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ऐतिहासिक दुर्गों पर रेखांकित पुस्तक “राजस्थान के दुर्ग ऐतिहासिक महत्व एवं शिल्प सौंदर्य “

विरासत,कला – संस्कृति और पर्यटन पर पिछले 40 वर्षो से लिखने वाले संस्कृति के मर्मज्ञ और राजस्थान के सुनाम धन्य उदयपुर के लेखक एवं राजस्थान के जनसंपर्क विभाग से से. नि. संयुक्त निदेशक पन्नालाल मेघवाल की हाल ही में आई 10 वीं किताब “राजस्थान के दुर्ग ऐतिहासिक महत्व एवं शिल्प सौंदर्य ” राजस्थान के दुर्गों पर रेखांकित हैं। यूं तो देश में कई स्थानों पर राजाओं ने अपनी सुरक्षा और आक्रांताओं के हमलों से बचने के लिए सुरक्षात्मक दुर्गों का निर्माण कराया, परंतु राजस्थान के दुर्ग और इनकी सुरक्षा प्रणाली, शिल्प सौंदर्य और विशिष्ट संरचना इन्हें सभी दुर्गा में खास बनाती हैं।

राजस्थान के दुर्गा पर पहले भी कुछ किताबें लिखी जा चुकी हैं पर इस किताब की खासियत इसमें है की यह कई वजह से सबसे अलग है और दुर्गों पर एक संपूर्णता लिए हुए हैं। दुर्गा से सम्बन्धित कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जो छूट गया हो। प्रत्येक दुर्ग का इतिहास, संरचना की विशेषता, शिल्प बोध, कथा – गाथाएं, विवरण, ऐतिहासिक और पर्यटन महत्व सभी कुछ गागर में सागर की तरह समाया हैं।

इन दुर्गों एवं किलों पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के शौर्य और पराक्रम के साक्षी इन दुर्गों का शताब्दियों का गौरवमयी इतिहास एवं विशेष सांस्कृतिक पहचान है। वीरता की गौरवशाली परंपरा के प्रतिनिधि ये दुर्ग जौहर और साकों के लिए भी प्रसिद्ध हैं। राजस्थान के ये दुर्ग एवं कलात्मक वैभव की दृष्टि से ख्यातनाम हैं वहीं इन दुर्गों का ऐतिहासिक महत्व स्थापत्य कला एवं शिल्प सौंदर्य बेमिसाल है। शूरवीर ता के साथ – साथ त्याग और बलिदान कहानियों से गूंजते किले हमारी अमूल्य विरासत है। राजस्थान के दुर्गा का महत्व इससे समझा जा सकता है कि यूनेस्को की विश्व विरासत समिति ने कुंभलगढ़,चित्तौड़गढ़,जैसलमेर,रंथमभोर,आमेर और गाग्रों के पहाड़ी दुर्गों को विश्व विरासत में शामिल किया हैं।

लेखक ने अतीत की इस विरासत के नष्ट होने पर भी चिंता जताई हैं। वह लिखते हैं ” समय रहते हमने इन बहुमूल्य धरोहरों की सार संभाल, सरंक्षण एवं संवर्धन नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब ये सदा के लिए काल के गर्त में विलीन हो जाएंगे। कई गढ़ एवं दुर्ग तो खंडहर हो चुके हैं कुछ अपने अवसान की ओर हैं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारे यह किले, दुर्ग एवं गढ़ उस युग की देन है, जो अब लौटकर आने वाला नहीं है। सीमेंट और कंक्रीट की गगनचुंबी इमारतें तो बनती रहेंगी परंतु शौर्य और पराक्रम, त्याग, तपस्या और बलिदान के शाश्वत कीर्तिमान स्थापित करने वाले ‘कीर्ति के कमठाण’ अब बनने वाले नहीं हैं। इसलिए किले, दुर्ग एवं गढ़ ‘विरासत’ को संरक्षित और सुरक्षित किए जाने की महती आवश्यकता है।”

विरासत की इस किताब में राजस्थान के 39 दुर्गों का गूढ़ अध्यन और परिश्रम कर 185 पृष्ठ में सचित्र शोधपरक प्रामाणिक रोचक वृतांत प्रस्तुत किया है। पुस्तक का प्रकाशन इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (इंटेक) उदयपुर चैप्टर के सौजन्य से किया गया है। हिमांशु पब्लिकेशंस, उदयपुर से मुद्रित इस किताब का मूल्य 325रुपए हैं। सरल और सुबोध भाषा में लिखी गई यह किताब पाठकों को राजस्थान के दुर्गों से परिचय तो कराएगी ही साथ ही पर्यटन विकास में सहायक होगी।

लेखक परिचय
लेखक पन्नालाल मेघवाल का जन्म 6 अगस्त 1953 को उदयपुर में हुआ। आपने उदयपुर विश्वविद्यालय से 1975 में हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त कर 1981 में राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त किया। राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में 1979 में सहायक जन सम्पर्क अधिकारी से सेवा प्रारंभ कर 2013 में संयुक्त निदेशक पद से सेवा निवृत हुए। साहित्य और कला – संस्कृति के क्षेत्र में काव्य कुंज, राजस्थान के मांड गीत, राजस्थान शिल्प सौंदर्य के प्रतिमान,राजस्थान के लोकगीत,
राजस्थान लोकाभिव्यक्त के आयाम,राजस्थान के प्रचलित लोकनृत्य राजस्थान हस्तशिल्प कलाएं एवं द हैंडीक्राफ्ट ऑफ़ राजस्थान किताबों का लेखन किया एवं प्रकाशन करवाया। साथ ही आपके 500 से अधिक आलेख लोक नृत्य, गायन, वादन, शिल्प, विरासत,पर्यटन, कला एवं संस्कृति से सम्बन्धित राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।

संपर्क
डॉ..प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार
1- f-18, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी,
कुन्हाड़ी,कोटा,राजस्थान।