में उज्जयिनी के विक्रमादित्य नामक व्यक्ति या उपाधिधारी ने हूगों को कोरूर के युद्ध में पराजित किया और एक नये संवत्सर की स्थापना की। उन्होंने संवत् को 57 ईसा पूर्व से समायोजित करने के लिए इसकी स्थापना की तिथि 6 ङ्ग 100 = 600 वर्ष पीछे धकेल दी।
मैक्समूलर ने भी इस विचित्र मत का समर्थन किया। परन्तु फर्गुसन का यह मत धराशायी हो गया, क्योंकि सन् 544 के पूर्व के भी विक्रम संवत् उल्लेखित अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जो कृत तथा मालव संवत् लिखे हुए मिलते हैं। यह दोनों संवत् अभिन्न हैं।

अल्तेकर का मत
अल्तेकर के अनुसार यदि यह संवत् विक्रमादित्य द्वारा प्रारंभ किया गया होता तो, शुरू से ही उनके नाम पर होता। वास्तव में यह कृत द्वारा आंरभ किया गया जो मालव गण का अधिपति था। मालव एक जाति थी, जो सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब में निवास करती थी। मालव शुद्रक गण संघ ने उसका प्रबल विरोध किया, परन्तु असफल रहे। पारस्परिक फूट के कारण मालव गण अकेला ही यूनानियों से लड़ा और हार गया। मौर्यकाल के उत्तरार्द्ध में शकों के आक्रमण प्रारंभ हुए और मालवादि जातियाँ राजपूताने होती हुईं मध्य भारत पहुँची और नयी बस्ती स्थापित की।

इस बात की पुष्टि की प्रथम शताब्दी ई.पू. मालव जाति आकर अवन्ति-आकर (मालव प्रान्त) में स्थापित हो गई थी, इन क्षेत्रों से प्राप्त मुद्राओं से प्रमाणित है। सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में ‘मालवानां जय’ लिखा हुआ है। यद्यपि डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर कालकाचार्य कथानक के विक्रमादित्य संबंधी श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है और जैन परम्परा को अविश्वसनीय, फिर भी वे लिखते हंै- अब यह भी माना जा सकता है कि जिस कृत नामक प्रजाध्यक्ष ने इस संवत् की स्थापना की उसका उपनाम ‘विक्रमादित्य’ था। जब यहाँ तक अनुमान लगाया तो यह विश्वास किया जा सकता है कि 57 ईसा पूर्व विक्रमादित्य नामक व्यक्ति ही मालवगण का राजा या अधिपति था।

फ्लीट और कनिंघम का मत
कनिंघम ने सर्वप्रथम इस मत का प्रतिपादन किया कि विक्रम संवत् का प्रवर्तक ‘कनिष्क’ था। बाद में फ्लीट ने इसी पुष्टि भी की। उनका मत था कि 57 ईसवी पूर्व में प्रारंभ होने वाले विक्रम संवत् का प्रवर्तन कुषाण शासक कनिष्क के राज्यारोहण काल से प्रारंभ हुआ। परन्तु यह मत अन्य विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है, क्योंकि पुरातात्विक साक्ष्य जो कि पंजाब तथा पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत से प्राप्त हुए हैं वे कनिष्क को प्रथम सदी या द्वितीय सदी में स्थापित करते हैं। इसके साथ ही कुषाणों द्वारा प्रचलन में कश्मीर में प्रयुक्त सप्तर्षि संवत् था, जिसके सहस्त्र व शत के अंक लुप्त थे। कुषाण संवत् वंशगत था और उनके बाद पश्चिमोत्तर भारत में तथा अन्य भागों में प्रचारित नहीं हुआ। विक्रम संवत् में अंकित तिथि के लेख अधिकांशतः दक्षिणी पूर्वी राजपूताना तथा मध्य भारत में पाये गये हैं। यहाँ तक कनिष्क का शासन नहीं था।

जान मार्शल का मत
सर जान मार्शल ने यह सिद्ध कर दिया कि कनिष्क का काल 57 ई.पू. न होकर 78 ई. है अतः कनिंघम और फ्लीट का विक्रम संवत् संबंधी मत गलत सिद्ध हुआ। परन्तु मार्शल ने गांधार के शक राजा ‘अयस’ को विक्रम संवत् का प्रवर्तक बताया। इस मत का समर्थन रैत्सन ने भी किया। सर जान मार्शल अयस का अर्थ करते हैं – ‘अजेस का’। तक्षशिला से प्राप्त अभिलेख में अंक 136 के बाद ‘अयस’ शब्द आता है उनका यह मानना है कि यह वही संवत् है जो ईसा से 57 वर्ष पूर्व आरंभ होता है परन्तु इसका प्रवर्तक विक्रमादित्य नहीं, अजेस प्रथम था।

अजेस का राज्य पंजाब और कंधार पर था, इस बात की पुष्टि वहाँ से प्राप्त सिक्कों से होती है। इन सिक्कों पर ‘महाराज राजराजस् महन्तस अयस’ लिखा मिलता है जिसका अर्थ ‘अजस’ से संबंधित होना बतलाया है। परन्तु भण्डारकर महोदय ने इसको गलत बताते हुए बतलाया है, अयस शब्द संस्कृत शब्द ‘आद्यस्य’ का प्राकृत रूप है और आद्यस्य अथवा अयस से प्रथम आषाढ़ का अर्थ निकलता है, क्योंकि उस वर्ष में दो आषाढ़ थे।

इसके अतिरिक्त अजेस के उत्तराधिकारियों ने भी अजेस के संवत् का प्रयोग नहीं किया। गोण्डाफरनेस के तब्तेबाही लेख में भी ‘अयस का उल्लेख नहीं है। इसमें बैसाख मास तथा पंचमी तिथि उल्लेखित है। युसुफजई के पंजतर लेख में भी श्रावणमास तथा प्रथमा तिथि का उल्लेख है। इन महीनों तथा तिथियों के नाम से स्पष्ट है कि ईसा के पूर्व 57-58 में आरंभ होने वाले संवत् की स्थापना अजेंस नामक विदेशी नहीं अपितु किसी भारतीय द्वारा ही की गई थी। जैन परम्परानुसार महावीर निर्वाण काल के 470 वर्ष बाद विक्रमादित्य ने सकल प्रजा को ऋण मुक्त किया और नवीन संवत् चलाया।

भण्डारकर का मत
डॉ. दत्तात्रेय रामकृष्ण भण्डारकर ने चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को ही विक्रमादित्य कहा है, जिसने लगभग 375 ई. से लेकर 413 ई. तक पाटलिपुत्र में राज्य किया था। इस सिद्धान्त को बाद में वि.ए. स्मिथ(33), बेरीडल, कीथ तथा भारतीय इतिहास के एक वर्ग ने स्वीकार भी कर लिया। कुछ विद्वान विक्रमादित्य को समुद्रगुप्त या स्कन्दगुप्त आदि गुप्त शासकों के साथ समेकित करते है। डॉ. भण्डारकर मत पूर्णतः ध्वसांत्मक हंै, क्योंकि हालकृत ‘गाथा सप्तशती’ में विक्रमादित्य का उल्लेख हो चुका है, अतः उसके अस्तित्व को प्रथम ई.पू. नकारना त्रुटिपूर्ण और असंतोषजनक है।

एक अन्य तर्क यह भी विक्रमादित्य संबंधित महत्वपूर्ण और औचित्यपूर्ण है, कि उसने पश्चिम तथा उत्तर पश्चिम भारत पर राज्य किया था तथा शकों को इस देश से निष्कासित किया जो उसकी ‘शकारि’ उपाधि से ज्ञात होता है। अतः गुप्तवंशी द्वितीय चंद्रगुपत वह कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि उसने केवल विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा 319-20 ई. में एक नवीन संवत् ‘गुप्त संवत्’ की स्थापना की गयी थी। जो गुप्त वंश संबंधी सभी राजकीय लेखों में उल्लेखित है। उनके वंश का ह्यस होने के बाद ही पुनः मालव संवत् का उल्लेख मिलता है। कुमार गुप्त के मंदसौर अभिलेख में 493 मालव संवत् उत्कीर्ण है, जो इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल का मत
डॉ. जायसवाल का मत है, कि गौतमीपुत्र शातकर्णि ही विक्रमादित्य था। उन्होंने जैन अनुश्रुतियों और लोककथाओं के समन्वय से यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है।

नाशिक अभिलेख में माता गौतमी ने अपने पुत्र में जिन गुणों का होना लिखा है, वह सभी गुण विक्रमादित्य में थे और गौतमीपुत्र शातकर्णि में भी थे। आंध्रनरेश ने क्षत्रप राजा नहपाण को हराया तथा मालवों के साथ शकों को सम्मिलित रूप से हराना गौतमीपुत्र शातकर्णि को ही विक्रमादित्य स्थापित करता है। नहपाण की तिथि अनिश्चित है। साथ ही साथ कण्ववंश के पतन 28 ई.पू. के पश्चात् शातकर्णि आंध्रवंश का राजवंश उदित हुआ जिसकी तालिका में 23वें स्थान पर गौतमीपुत्र शातकर्णि का स्थान आता है अतः किसी भी स्थिति में प्रथम शती ईसा पूर्व गौतमीपुत्र शातकर्णि को नहीं रखा जा सकता। आंध्रनरेशों ने विक्रम संवत् या किसी अन्य आनुक्रमिक संवत का प्रयोग नहीं किया, बल्कि उनके लेखों में तिथि अङकन उनके राज्यारोहण के वर्षों में हुआ है।

(साभार -महाराजा विक्रम शोधपीठ उज्जैन द्वारा प्रकाशित शोध पत्रिका विक्रम संवाद से )