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अविश्वास प्रस्ताव के बहाने टूटा विपक्ष का आत्मविश्वास

बड़ी पुरानी कहानी है संसद में विश्वास और अविश्वास की, किन्तु आज लाया गया अविश्वास प्रस्ताव जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष का वक्तव्य ही उन्हें और समूचे विपक्ष के आत्मविश्वास को डिगा गया।

भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार अगस्त 1963 में जे बी कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार के ख़िलाफ़ रखे गए इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 वोट पड़े और विरोध में 347 वोट। पहला अविश्वास प्रस्ताव नेहरु सरकार के ख़िलाफ़ आया,तब से लेकर अब तक संसद में 25 बार अविश्वास प्रस्ताव रखे जा चुके हैं।

चौबीस बार ये प्रस्ताव असफल रहे हैं लेकिन 1978 में ऐसे एक प्रस्ताव ने मोरारजी देसाई सरकार को गिरा दिया। वैसे मोरारजी देसाई सरकार के ख़िलाफ़ दो अविश्वास प्रस्ताव रखे गए थे, पहले प्रस्ताव से तो उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन दूसरे प्रस्ताव के समय उनकी सरकार के घटक दलों में आपसी मतभेद थे।

अपनी हार का अंदाज़ा लगते ही मोरारजी देसाई ने मतविभाजन से पहले ही इस्तीफ़ दे दिया था, खैर तब से ही यह राजनीतिक व्यवस्था कारगार भी हुई और कामगार भी। परन्तु जिस हास-परिहास के साथ आज यह प्रस्ताव लाया गया, उससे तो सिद्ध हो गया कि विपक्ष के पास नेतृत्व की कमी है, नेता ठीक चुनते तो सहज और सार्थक बहस होती।

नब्बे के दशक में विश्वनाथ प्रताव सिंह, एच डी देवेगौड़ा, आई के गुजराल और अटल बिहारी की सरकारें विश्वास प्रस्ताव हार गईं। 1979 में ऐसे ही एक प्रस्ताव के पक्ष में ज़रूरी समर्थन न जुटा पाने के कारण तत्काली प्रधानमंत्री चरण सिंह ने इस्तीफ़ दे दिया।

संसद में जब जुलाई की 20 तारीख को विपक्ष द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर बहस शुरु हुई तो पहले दौर में राहुल गांधी के तर्कों से गंभीरता झलक रही थी, फिर आँख मारने और प्रधानमंत्री से झप्पी लेने के साथ ही कुतर्कों को दौर शुरु हो गया, और फिर रक्षा मंत्री पर बेवजह के आरोप और फिर फ्रांस को घसीटना, जिस पर फ्रांस को भी बयान जारी करना पड़ा, ये शर्म से राष्ट्र को पानी-पानी कर गया।

समय के बहाने समय से सिखने वाले भी नौसिखिए की तरह जब देश के सर्वोच्च सदन में ठीठोली कर रहे थे, तब देश का करदाता अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को बर्बाद होते देख कर केवल रो ही रहा होगा। क्या इस दिन के लिए ही चुना था 545 को हमने, जिसमें से 90 से अधिक शामिल भी नहीं हुए देश के सर्वोच्च दिवस पर।

राष्ट्र से बढ़कर विरोध है, वो भी बेवजह।

आखिर विपक्ष को पुनर्रावलोक करना चाहिए, क्योंकि इस अविश्वास प्रस्ताव ने विपक्ष को कमजोर करने से साथ-साथ में आत्मविश्वास को भी तोड़ गया।

आम चुनाव के पहले देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले है, ऐसी स्थिति में राहुल गांधी का बचपना और हास्यास्पद गैरजिम्मेदाराना व्यवहार देश की उम्मीद को आहत करता है।

देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल के मुखिया का यह व्यवहार समूचे विपक्ष को हताश करते हुए अपने मंतव्य पर पुन: विचार करने का न्यौता देता है, साथ ही मोदी को अधिक अहम में जाने का बल भी, क्योंकि देश इन्हें तो नहीं चुन सकता मोदी के सामने। एक तीर से कई निशान करने में माहिर मोदी जी को हौसला मिला है इस अविश्वास प्रस्ताव से।

सत्ता के केंद्र को अविश्वास प्रस्ताव का जितना भय नहीं था उससे तो कही अधिक विपक्ष हतोत्साहित नजर आया। कांग्रेस द्वारा राहुल गाँधी से अविश्वास प्रस्ताव पर बहस करवाना और उसके बाद राहुल का बचकाना व्यवहार निश्चित तौर पर एक गंभीर पटल को नजरअंदाज कर गया।

राहुल शायद अविश्वास प्रस्ताव के महत्व को जानते नहीं है, ये वही अविश्वास प्रस्ताव है जिसने मोरार जी देसाई से अटल जी को भी सत्ता छोड़ने पर विवश कर दिया था। राहुल की अल्पबुद्धि और हास्यास्पद क्रीड़ाओं ने सदन की गरिमा को तार- तार करने के साथ मर्यादाओं का भी उलंघन किया है। अविश्वास प्रस्ताव की बहस के बाद कांग्रेस फिर १ साल पीछे चली गई, अब उसे पुन: आत्ममंथन के दौर से गुजरना होगा और शक्तियों का एकत्रीकरण करना होगा वर्ना आम चुनाव में हार तय है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

पत्रकार एवं स्तंभकार

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[लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]