Friday, April 19, 2024
spot_img
Homeभारत गौरवब्रह्मवादिनी रोमशा

ब्रह्मवादिनी रोमशा

जिस देश में मुगलों के अत्याचारों के कारण आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तक नारी को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार नहीं था, विशेष रूप से वेद को पढ़ने अथवा सुनने के अधिकार से उसे वंचित कर दिया गया था, उस भारत देश का प्राचीन इतिहास नारी का गुणगान करते नहीं थकता| इस देश की प्राचीन नारियां इतनी विद्वान् और विदुषी होती थीं कि पूरा संसार इन विद्वान् नारियों की विद्वत्ता का लोहा मानते हुए इन नारियों के सामने नतमस्तक था| यह न केवल वेद का स्वाध्याय ही करतीं थीं अपितु वेद मन्त्रों व्याख्या कर इस के मन्त्रों की ऋषिकाएं और देवियाँ होने की क्षमता भी रखतीं थीं| जिन देवियों ने वेद मन्त्रों की आधिकारिक व्याख्या कर अपना नाम वेद मन्त्रों की ऋषिका के रूप में सम्मिलित होता है, उन देवियों में रोमशा भी एक थी|

ब्रह्मवादिनी रोमशा के समबन्ध में जो जानकारी उपलब्ध होती है, उसके अनुसार रोमशा ऋषि बृहस्पति की सुपुत्री होने का गौरव रखती थी तथा उनके समान ही सूशिक्षित हुई थी| अत्यधिक सुन्दर, सुलक्षणी तथा गुणवान् इस कन्या का विवाह ऋषि भावभव्य जी से हुआ| भावभव्य भी अपने समय के अत्यंत पुरुषार्थी और बुद्धिमान् नवयुवक थे| वह अपने जीवन साथी के रूप में रोमशी को पाकर स्वयं को धन्य अनुभव करते थे|

विवाह हो जाने के पश्चात् भी रोमशी ने वेदाध्ययन की अपनी इच्छा की पूर्ति में कुछ भी विराम नहीं आने दिया| इस कारण वह वेद के मन्त्रों की व्याख्या करने में ही लगी रहीं| उसके इस सुप्रयास तथा पुरुषार्थ का फल भी यथासमय उसे मिला| उसने अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १२६वें सूक्त की सात ऋचाओं की अति उत्तम व्याख्या की| इस कारण वेद की इन सात ऋचाओं की ऋषिका होने का गौरव रोमशा को मिला तथा उसका नाम इन मन्त्रों के साथ जुड़ गया|

रोमशा के नामकरण की भी एक रोचक कथा मिलती है| कहा जाता है कि उसके शरीर पर रोम रोम पर बाल थे तथा वह इतनी ज्ञानवती हो गई थी कि जिन जिन बातों के कारण, व्यवहार के कारण स्त्रियों की बुद्धि का विकास होता है, वह ही उसका विषय था और वेद के इन मन्त्रों में इस सम्बन्ध में ही चर्चा मिलती है, इसे ही हम रोम का मर्म कहते हैं| इस मर्म को जान जाने के कारण ही इस कन्या का नाम रोमसा हुआ| वेद के जिन मन्त्रों का इसने अत्यंत महीनता से व्याख्यान किया, उन्हें भी वेद की अनेक शाखाओं के रूप में माना जाता है| यह भी रोम के रूप में जाने जाते हैं, इनका ही वह सदा प्रचार करती रहीं , इस कारण भी उसे रोमसा कहा जाने लगा|

इस प्रकार वेद का अत्यंत महीनता से स्वाध्याय करते हुए , उसके अंतर्गत आने वाली ऋचाओं की व्याख्याता होने के कारण रोमसा को इस नाम से ही सर्वत्र प्रसिद्धि मिली| रोमसा की महानता, पुरुषार्थ लगन का ही परिणाम था कि वह वेद की ऋषिका बन पाई| आज भी आवश्यकता है कि इस देश के लोग स्वामी दयानंद सरस्वती जी के आदेश का पालन करते हुए एक बार फिर से वेद की और लौटें, इस का महीनता से ज्ञान पाने के लिए पुरुषार्थ करें और इनके मन्त्रों के देवी अथवा देवता बनने का अधिकार प्राप्त करें तो हम एक बार फिर से समग्र विश्व के अग्रणी बन सकते हैं|

डॉ.अशोक आर्य
पाकेट १/६१ रामप्रस्थ ग्रीन से. ७ वैशाली
२०१०१२ गाजियाबाद उ.प्र. भारत
चलाभाष ९३५४८४५४२६
E Mail [email protected]

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार