1

छत्तीसगढ़ रंग प्रतिभाः मुंबई की फिज़ा में घुली छत्तीसगढ़ी लोक रंग की खुशबू

इन दिनों प्रतिभा का मतलब यही हो गया है कि कोई टीवी पर आकर नाच-गाकर चला जाए। लेकिन इस देश में चप्पे-चप्पे पर ऐसी प्रतिभाएँ बिखरी पड़ी है जो हजारों सालों से हजारों पीढियों को कला, संस्कृति, परंपरा, मूल्यों और जीवन दर्शन का संदेश देती चली आ रही है। इनमें से अधिकांश कलाकार वे हैं जिन्हें शहर की कृत्रिमता की हवा नहीं लगी है और जो किसी भक्त या शिष्य की तरह अपनी कला परंपरा को अपनाने के साथ उसे पूजते आ रहे हैं। कला उनके लिए कमाई और प्रसिध्दि पाने का जरिया नहीं बल्कि विशुध्द रूप से जीवन को कला के साथ आत्मसात करते हुए जीना है।

मुंबई के अंधेरी के भुवंस कल्चरल सेंटर और भातखंडे ललित कला शिक्षा समिति रायपुर, भातखंडे संगीत संस्थान मुंबई के सामूहिक प्रयासों से मुंबई के सुधी श्रोताओं और दर्शकों ने जंगल में किसी जंगली फूल की तरह फली-फूली छत्तीसगढ़ी कला के विभिन्न आयामों को देखकर ये महसूस किया कि टीवी के परदे और महानगरीय जीवन में वे किस कदर अपने आप से ही कटकर रह गए हैं। छत्तीसगढ़ के सुदूर आदिवासी क्षेत्रों से आए इन कलाकारों ने जिस सहजता व सरलता से अपनी कला की विरासत को प्रस्तुत किया वह मुंबई के सुधी श्रोताओँ और दर्शकों को जीवन भर रोमांचित करती रहेगी। मुंबई के भवंस कल्चरल सेंटर में ये त्रिदिवसीय छत्तीसगढ़ रंग प्रतिभा को छत्तीसगढ़ से मुंबई तक की यात्रा कर सका तो इसके पीछे थे संगीत,अभिनय और गायन के सिध्दहस्त त्रिआयामी कलाकार शेखर सेन, जो संप्रति अखिल भारतीय संगीत नाटक अकादेमी के अध्यक्ष भी हैं।

कलाकारों को मुंबई लाने से लेकर कार्यक्रम के संचालन के माध्यम से कलाकारों व दर्शकों और श्रोताओं के बीच रोचक संवाद से हर प्रस्तुति के प्रति जिज्ञासा और रोमांच पैदा करने में शेखर जी ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। शेखरजी ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए आने वाली प्रस्तुति को लेकर ऐसी भूमिका बाँधते हैं कि दर्शक और श्रोता प्रस्तुति के पहले ही उसके आनंद में गोता लगाने लगते हैं।

इस त्रिदिवसीय समारोह के लिए छत्तीसगढ़ के 150 से अधिक लोक कलाकार मुंबई आए और चकाचौंध की दुनिया में रहने वाले मुंबई वासियों को अपनी नैसर्गिक और पारंपरिक कला प्रतिभा से सम्मोहित कर दिया।

पहले दिन सूफी गायक मदन चौहान ने अपने सूफियाना अँदाज़ से ही इस बात का आगाज़ दिया था कि आने वाले कलाकार और उनकी प्रस्तुतियों का रंग क्या होगा।

इसके बाद प्रभा यादव ने पंडवानी गायन शैली में महाभारत की कथा को इस जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया कि उनके गीतों और संवादों की पंक्तियाँ दर्शकों के सामने महाभारत का दृश्य बनकर उभरने लगी। पंडवानी छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की परंपरा में विशिष्ट गायन शैली है जिसके माध्यम से एक कलाकार महाभारत की कथा को लोक संगीत के साथ प्रस्तुत करता है। पंडवानी, पांडववाणी का अपभ्रंश है, पांडववाणी यानी पांडवों की (महाभारत) की कथा।

प्रभा यादव ने जिस ओजस्विता और सहजता के साथ मंच पर महाभारत काल में अर्जुन और हनुमान मिलन के प्रसंग को प्रस्तुत किया उसने दर्शकों के साथ ऐसा तादात्मय बनाया कि इस पूरी प्रस्तुति में दर्शक ऐसे दम साध कर बैठे रहे, कि कहीं कोई संवाद सुनने से चूक न जाए।

लोक परंपरा में कथा है कि अर्जुन और हनुमानजी में रमसेतु पर बने पुल को लेकर विवाद हो जाता है और अर्जुन हनुमानजी को चुनौती देते हैं कि ऐसा पुल तो मैं अपने बाणों से ही बना देता। हनुमानजी कहते हैं कि बाणों से बना पुल तो एक वानर के चलने से ही टूट जाता, तो अर्जुन कहते हैं मैं पुल बनाता हूँ, देखता हूँ एक वानर इसे कैसे तोड़ता है और चुनौती देते हुए

कहते हैं कियदि आपके चलने से सेतु टूट जाएगा तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।

हनुमानजी चुनौती स्वीकार कर लेते हैं। तब अर्जुन प्रचंड बाणों से सेतु तैयार कर देते हैं। जब तक सेतु बनकर तैयार नहीं हुआ, तब तक तो हनुमान अपने लघु रूप में ही रहे, लेकिन जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान ने विराट रूप धारण कर लिया। हनुमान राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया। अर्जुन की वीरता को बचाने के लिए श्रीकृष्ण कछुआ का रूप धारण करके पुल के नीचे आ गए। हनुमान पुल पर चलने लगे, तो उन्हें नदी में खून दिखाई दिया, जो कछुए के शरीर से निकल रहा था। वे रुक गए। अंत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन और हनुमानजी की मैत्री कराई और महाभारत युध्द के समय हनुमानजी अर्जुन के रथ मे लगी पताका पर विराजमान रहे।

प्रभा यादव ने पंडवानी के माध्यम से इस पूरी कथा को लोक गीत-संगीत, परंपरा और लोकरंग की स्वाभाविकता ने इस प्रस्तुति को दर्शनीय बना दिया। मंच पर और मंच से परे के सभी कलाकारों ने इस मंचन को एक नई ऊँचाई प्रदान की। प्रभा यादव ने मुंबई के दर्शकों को एहसास कराया कि टीवी और फिल्मी परदे पर हर किरदार और कलाकार कितना नकली होता है।

कमलादेवी संगीत महाविद्यालय की छात्राओं ने आरती सिंह के निर्देशन में स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित नृत्य नाटिका प्रस्तुत कर दर्शकों को विवेकानंद के व्यक्तित्व के कई आयामों से परिचित कराया।

समारोह के दूसरे दिन भिलाई की साधना रहटगाँवकर ने अपनी देशज खुशुबू से लिपटी गज़लों से इस शाम को यादगार बना दिया। उन्होंने शमीम जयपुरी, दुष्यंत कुमार, ज़फ़र गोरख़पुरी, की ग़ज़लों से श्रोताओँ पर रसवर्षा की और समपान शेखर सेन की स्वर्गीय माता,जी जो ठुमरी की सिध्दहस्त गायिका थी, को स्मरण करते हुए उनकी गाई ठुमरी ‘गगरी सारी डार गयो मो पे रंग की’ से की।

ग़ज़ल के बाद पंथी नृत्य ने दर्शकों को लोक कला के एक ऐसे अद्भुत और रोमांचकारी रंग से परिचित कराया जिसकी शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।

श्री दिनेश जांगिड़ के निर्देशन में प्रस्तुत पंथी नृत्य को लेकर शेखर जी ने जो भूमिका बाँधी नृत्य की प्रस्तुति के अंत तक उसका असर दर्शकों पर छाया रहा।

पंथी गीत और इस गीत के साथ किया जाने वाला पंथी नृत्य छत्तीसगढ़ में के सतनामी जाति के लोगो के द्वारा ईश्वर (सतनाम पिता) की स्तुति में और संत गुरूघासी बाबा के जीवन चरित्र का वर्णन किया जाता है। यह निर्गुण भक्ति धारा से प्रेरित गीत और नृत्य हैं जिसमे गुरु घासीदास के द्वारा दिए गए उपदेश को गीत और नृत्य के माध्यम से मंच पर प्रस्तुत किया जाता है।

इसके साथ प्रमुख वाद्य यंत्र के रूप में झांझ मंजीरा और मांदर तथा ढोलक का उपयोग किया जाता है। इस नृत्य में एक मुख्य नर्तक होता है जो पहले गीत की कड़ी उठता है जिसे समूह के अन्य नर्तक दोहराते है एवं नाचते है। यह नृत्य धीमी गति से शुरु होकर संगीत की स्वर लहरियों और ढोलकी थाप के साथ तेज गति से आगे बढ़ता है। बीच बीच में नर्तक अलग अलग तरह से पिरामिड बनाकर उसके ऊपर ढोलक बजाकर, मशाल लेकर जब नृत्य करते हैं तो ढोलक की थाप और तालियों की गड़गड़ाहट की जुलबंदी से एएहसास होता है कि इस नृत्य में कितनी उर्जा और संतुलन है।

लोरिक चंदा का मंचन

लोक गाथाओं और लोक पंरपराओं ने ही सुदूर जंगलों में भारतीय संस्कृति की हजारों सालों की परंपराओं को पूरी शुध्दता के साथ जीवित बनाए रखा है लोरिक चंदा भी ऐसी ही ऐसी ही एक लोक गाथा है। इसकी नायिका चंदा राजा महर की लड़की है. उसकी शादी जिस राजकुमार से तय होती है उसे कुष्ठ रोग हो जाता है। चंदा गाँव के एक ग्वाले लोरिक पर मोहित हो जाती है जो बहुत अच्छी बाँसुरी बजाता है और बहुत ही सुंदर और बहादुर भी है। लोरिक एक दिन सामान खरीदने बाजार जाता है तो चंदा अपनी मालिन को लोरिक को बुलाने भेजती है। लोरिक और चंदा मालिन के घर पर ही चौसर खेलते हैं। चौसर की शर्त होती है कि जीतने वाला अपने साथ हारने वाले को अपने साथ कहीं भी ले जा सकता है। इधर लोरिक की पत्नी दावना मंजर अपने पति के घर नहीं पहुँचने पर परेशान हो जाती है। वह मठ्ठा बेचने के बहाने मालिन के घर पहुँचती है और वहाँ अपने पति को चंदा के साथ पाँसा खेलते देख क्रोधित हो जाती है। दावना मांजर अपने पति को लेकर घर आ जाती है,चंदा राज महल चली जाती है। लेकिन बाद में वह लोरिक के साथ भाग जाती है।

रामाधार साहू द्वारा निर्देशित इस पूरे नाटक को विशुध्द लोक शैली में देखना एक अलग ही अनुभव था। इस नाटक से ये भी संदेश मिलता है कि हमारा आदिवासी समाज में किस सहज-सरल जीवन शैली के साथ सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल अपने आपको ढाल लेता है और सामजिक समरसता उके जीवन का हिस्सा बनी रहती है।

बस्तर बैंड की मादकता में झूम उठे लोग

जब बस्तर बैंड की प्रस्तुति के लिए कलाकार मंच पर आए और उन्होंने सुरहि जैसै फूँक वाद्य से कू हू कीइ आवाज़ निकाली तो भुवन परिसर के वृक्ष पर बैठे किसी पक्षी ने उसी आवाज़ में जवाब दिया, कलाकार ने तीन मंच पर तीन बार इस वाद्य को बजाया और तीनों बार पक्षी ने अपनी आवाज़ में इसका प्रतिउत्तर दिया। ये अनोखी जुगलबंदी इस बात का प्रमाण थी कि बस्तर बैंड प्रकृति और पशु-पक्षियों से कितना जुड़ा है।

बस्तर बैंड मूलत: बस्तर के आदिवासियों की एक ऐसी शानदार प्रस्तुति है जिसमें गाथा, आलाप, गान और नृत्य से लेकर संगीत और नृत्य की कई विधाओँ का समावेश है। इसमें आदिवासियों के आदि देव लिंगों के 18 वाद्य सहित लगभग 40 से ज्यादा परंपरागत वाद्य शामिल है। बस्तर में आदिवासी लिंगो देव को अपना संगीत गुरू मानते हैं. मान्यता यह भी है कि लिंगो देव ने ही इन वाद्यों की रचना की थी. ‘लिंगो पाटा’ या लिंगो पेन यानी लिंगो देव के गीत या गाथा में उनके द्वारा बजाए जाने वाले विभिन्न वाद्यों का वर्णन मिलता है। बैंड समूह का प्रत्येक कलाकार तीन से चार वाद्य एक साथ बजाने में पारंगत है। तार से बने वाद्य, फूंक कर मुँह से बजाने वाले वाद्य और हाथ व लकड़ी के थाप से बजने वाले ढोल वाद्यों से निकला संगीत जादुई असर करता है।

बस्तर बैण्ड में कोइतोर या कोया समाज जिनमें मुरिया, दण्डामी माडिया, धुरवा, दोरला, मुण्डा्, माहरा, गदबा, भतरा, लोहरा, परजा, मिरगिन, हलबा आदि तथा अन्य कोया समाज के पारंपरिक एवं संस्का्रों में प्रयुक्त,वाद्य संगीत, सामूहिक आलाप-गान को प्रस्तुत किया जा रहा है. बस्तर बैण्ड के वाद्यों में माडिया ढोल, तिरडुडी़, अकुम, तोडी़, तोरम, मोहिर, देव मोहिर, नंगूरा, तुड़बुडी़, कुण्डीडड़, धुरवा ढोल, डण्डार ढोल, गोती बाजा,मुण्डा बाजा, नरपराय, गुटापराय, मांदरी, मिरगीन ढोल, हुलकी मांदरी, कच टेहण्डोर, पक टेहण्डोर, उजीर, सुलुड, बांस, चरहे, पेन ढोल, ढुसीर, कीकीड, चरहे, टुडरा, कोन्डोंडका, हिरनांग, झींटी, चिटकुल, किरकीचा, डन्डार, धनकुल बाजा, तुपकी, सियाडी बाजा, वेद्दुर, गोगा ढोल आदि प्रमुख हैं।

बस्तर बैंड के संयोजन, निर्देशन और परिकल्पना रंगकर्मी एवं लोककलाकार अनूपरंजन पांडेय ने की है और उन्होंने अपने जीवन के कई सुनहरे वर्ष इन आदिवासी कलाकारों के वाद्यों और उनकी प्रतिभा को समाज के सामने लाने में लगा दिए। इस बैंड के माध्यम से उन्होंने बस्तर की अलग-अलग बोलियों और प्रथाओं को एक मंच पर लाने का प्रयास किया है। इस बैंड के वादकों की एक और खासियत ये है कि ये छत्तीसगढ़ में एक-दूसरे से सैकड़ों किलोमीटर दूर के रहने वाले हैं, यानी कोई भी कलाकार किसी एक गाँव का नहीं है। लेकिन अपनी प्रस्तुति के दौरान नृत्य से लेकर वाद्य बजाने तक में उनका आपसी तालमेल इतना गज़ब का होता है कि ऐसा लगता है मानो ये सब बरसों से एक साथ रिहर्सल कर रहे हैं।

बस्तर बैंड की स्थापना का श्रेय छत्तीसगढ़ के ही बिलासपुर जिले के रहने वाले अनूप रंजन पांडेय को जाता है, जो रंगमंच के कलाकार रह चुके हैं. अनूप कहते हैं कि इस बैंड की स्थापना के पीछे मकसद यही था कि इसके माध्यम से परंपरागत, जनजातीय संगीत और विलुप्त हो रहे स्थानीय दुर्लभ प्राचीन वाद्ययंत्रों का संरक्षण किया जा सके और दूसरा नक्सल उग्रवाद की ओर तेजी से उन्मुख हो रहे यहां के जनजातीय युवकों को प्राचीन जनजातीय संगीत व वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण दे कर इस क्षेत्र के लोगों में प्रेम, शांति और भाईचारे का संदेश फैलाया जा सके. इस संगीत बैंड के अधिकतर सदस्य अशिक्षित और यहीं के सुदूर गांवों के रहने वाले हैं. अपने प्रदर्शन के लिए यात्रा करने पर उन में से अधिकतर ने अपने जीवन में पहली बार अपने गांव से बाहर कदम रखा और अपनी जिंदगी में पहली बार रेल को देखा। बैंड का उद्देश्य है, ‘बंदूक छोड़ो, ढोल पकड़ो’ क्योंकि जहां बंदूक जीवन को बरबाद करती है, वहीं ढोल जीवन को विस्तार देता है।

इन 110 दुर्लभ छत्तीसगढ़ीय वाद्ययंत्रों के संग्रह में से अधिकतर ताल देने वाले वाद्ययंत्र हैं, जिन में कंधे से क्षैतिज लटकता हुआ लंबा ढोल, अर्धगोलाकार स्थैतिक ढोल, छोटा ढोल, मटके पर मढ़ा हुआ सूप, जिस पर स्त्रियां एक लय में थाप दे कर पश्चिमी ड्रमों की भांति धुन बजाती हैं, प्रमुख हैं। 125 सदस्यों का यह समूह कम से कम 50 प्राचीन वाद्ययंत्रों को और लगभग 150 गीतों को सारे देश में विभिन्न स्थलों पर गाता और बजाता है।

इस बैंड में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान संगीत नाटक अकादमी राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित लक्ष्मी सोड़ी और श्रीनाथ नाग, राष्ट्रीय अवॉर्ड से सम्मानित बुधराम सोड़ी, रगबती बघेल, पुनऊ मरावी, नवेल कोराम, हूंगी ताती,सन्नू ताती, जयमती दुग्गा, आसमती सलाम, सुकटा कोराम, रामसिंह सलाम, मनदेई बघेल, स्वाति मानिकपुरी, मनकू सोरी, आयतु नाग, सोमारू नाग, कमल सिंह बघेल, सोनमती नाग, विक्रम यादव, जमुना नाग जैसे कलाकार शामिल हैं।

राजा फोकलवा ने जमाई धाक

राकेश तिवारी द्वारा लिखित एवं निर्देशित एवं संगीतबद्ध किए गए नाटक राजा फोकलवा की शुरुआत छत्तीसगढ़ी संवादों से होती है। छत्तीसगढ़ की परंपरागत लोक गायन शैली भरथरी, पंडवानी, चदैनी, पंथी, कर्मा,ददरिया और बिहाव गीत से नाटक आगे बढ़ता है। नाटक में फोकलवा गांव का एक भोला-भाला युवक है, जो विधवा मां के साथ रहता है। एक नाटकीय घटना में फोकलवा राजा बन जाता है। इस नाटक में संदेश दिया गया है कि अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा ही होता है। फोकलवा के माध्यम से निर्देशक दर्शकों को अपने बचपन के खेलों से लेकर और ऐसी कई बाल सुलभ बातों की याद दिलाता है जो हमारे शहरी संस्कारों में हमारे बीच से गायब हो गए हैं।

राजा फोकलवा’, एक लापरवाह और मस्तमौला युवक के अचानक राजा बन जाने की कहानी है। वह अपनी बूढ़ी माँ का इकलौता सहारा है। हेमंत वैष्णव ने फोकलवा के चरित्र को जिस कुशलता के साथ निभाया है, वह पूरे समय दर्शकों को बाँधे रखता है।

फोकलवा से की बैसिर-पैर की हरकतों से उसकी मां हमेशा परेशान रहती है। उसका मन खेलने में लगा रहता है। एक दिन माँ के कहने पर वह जंगल में लकड़ी काटने जाता है तो उसका मुकाबला राक्षस और राक्षसी से हो जाता है, वह कुल्हाड़ी से वार कर राक्षस-राक्षसी को भागने पर मजबूर कर देता है तभी राक्षसी की साड़ी और पैर का कड़ा फोकलवा के हाथ लग जाता है। फोकलवा उसे ही लेकर घर आ जाता है । साड़ी और कड़ा देखकर मां प्रसन्न होती और वह साड़ी को पहन लेती है । उस देश की राजकुमारी जब घूमने निकली तो फोकलवा की मां को इस साड़ी में देखकर जिद करती है कि यह साड़ी मुझे चाहिए । फोकलवा की मां को साड़ी के लिए हर तरह का प्रलोभन दिया जाता है फिर भी वह साड़ी देने के लिए तैयार नहीं होती । फोकलवा अपनी बाल सुलभ आदत के अऩुसार शर्त रखता है कि ये साड़ी मेरी दाई (माँ) पहनेगी या मेरी बाई (पत्नी)।

राजकुमारी इस साड़ी के लिए फोकलवा से शादी करना स्वीकार कर लेती है। फोकलवा राजा का दामाद होने का फायदा उठाकर असामाजिक तत्वों, भ्रष्टाचार को खूब बढ़ावा देता है । इसी दौरान राजा की हत्या हो जाती है ।फिर फोकलवा राजा बन जाता है। राजा बनते ही राजा फोकलवा सारे ईमानदार मंत्री सेनापति अधिकारी आदि को बाहर कर अपने चायुकारों की फौज भर्राती कर लेता है। राजा बनने की खुशी में अपनी पत्नी राजकुमारी को राक्षसी से मिला पैर का कड़ा भेंट करता है। रानी दूसरे पैर के लिए इसके जोड़े की जिद कर कोप भवन में चली जाती है। राजा फोकलवा पूरे राज्य की सेना को जंगल में भेजता है ताकि वो राक्षस-राक्षसी से कड़ा लेकर आए, लेकिन पूरी सेना खाली हाथ लौट आती है। फिर राजा फोकलवा खुद कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाता है और राक्षस-राक्षसी से गले का ताबीज और कड़ा लेकर आता है । वह कड़ा रानी को पहनाता है और ताबीज खुद पहन लेता है।

इस ताबीज और कड़े के पहनते ही राजा और रानी राक्षस-राक्षसी की योनी में में आ जाते हैं और जंगल के राक्षस-राक्षसी को उस योनि से मुक्ति मिल जाती है। ये राक्षस-राक्षसी पूर्व जन्म में राजा थे और भ्रष्टाचार, बेईमानी और लूट के कारण इस जन्म में राक्षस-राक्षसी हो गए थे। उनको ये वरदान था कि उनके कड़े और ताबीज को कोई भ्रष्टाचारी राजा और रानी पहनेंगे तो उनको इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।

इस तरह ये कहानी बताती है कि सत्ता के मद में जो लोग भ्रष्टाचार और मनमानी में डूब जाते हैं उनका हश्र क्या होता है।