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विजयी युद्धनीति के महानायक छत्रपति शिवाजी महाराज

मुग़ल बादशाहों के शासनकाल में भारत दुर्गति की अवस्था में था| जाति तो क्या, यहाँ के तीर्थ स्थान व साहित्य , यहाँ तक कि वेदों पर भी मुगलों की कुदृष्टि का प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था| जिस प्रकार आज के बड़े-बड़े राजनेता, अपने ही दल के अध्यक्ष या अन्य किसी प्रमुख नेता सरीखे नेताओं के सामने भीगी बिल्ली बन जाते हैं और उनकी बोलती बंद हो जाती है, ठीक इस प्रकार ही मुगलों के सामने कोई भी साधारण भारतीय तो क्या यहाँ का कोई नेता तक भी मुगलों के सामने बोलने का साहस तक नहीं करता था| ऐसी विकट अवस्था में एक मुग़ल बादशाह के सामने सिर न झुकाने की बात तो कोई सोच भी नहीं सकता था किन्तु आठ वर्षीय नन्हे से बालक शिवाजी ने कुछ ऐसा ही कर दिया, जिससे राज दरबार में उपस्थित सब लोग चकित हो गए|

शिवाजी के पिता शाहजी बीजापुर दरबार में कार्यरत थे| उनकी सदा ही यह इच्छा रही कि उनका सुपुत्र शिवा भी राज दरबार में बादशाह की कृपा का पात्र बनकर कभी इस दरबार का उच्च दरबारी बने| इस कामना को ही संजोये एक दिन वह शिवा को अपने साथ राज दरबार ले गए| हम जानते हैं कि किसी ने यह सत्य ही कहा है कि महान् व्यक्ति के गुण उसके बाल्यकाल में ही दिखाई देने लगते हैं| शिवा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, जब उन्हें राजदरबार में बादशाह के सामने झुक कर सिजदा करने को कहा गया तो शिवा ने यह कहते हुए सिजदा करने से इन्कार कर दिया कि मैं इस बादशाह को सिजदा अथवा प्रणाम नहीं कर सकता क्योंकि यह मेरा राजा नहीं है| एक नन्हें से बालक में इस प्रकार के उच्चकोटि के विचार होना या तो उसके पूर्व जन्मों के संस्कार हो सकते हैं या फिर माता से प्राप्त देश-भक्ति के वचारों का परिणाम हो सकता है| जहाँ तक शिवाजी का सम्बन्ध है, उनमें विगत् जन्म के संस्कार तो रहे ही होंगे किन्तु माता जीजाबाई के उपदेशों का भी अत्यधिक प्रभाव था|

बालक शिवा ने अपनी बाल सेना बना रखी थी| इस बाल सेना के सहयोग से खेल ही खेल में कई आश्चर्य जनक कार्य किये| यहाँ तक कि एक बार तो बाल क्रीडा करते हुए पता ही न चला कि कब उन्होंने एक किले पर ही अधिकार कर लिया| जिस बादशाह से न केवल प्रजा ही अपितु सब दरबारी भी डरते थे. जिस बादशाह को बाल शिवा ने अपना राजा मानने से मना कर दिया था, इस वीर बालक की वीरता क हि परिणाम था कि एक दिन उसी बादशाह ने शिवाजी को हिन्दू राजा के रूप में अपने यहाँ बुलाकर उनका सम्मान किया तथा उनके सामने झुककर प्रणाम किया| वास्तव में शिवाजी सैन्य संचालन तथा युद्धनीति में सिद्धहस्त थे| इस कारण ही तो मुट्ठी भर साथियों के सहयोग से अफजलखां तथा शाइस्ताखां जैसे भ्यानक मुग़ल सेनापतियों ( जिन से संसार के योद्धा सदा भयभीत रहते थे|) को बड़ी सरलता से परास्त कर दिया|

हिन्दू पद-पादशाही की स्थापना ही शिवाजी का अंतिम लक्ष्य था| इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए शिवाजी ने अपने पुरुषार्थ तथा एकनिष्ठ सहयोगियों की वीरता, शौर्य तथा भरपूर साहस के बल पर निरंतर विजयी होते हुए, विपरीत परिस्थितियों को भी अपने आत्म-विश्वास से लांघकर एक सफल जननायक तथा प्रशासक के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित किया| समय की गति की शिवाजी को अच्छी पहचान थी| विश्व इतिहास में दो राजनेता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने विदेशियों की कारा से भी अपनी सूझ के कारण सफलता पूर्वक मुक्ति प्राप्त की| इन दोनों में प्रथम तो थे हमारे चरित्रनायक छत्रपति शिवाजी महाराज और दूसरे थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस| विश्व इतिहास में अंकित यह दोनों के दोनों नेता ही भारतीय थे| इन दोनों को स्वयं विदेशियों की कारा से मुक्त करना, इनकी दूरदर्शिता और गहरी सूझ का स्वामी होने का हि परिणाम था |

दृढ़ निश्चयी व्यक्ति सदा ही अपने उद्देश्य पर अपनी दृष्टि जमाये रहता है| चाहे कितने भी संकट आयें,आंधियां चलें,भीष्ण वर्षा हो, तूफ़ान आ घेरें किन्तु अपने उद्देश्य से कभी पथभ्रष्ट नहीं होते तथा सफलता को पाकर ही विश्राम लेते हैं| शिवाजी भी तब तक अविचलित रूप से मैदान में डटे रहे, जब तक सफलता नहीं मिल गई, यहाँ तक कि दिल्ली के मुग़ल सिंहासन की जड़ें भी हिला कर रख दीं| ऐसे दृढनिश्चयी ही देश तथा जाति के लिए कुछ कर सकते हैं| आज देश भर में हो रहे धर्मान्तरण, लवजिहाद, पत्थरबाजी आदि के युग में हम भी छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन से प्रेरणा लें तथा अपने वीर साथियों की सेना तैयार कर संघर्ष का मार्ग अपनाते हुए जाती की रक्षा के लिए अपना योगदान दें| हमारे जिन भाइयों को विधर्मियों ने राम व कृष्ण की गोद से छीनकर इसा व हजरत की झोली में डाल दिया है , यदि हम उन्हें पुन: अपने पूर्वजों की भेंट में लौटा पावें, इस में ही हमारी सफलता होगी |

डॉ. अशोक आर्य
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