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सांप्रदायिकता बनाम बेतरतीब सृजित मंतव्यों की स्थापना के प्रयास

बहुत दिनों से कन्वेंशनल एवं सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया जा रहा है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है कि कहीं से सकारात्मक वातावरण की उत्पत्ति होती है उसका स्वागत करना चाहिए। इन सवालों से ऊपर है काफिर और गज़वा ए हिंद जैसे शब्द..!

मनुष्य एक मानव का जन्म लेता है और फिर वह अपनी मान्यता के अनुसार या कहीं परंपरा के अनुसार उस मत को स्वीकार कर लेता है .

वह या तो मूर्ति पूजक हो जाता है या निरंकार ब्रह्म की उपासना में अपने आपको पता है। इन दिनों जो वातावरण निर्मित किया गया है वह है सनातन के विरुद्ध शंखनाद करने का। निरंकार ब्रह्म तथा साकार ब्रह्म की उपासना पर किसी को कोई संघर्ष जैसी स्थिति निर्मित नहीं करनी चाहिए। जब स्वयं सिद्ध है कि भारतीय एक ही डीएनए के हैं तो सांस्कृतिक एकात्मता गुरेज़ कैसा. ?

इस सवाल की पतासाजी करने पर पता चला कि लोग एक दूसरे की पूजा प्रणाली पर भी सवाल उठाने लगे। काफिर का मतलब है कि जो बुरा है और बुरा वह है जो मूर्ति की पूजा करता है या जो उन डॉक्ट्रींस को नहीं मानता जो किसी ने कहे हैं। भाई यही संघर्ष का कारण है। अगर मैं कहूं कि मैं क़यामत का इंतजार नहीं करता बल्कि मुमुक्ष होकर जन्म जन्मांतर के बंधन से मुक्ति की उम्मीद करता हूं ।और उसके लिए साधना करना यदि अब्राहिम अवधारणा पर आधारित एक संप्रदाय कोम मानने वालों को, एतराज़ नहीं करना चाहिए। और यदि मैं कहूं कि अब्राह्मिक संप्रदायों पूजा प्रणाली ग़लत है तो मैं स्वयं ही ग़लत हूं मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए । अर्थात एक दूसरे की पूजा पद्धतियों का सम्मान करना चाहिए जैसा भारत आमतौर पर करता है। परंतु मूर्तिपूजक हमेशा काफ़िर कहे जाते हैं यह कहां तक न्याय पूर्ण है ? और यह भी कहाँ जायज़ है कि तलवार के दम पर या किसी तरह की स्ट्रेटजी बना कर आपके विश्वास को बदलने के लिए बाध्य किया जाए।

यहां हम कलाम साहब बाबा भीमराव अंबेडकर सहित हजारों उन लोगों को याद करना चाहते हैं जो अप्रासंगिक मान्यताओं के विरुद्ध अपनी रख चुके हैं। उन्होंने क्या कहा था उसे बिना याद किए बताना जरूरी है कि सांप्रदायिक सहिष्णुता त्याग मांगती है और हम वर्षों से ऐसा त्याग करते चले आ रहे हैं। यह सनातन विचारधारा का मौलिक आधार भी है। हम विश्व बंधुत्व की बात करते हैं हम अनहलक अर्थात एकस्मिन ब्रह्म: द्वितीयो नास्ति ..

भारतीय दर्शन में धर्म का यही विशाल इनपुट भारतीय दर्शन को मजबूती देता है और उससे झलकती है भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सहिष्णुता । और जो काम गुरुद्वारे ने किया वह उनके सहिष्णुता आधारित संस्कार के कारण हुआ। गुरु तेग बहादुर और उनके चारों साहबजादे बहुत याद आते हैं ऐसा लगता है यह सब घटनाक्रम इतिहास में नहीं बल्कि हमारी आंखों के सामने हो रहा था। 16 महाजनपद भारतीय प्रशासनिक प्रबंधन व्यवस्था के मूल आधार थे। इन महाजनपदों में विश्व व्यापार विभिन्न महाद्वीपों में सत्ताओं के साथ अंतर्संबंधों के प्रमाण कोणार्क के सूर्य मंदिर में नजर आते हैं । आप जाकर देख सकते हैं । सनातन सार्वकालिक सहिष्णु है । इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। परंतु जब हम देखते हैं कि हमारी सामाजिक धार्मिक एवं एथेनिक व्यवस्था को खंडित किया जाता है तो हम विध्वंसक को किस तरह से दीर्घकाल तक स्वीकार कर सकते हैं।

वैसे इन दिनों हिंदू और हिंदुत्व जैसे शब्दों पर भी अल्प ज्ञानी विशद व्याख्या करने को उतारू हैं ! हिंदुत्व एक एब्स्ट्रेक्ट है हिंदुत्व को हिंदू जब एग्जीक्यूट करता है तो वह विभिन्न प्रकार से परंपराओं, रीतियों, और आज्ञाओं का परिपालन करता है। इसमें कहां हिंसा है बताएं शायद कहीं भी नहीं। जब हिंसा नहीं है तो दिवाली होली दशहरा जैसे पर्व टारगेट किए जाते हैं। मात्र 4 दिन का दीपावली पर्व पर मुख्य रूप से झोपड़ियों से अट्टालिकाओं को ज्योतिर्मय करना कहां प्राकृतिक छेड़छाड़ है। हां पटाखे चलाए जाते हैं। इन पटाखों से अवश्य कुछ प्रतिशत पर्यावरण प्रभावित होता है परंतु उपभोक्तावादी वैश्विक सामाजिक व्यवस्था के लिए जो कारखाने खोले गए हैं उनका क्या ?

मामला 365 दिनों का अगर है तो जायज है सवाल उठाना ! परंतु केवल पर्व को दोषी साबित कर देना अथवा होली पर पानी की कमी का रोना रोना क्या सनातनीयों को टारगेट करने का प्रयास नहीं है। सनातन तो नहीं कहता कि किसी पर्व पर पशुओं की बलि देना इकोसिस्टम को गंभीर रूप से प्रभावित करता है? फिर किस आधार पर हिंदुत्व दूषित है या दोषपूर्ण है या उस पर अंगुलियां उठाई जाती हैं। सामाजिक व्यवस्था में हमारी परंपराओं एवं हमारे एथेनिक संकेतों को लक्षित करना न केवल अन्याय है बल्कि हिंदुओं पर अघोषित प्रहार भी है। तथाकथित बुद्धिजीवियों को समझ लेना चाहिए कि- यज्ञ और साधनाएं जिसमें हवन शामिल हैं से पर्यावरण संरक्षण होता है। कोशिश करें समझने की.., कि सनातन क्या है हर बात में सियासत अच्छी नहीं ।

समाज समाज की परंपराएं उस क्षेत्र की जलवायु भौगोलिक परिस्थिति एवं वहां रहने वाले लोगों की प्राचीन से परिष्कृत होते हुए वर्तमान तक की सामाजिक आर्थिक व्यवस्था से बनती है। भारत कृषि प्रधान देश रहा है उसकी अपनी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था एवं प्रणाली है जो दिनोंदिन परिमार्जित होती रहती है। जबकि कुछ व्यवस्थाएं बदल ही नहीं पातीं । परिस्थिति जो भी हो अपनी राजनीतिक लक्ष्यों को साधने के लिए सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ना बहुत बड़ा अपराध होगा और आने वाली नस्लें ऐसे किसी प्रयास को माफ नहीं कर सकती ।