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सामाजिक क्रांति के अवयव

संघ(केंद्र) और राज्यों(इकाई) के बीच शक्तियों का विभाज्य होना संघात्मक संविधान का मौलिक अवयव है।यह विभाजन एक संविधान द्वारा किया जाता है जो राज्य (देश) की सर्वोच्च विधायन होता है।

सरकारों (विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का विभाजन एक लिखित संविधान(प्रायः संविधान को ही ईश्वर कहा जाता हैं;क्योंकि जो व्यक्ति व नागरिक को सुरक्षा,संरक्षा,औषधि एवं जीवन की सुरक्षा प्रदान करते हैं)। भारत का संविधान समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुता को प्रदान करने वाली जीवंत दस्तावेज हैं,अर्थात किसी व्यक्ति व नागरिक को उसके धर्म ,जाति, लिंग एवं समुदाय से विभाजित नहीं किया जा सकता है, सभी व्यक्तियों एवं नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकार के अव्यावहारिक पहलु पर नियंत्रण एवं शोषणपरक कार्यों पर प्रभावी नियंत्रण करना होता है।

समाज में बदलाव तर्कसंगत और न्याय संगत होने चाहिए ,बदलाव सबके हित में होने चाहिए, सबके भविष्य की आवश्यकता को देखते हुए होने चाहिए। हमारा देश महान संतों की कर्मस्थली रहा है ,जो मानवीय सेवा को ईश्वरी सेवा मानते थे। इन व्यक्तियों का मानना था कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का अंश होता है एवं इस मानवीय अंश की सेवा ही ईश्वरीय सेवा है। इन महान व्यक्तियों के विचारों की उपादेयता इनके परवरिश ,संस्कार और भारतीय दर्शन के निरंतर अध्ययन से भारतीय समाज में विधि का शासन सामाजिक संस्कारों के आधार रहे हैं।भारत के लोकतंत्र में “विधि राजाओं का राजा है,यानी विधि सर्वोपरि है”। सदियों से चली आ रही लोक आस्था ,परंपरा ,संसदीय मूल्यों की सहमति पर आधारित शासकीय व्यवस्था भारत के न्यायपालिका पर अपार आस्था का सर्वोच्च मूल्य है। 140 करोड़ भारतवासियों ने न्यायपालिका द्वारा दिए गए फैसले पर अपनी आस्था ,लोकतांत्रिक विश्वास एवं न्यायिक आस्था में विश्वास व्यक्त किए हैं।लोकतांत्रिक भावना को बिधायी, कार्यकारी एवं न्यायिक अंगों ने स्वीकार किया है, इन मूल्यों की उपादेयता पर डॉक्टर बी. आर आंबेडकर जी ने कहा है कि “संविधान एक कानूनी दस्तावेज नहीं है,यह जीवन को अग्रसर करने का माध्यम है, और इसका आधार हमेशा ही विश्वास व सहमति रहा है।”.

भारत में करीब 1500 पुराने कानूनों को समाप्त किया है, जिनकी वर्तमान समय में प्रासंगिकता एवं उपादेयता नहीं है ।इसी अनुपात में समाज में निर्माण होने वाले कानूनों को बढ़ाया गया है।एलजीबीटी (LGBT) व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़ा कानून हो, तीन तलाक से जुड़ा कानून हो या दिव्यांग जनों से जुड़ा कानून को भारत सरकार ने पूरी संवेदनशीलता एवं मानवता से काम किया है ।विकसित समाज लैंगिक न्याय (zender just world) के द्वारा ही सामाजिक समता के प्रत्यय को स्थापित कर सकता है ।सामाजिक समता के द्वारा ही न्यायपालिका न्यायप्रियता का दावा कर सकता है। भारत का संविधान (भू-भाग का सर्वोच्च विधान है ,धरती पर ईश्वर की शुभ यात्रा एवं नागरिक समाज को नियंत्रित करने का प्रलेख है ).लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करता है।

भारत संसार के सभी लोकतांत्रिक एवं सभ्य देशों में से एक है, जिसने स्वतंत्रता के पश्चात ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार (संवैधानिक अधिकार) प्रदान किया है। महिलाओं की भागीदारी सर्वोच्च स्तर पर है।’ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सफलतम अभियानों के कारण भारत के शैक्षिक संस्थानों में महिलाओं का नामांकन लड़कों से ज्यादा हो चुका है। भारत संसार के लोकतांत्रिक राज्यों में से एक है जो महिलाओं को देश की करियर वुमन को 26 सप्ताह का वैतनिक अवकाश प्रदान करता है।

(लेखक प्राध्यापक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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