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एक तपस्वी जैसा जीवन था बिस्मिल का

हम भारत के निवासी आज भारत भूमि पर बड़े आराम से निवास कर रहे हैं किन्तु क्या हमने कभी सोचा कि इस सुखपूर्ण जीवन देने के लिए, गुलामी की जड़ों को उखाड़ने वाले कितने वीरों, रणधीरों ने अपने लहू की नदियाँ इसके लिए बहाईं, इस देश के कितने सपूतों ने फांसी के फंदों को चूमा, कितने वीर विधर्मियों की जेलों में सड़ते रहे| इस प्रकार अपना सब कुछ बलिदान करने वाले वीरों के त्याग का ही परिणाम स्वाधीनता के रूप में हमें मिला है| अपने आप को देश की आजादी के लिए बलिदान करने वाले वीरों में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल भी एक हुए हैं| आओ आज हम उनके जीवन पर कुछ प्रकाश डालते हुए उनसे कुछ प्रेरणा लें |

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी संवत् १९८४ विक्रमी को शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश में हुआ| आपके पिताजी का नाम श्री मुरलीधर तिवारी था| बिस्मिल जी जीवन की शैशवावस्था में ही बुरी सांगत में आ गए| इस अवस्था में उन्होंने अनेक बुरी आदतों को अपने जीवन का भाग बना लिया| उनकी इन बुरी आदतों में चोरी करना, धुम्रपान करना, भांग पीना, गंदे उपन्यास पढ़ना आदि प्रमुख थीं| एक दिन इन गन्दी आदतों के कारण पकडे जाने और फिर अपने ही एक सहपाठी से सुपथ के लिए मार्ग-दर्शन मिलने पर आपने इन गन्दी आदतों से दूर रहने का संकल्प लिया|

इन्हीं दिनों आपका संपर्क एक आर्य समाजी कार्यकर्ता मुन्शी इन्द्रजीत जी से हुआ और उनकी ही प्रेरणा से आप आर्य समाज के साथ जुड़ गए| आर्य समाज में स्वस्थ तथा सुदृढ़ शरीर पर सदा ही बल दिया जाता रहा है, इस उपदेश का भी आप पर प्रभाव पड़ा और आप नियमित रूप से योग, व्यायाम तथा प्राणायाम करने लगे| इस प्रकार आपकी निष्ठा आर्य समाज के प्रति बढाती ही चली गई और कुछ ही दिनों में आप एक कट्टर व्रतधारी आर्य समाजी बन गए|

नित्य योगासन तथा प्राणायाम करने से आपका शरीर केवल बलिष्ठ ही नहीं हुआ अपितु आपका आत्मविश्वास भी दृढ हो गया| आपने नियमित रूप से आर्य कुमार सभा के कार्यक्रमों में भाग लेना आरम्भ किया| इस सभा में बच्चों को देश-भक्ति के लिए सदा ही प्रेरित किया जाता था| इतना ही नहीं आर्य कुमार सभा में अपनी स्वयं की रक्षा के उपायों के रूप में युवकों को शस्त्र चलाने की विद्या भी दी आती थी| इसके आतिरिक्त इस सभा के साप्ताहिक अधिवेशन भी अत्यंत महत्वपूर्ण होते थे| इन अधिवेशनों में वाद-विवाद, भाषानादि के अतिरिक्त धार्मिक पुस्तकों को भी पढा जाता था| इस सभा से प्रेरणा लेते हुए तथा इससे प्राप्त उपदेशों का सदुपयोग करते हुए आपने अपने लगभग सब साथियों में देशभक्ति के बीज अंकुरित करने में सफलता प्राप्त की|

इन्हीं दिनों भाई परमानंद जी को फांसी की सजा सुनाई गई| भाई जी को दी गई इस सजा को सुनते ही बिस्मिल और उसके सब साथियों के दिलों में विरोध की जिन्गारियाँ उठने लगीं तथा इस समूह ने अंग्रेज सरकार से बदला लेने की प्रतिज्ञा अपने मन में कर ली| इन्हीं दिनों इनका संपर्क आर्य समाज के एक संन्यासी स्वामी सोमदेव जी से हुआ| इन्हीं स्वामी जी के मार्ग-दर्शन में आजादी के दीवाने इन युवकों का एक संगठन बनाया गया| इस संगठन में पंडित गेंदालाल दीक्षित इस संगठन के लिए इन सब के सहयोगी तथा मार्ग-दर्शक बनाए गए| आपने दीक्षित जी से न केवल बन्दूकादि शास्त्र चलाने भी सीखे अपितु इनके सहयोग से स्वाधीनता तथा क्रान्ति सम्बन्धी बहुत सी पुस्तकें भी पढ़ीं|

जब कभी कोई क्रान्ति या आन्दोलन चलाना होता है तो इसके लिए सब से पूर्व धन की आवश्यकता होती है| धन के अभाव में कार्य सिद्ध नहीं होते और उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता| छोटे से इस संगठन के सामने भी धन की समस्या आ खड़ी हुई| धन हो तो ही क्रान्ति तथा विरोध के लिए शस्त्र प्राप्त किये जा सकते थे अन्यथा यह सब संभव ही नहीं था| इसलिए इन लोगों ने मिलकर एक योजना बनाई| यह जानते थे कि रेल गाडी से सरकारी खजाना जाने वाला है| यदि हम किसी प्रकार इस खजाने को प्राप्त कर लेते हैं तो हम अपनी आने वाली धन की समस्या को दूर करने मेनं सक्ष्म हो सकते हैं| इन्होंने गाडी के मार्ग की जांच की और एक कमजोर स्थान चुना| यह स्थान काकोरी नामक स्टेशन के पास ही पड़ता था| इस समूह के सदस्यों ने इसी स्थान पर जाकर गाडी का सब खजाना लूट लिया और लूट के इस धन से शास्त्र खरीद लिये| इन शास्त्रों की सहायता से इस दल की गतिविधियाँ भी तेज हो गईं| सारकार ने लाख यत्न किए किन्तु खजाना लुटने वालों का कुछ पता नहीं चल रहा था| सारकार को यह पता कभी चलता भी न यदि इनमें से ही एक लालची,देश का दुश्मन दुष्ट बनवारीलाल सरकार के सामने इस सब का भेद न खोलता| इसका परिणाम यह हुआ कि इस ग्यारह सदस्यी देश के दीवानों के दल के केवल चंद्रशेखर आजाद को छोड़कर सब दस के दस सदस्य सरकार की जेल में जा पहुंचे| पुलिस ने इन सब पर अमानवीय अत्याचार किये किन्तु कुछ भी उगलवा पाने में सफल न हो सकी| हां! न्याय का ढोंग अवश्य रचा गया| न्याय के इस ढोंग के परिणाम-स्वरूप बिस्मिल जी को मुख्य अभियुक्त माना गया और पूर्व निर्धारित दंड स्वरूप आपको फांसी की सजा सुनाई गई |

अंग्रेज की जेल और वह भी फांसी की कोठडी, किन्तु वीर रामप्रसाद बिस्मिल की दिनचर्या में कभी कोई अंतर न आया| आप नित्यप्रति प्रात:काल शुभ मुहूर्त में निद्रा त्याग कर ईश्वर आराधना के पश्चात् दंड-बैठक, प्राणायाम आदि करते और स्नानादि से निवृत होकर संध्या-हवन आदि करने के पश्चात् ही नाश्ता करते |

जेल में पड़ा व्यक्ति तो फांसी का नाम सुनकर ही काँप उठाता है, इस शब्द को सुनकर उसकी ह्रदय तंत्रियाँ अपना काम करना बंद कर देती हैं किन्तु बिस्मिल पर इस सब का कोई प्रभाव नहीं था, उनके चेहरे पर वही पहले जैसी मुस्कराहट और जीवन की नियमितता निरंतर बनी हुई थी| इतना ही नहीं अत्याचारी विदेशियों की जेल के कष्टों को सहते हुए भी फांसी की कोठारी में रहते हुए आपने अपनी आत्मकथा लिख डाली| बिस्मिल जी की यह आत्मकथा, जेल में और फांसी की कोठरी में रहते हुए लिखी गई विश्व की संभवतया दो आत्मकथाओं में से एक और प्रथम आत्मकथा है, जो मूल रूप से हिंदी में लिखी गई| इसके अतिरिक्त इस आत्मकथा को हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा होने का भी गौरव प्राप्त है| इस आत्म कथा को यह भी गौरव प्राप्त है कि यह वह पहली आत्मकथा है , जो जेल में लिखी गई, फांसी की कोठरी में लिखी गई और फांसी से केवल तीन दिन पूर्व ही किसी प्रकार जेल से बाहर अपने साथियों के सुरक्षित हाथों में पहुंचा भी दी गई| विदेशी अंग्रेज सरकार के गुप्त तंत्र का किस प्रकार भेदन किया होगा, लिखने के लिए किस प्रकार कागज़ जेल में आया होगा, इसे लिखते समय कैसे गुप्त रखा गया होगा और कैसे गुप्त रूप से इसे बाहर भेजा गया होगा , आज तो इस सब का अनुमान लगा पाना भी संभव नहीं है| इस आत्मकथा के प्रकाशन पर विदेश सरकार का तंत्र भी इसे देख कर भौंचक रह गया|

अंत में दिनांक १९ दिसंबर सन् १९२७ इस्वी को जब फांसी के समय आप से अंतिम इच्छा पूछी गई तो आपने दहाड़ते हुए, बड़ी निडरता से कहा कि “ अंग्रेज साम्राज्य का नाश हो, यह ही मेरी अंतिम अभिलाषा है|” यह कहते हुए बिस्मिल ने फांसी का फंदा चूमा और गोरखपुर की इस जेल में हंसते हुए स्वयं ही फांसी के फंदे की रस्सी अपने हाथों से ही अपने गले में डाल लिया| बिस्मिल जी के सिद्धांतनिष्ठ होने का यहीं से पता चलता है कि आप जाते-जाते भी जन-जन के लिए यह सन्देश छोड़ गए, वह यह कि चाहे कितना भी बड़ा कष्ट क्यों न आवे किन्तु कष्ट के समय भी अपनी दिनचर्या यथा योग, व्यायाम, प्राणायाम, संध्या,हवन आदि को कभी न छोडो| आज हम यदिबिस्मिल जी को सच्चे मन से याद करते हुए उन्हें अपनी श्रद्धांजली देना चाहते हैं तो उनकी अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए नित्य आसन, योग, प्राणायाम के साथ ही साथ संध्या और हवन भी नियमित करते हुए अपने जीवन को भी यज्ञमय बनावें| अपने जीवन की सब बुराइयों को प्रयत्न पूर्वक निकाल बाहर करें और इनके स्थान पर उत्तम गुणों को धारण करने के लिए प्रयाप्त स्थान दें | यह सब न केवल अपने जीवन में ही अपनावें अपितु अन्य के जीवन भी उन्नत बनाने में हम सब अपना सहयोग करें|

डॉ.अशोक आर्य
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