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प्रकृति और शिल्प का संगम मिनी खजुराहो दलहनपुर

राजस्थान के झालावाड़ जिले में स्थित दलहनपुर कभी शैव, शाक्त और वैष्णव मतों के साथ पाशुपत मत की तंत्र साधना का केंद्र था। यह स्थल झालावाड़ इकलेरा सड़क मार्ग पर करीब 54 किमी. दूर स्थित बोरखेड़ी ग्राम से 10 किमी. दक्षिण में छापी नदी के के किनारे ऊंचे टीले पर स्थित है। यहां नदी पर खूबसूरत छापी बांध भी बनाया गया है जिससे यह स्थल अधुनातन और पुरातन संस्कृति का दर्शनीय केंद्र बन गया है। यहां पुरातत्व के साथ नदी और वन का दृश्य खूबसूरत दिखाई देता है। पुरातत्व विभाग ने इसे पर्यटन स्थल के रूप में उभारने के लिए जीर्णोधार कर आकर्षक बनाने का प्रयास किया है। यहां खजुराहो के सदृश्य कामकला युक्त मूर्तियां उत्कीर्ण होने से से इसे मिनी खजुराहो भी कहा जाता है।

यहां क्षेत्र पर सबसे पहले एक शिव मंदिर के दर्शन होते हैं। इसके आगे अत्यंत कलात्मक स्तंभ युक्त दो बड़े मंडप दिखाई देते हैं। इन मंडपों के सभी उपंगों पर चप्पे – चप्पे पर मूर्तियां जड़ी हैं। स्तंभों के शीर्ष पर भार साधक कीचक बने हैं। स्तंभों पर देवी – देवता, यक्ष, किन्नर, नरमुंड,नवग्रह, गणेश,विष्णु, कलश के साथ गजधर, नरथर,अश्वथर के साथ – साथ कामकला और नारी श्रंगार युक्त लघु मूर्तियां उत्कीर्ण की गई हैं। सभी मंडपों में शैव कापालिकों की मूर्तियों का अंकन भी किया गया हैं। स्तंभ और मूर्तियां इतनी कलात्मक हैं कि पर्यटक अपलक निहारता रह जाए। कह सकते हैं की देखने वाले इनके स्मोहन में इतने खो जाते हैं मानो सम्मोहित हो गए हो। बताया जाता है यहां कभी 7 मंडप थे पर आज केवल दो मंडप ही शेष रह गए हैं।

मंडपों के आगे चलने पर आता है विशाल बलुए लाल पत्थर से बना मठ का दुमंजिला मुख्य भवन। यह भवन करीब एक सो स्तंभों पर टिका हैं। प्रवेश कर एक बड़ा चौंक आता है जिसका एक छोटा प्रवेश द्वार है जिसे बंद कर दिया गया है। इस द्वार के उस तरफ बड़े पैमाने पर साधना स्थल बनाए गए हैं। मठ में बाईं ओर, इसके ऊपर और आसपास कुछ कक्ष बने हैं जिनमें साधक निवास करते होंगे। कक्षों के द्वार पर गणेश मूर्ति का अंकन किया गया है। मठ के आधार स्तंभों पर मिथुन मूर्तियां बनाई गई है। मठ के बाहर छोटे चबूतरे पर कपालमुखे तांत्रिकों की मूर्तियां भी रखी गई हैं। मठ के दाहिनी ओर वैष्णव मत का भगवान लक्ष्मी नारायण का मंदिर है जिसका निर्माण कोटा महाराव माधोसिंह ने करवाया था। मंदिर के शीर्ष और दोनों तरफ सुंदर छतरियां और दीवारों पर हाड़ोती कला शैली के प्रभाव वाले धार्मिक देवी – देवताओं के चित्र बने हैं। बताया जाता है दलहनपुर शैव साधकों की कापालिक तंत्र साधना का महान केंद्र था जो महादेव को अपना आराध्य मानते थे।

इस स्थल को पर्यटन केंद्र के रूप में उभारने ओर जीर्णोधार के लिए पुरातत्व विभाग द्वारा 4 करोड़, 65 लाख रुपए की लागत से मठ के परकोटे के अंदर कार्य कराए गए हैं। परकोटे के अंदर मंदिर, स्तम्भ, प्रतिमाएं, शिलालेख, दीवारें, द्वारों का जीर्णोद्वार कर गेटों व खिडकियों पर किवाड़ आदि लगवाए हैं। पर्यटकों को नदी किनारे से प्राकृतिक सौंदर्य निहारने के लिए पत्थर की बैंचें आदि व कार्यक्रम आदि करवाने के लिए मंच का निर्माण किया गया है। बाहर बिखरी मूर्तियों को को संरक्षित किया जाना भी आवश्यक है।

पुरातत्व विभाग के अनुसार दलहनपुर को 13वीं – 14वीं शताब्दी में देलाशाह नामक श्रेष्ठी बसाया था। दलहनपुर के कई मंदिर हजार वर्ष पुराने हैं। बाद के काल खंड़ो में यहां कई मंदिरों, मठो व बावडिय़ों का निर्माण हुआ जिनके अवशेष आज भी यहां पाए जाते हैं।

झालवाड़ जिले के इतिहासविद ललित शर्मा बताते हैं कि 1161 ईस्वी में यहां के मठाधीश पालक श्रीदेव साहु थे। दलहनपुर प्रचाीन भारतीय शिल्पकला के उस युग का बोध कराता है जब शैव मठों में तंत्र , दर्शन और साधना के साथ कला और स्थापत्य का भी विकास हुआ था। दलहनपुर पर आपने विस्तृत शोध किया है।( विस्तृत जानकारी के लिए इनकी शोध पुस्तक “झालावाड़ के ऐतिहासिक एवं दर्शनीय स्थल” पढ़ सकते हैं।)

(लेखक राजस्थान के जनसंपर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं )