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भ्रष्टाचार तो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है

भ्रष्टाचार के होने के कारण अस्तित्व में छिपे हैं। यह कोई सिद्धांतों की बात नहीं है। और नेतागण चिल्लाते रहे हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, वे चाहे जो इंतजाम करें। वे जो भी इंतजाम करेंगे वही भ्रष्टाचारी हो जाएगा। और मजा तो यह है कि वह जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं।

जिस देश में इतनी गरीबी हो उस देश में सदाचार हो सकता है, यह चमत्कार होगा। यह संभव नहीं है। जहां जीना इतना कठिन हो, वहां आदमी ईमानदार रह सकेगा, यह मुश्किल है। हां, एकाध आदमी रह सकता है। कोई संकल्पवान रह सकता है, लेकिन इतना संकल्प सबके पास नहीं है और इसके लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।

जिंदगी में जहां जीने के लिए बेमानी शर्त बनाना पड़ता हो-यहां इतने बड़े कमरे में हम सारे लोग बैठे हैं और यहां बीस-पच्चीस रोटी हों और हम सब भूखे हों तो आप सोचते हैं, शिष्टाचार बचेगा? और वह शिष्टाचार, अगर नहीं बचा, तो क्या इस भवन को आप गाली देंगे कि यह भवन भ्रष्टाचार पैदा करवा रहा है? भ्रष्टाचार भवन पैदा नहीं करवा रहा है! भ्रष्टाचार! पच्चीस रोटियां और पच्चीस सौ खाने वाले भूखे हैं, इनकी वजह से भ्रष्टाचार पैदा हो रहा है। इस कमरे का कोई कसूर नहीं है, भवन का कोई कसूर नहीं, यह पूंजीवाद कि व्यवस्था का कोई कसूर नहीं है कि भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार का कारण दूसरा है। भ्रष्टाचार का कारण यह है कि भूख ज्यादा है, रोटी कम है। नंगे शरीर ज्यादा हैं, कपड़े कम हैं। आदमी ज्यादा हैं, मकान कम हैं। जीने की सुविधा कम है, और जीने वाले रोज बढ़ते चले जा रहे हैं। इसके बीच जो तनाव पैदा होगा, वह भ्रष्टाचार ले आएगा। इस भ्रष्टाचार को कोई नेता नहीं मिटा सकता। क्योंकि नेतागण सोचते हैं कि जैसे भ्रष्टाचार को मिटाना। वह जिस ढंग से सोचते हैं, कोई साधु-सेवक-समाज बना लेता है कि इससे हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे।

कुछ ऐसा लगता है कि हम जिंदगी के गणित को सीधा देखने से चूक ही जाते हैं। साधु-सेवक-समाज बनाने से क्या भ्रष्टाचार मिटा दोगे? ये साधु जाकर सारे मुल्क को समझायेंगे कि भ्रष्टाचार मत करो। तो क्या भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा? यह समझाने का मामला है कि भ्रष्टाचार मत करो!

यह समझाने कि बात होती तो हम करते ही न, यह समझाने की बात नहीं है। यह जीने का-’एक्जिस्टेन्शियल’ प्रश्न है। यहां अस्तित्व खतरे में है। यह प्रवचन से हल होने वाला नहीं है कि सारे हिंदुस्तान के साधु गांव-गांव जाकर समझाएं कि भ्रष्टाचार मत करो। तो बस भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा। यहां कोई शिक्षा कि कमी नहीं है और न प्रवचनों कि कमी है। और यह न होगा कि बच्चों को गीता और रामायण कंठस्थ करवा दें तो भ्रष्टाचार मिट जाएगा कि नैतिक शिक्षा दे दें, हर स्कूल में। पढ़ लेंगे गीता को, रामायण को, भ्रष्टाचार नहीं मिट जाएगा। क्योंकि भ्रष्टाचार के होने के कारण अस्तित्व में छिपे हैं। यह कोई सिद्धांतों की बात नहीं है। और नेतागण चिल्लाते रहे हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, वे चाहे जो इंतजाम करें। वे जो भी इंतजाम करेंगे वही भ्रष्टाचारी हो जाएगा। और मजा तो यह है कि वह जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढियाँ पार करनी पड़ती हैं।

अब यह इतना जाल है कि सिद्धांतों से होनेवाला नहीं है। इस जाल की बुनियादी जड़ को पकड़ना पड़ेगा और अगर हम जड़ को पकड़ लें तो बहुत चीजें साफ हो जाएं। हमें मान लेना चाहिए कि आज के भारत में ईमानदार की बात करना बेकार है। न नेता को करना चाहिए, न साधु को करना चाहिए। हमें मान लेना चाहिए कि बेईमानी नियम है। इसमें झंझट नहीं करनी चाहिए। इसमें झगड़ा खड़ा नहीं करना चाहिए। तब कम से कम बेईमानी सीधी साफ तो हो सकेगी। यानी मुझे आपकी जेब में हाथ डालना है तो मैं सीधा तो डाल सकूंगा। नाहक आप सोयें और रात में आपके घर मैं आऊं, जेब में हाथ डालूं और फिर सुबह मंदिर जाऊं और व्याख्यान करूं कि चोरी करना पाप है। यह सब जाल की जरुरत नहीं है। हिंदुस्तान में बेईमानी जो है आज की समाज-व्यवस्था में, अगर न हो, तो या तो समाज-व्यवस्था टूट जाये, या तो हम मर जाएं। बेईमानी इस वक्त लुब्रिकेटिंग का काम कर रही है। वह लुब्रिकेशन है। वह जरा पहिये को तेल दे देती है और चलने लायक बना देती है। अगर यह मुल्क कसम खा ले ईमानदार होने की, तो मर जाये। वह जिंदा नहीं रह सकता है और जिन लोगों ने कसम खा ली ईमानदारी की उनसे आ आप पूछ लो कि वे जिंदा हैं कि मर गए। उनकी आवाज शायद ही निकले, क्योंकि वे मर ही चुके होंगे।

भ्रष्टाचार हमारी इस समाज-व्यवस्था में, हमारी इस समाज कि दीनता और दरिद्रता में, हमारे समाज की इस भुखमरी हालत में इस यंत्रविहीन अनौद्योगिक संपति शून्य समाज में अनिवार्यता है। इसमें चिल्लाने की कोई जरुरत नहीं है, न किसी को गाली देने की जरुरत है।

मैं जापान की छोटी-सी किताब पढ़ रहा था शिष्टाचार के नियमों की। तो उसमें लिखा हुआ है कि किसी आदमी से उसकी तनख्वाह न पूछें। तब बहुत हैरान हुआ कि क्या मामला है। हमसे बड़े अविकसित मालूम होते हैं जापानी। हम तो तनख्वाह ही नहीं पूछते, यह भी पूछते हैं उससे कि कुछ ऊपर से भी मिलता है कि नहीं। यह बड़े पक्के गंवार मालूम पड़ते हैं। इनको इतना पता नहीं कि भारत जैसे सुसंस्कृत और सभ्य देश वहां आम तनख्वाह के ऊपर क्या मिलता है, यह भी पूछते हैं। न केवल पूछते हैं बल्कि बताने वाला बताता ही है कुछ भी नहीं मिलता है, थोड़ा ही मिलता है, कुछ ज्यादा नहीं मिलता। उस किताब में नीचे नोट लिखा हुआ है कि किसी से तनख्वाह पूछना अपमानजनक हो सकता है, क्योंकि हो सकता है उसकी तनख्वाह कम हो और उसे चार आदमियों के सामने तनख्वाह बतानी पड़े, या हो सकता है कि उसे इतना संकोच लगे कि उसे व्यर्थ झूठ बोलना पड़े, जितनी उसकी तनख्वाह न हो उतनी बतानी पड़े, इसलिए तनख्वाह नहीं पूछनी चाहिए।

इस मुल्क में हमें आज कि मौजूदा हालत में भ्रष्टाचार, रिश्वत इतनी बात नहीं पूछनी चाहिए। यह अशिष्टता है, घोर अशिष्टता है। यह सीधी साफ बात है, यह स्वीकृति होनी चाहिए। इसमें कोई झगड़ा नहीं करना चाहिए। हां, रह गई बात यह कि अगर हम इसे स्वीकार कर लें तो हम इसे मिटा सकते हैं। इसे हम स्वीकार कर लें तो इसकी बुनियादी जड़ों में जा सकते हैं कि बात क्या है। कोई आदमी अपनी तरफ से बुरा नहीं होना चाहता। बुराई सदा ही मजबूरी की हालत में पैदा होती है। हां, कुछ लोग होंगे जिनको बुरा होने में मजा आता है, वे रुग्ण हैं। उनकी चिकित्सा हो सकती है। लेकिन अधिकतम लोग बुरा होने के लिए बुरा नहीं होते। जब जीना मुश्किल हो जाता है तब बुराई को साधन की तरह पकड़ते हैं।

जब इतनी बुराई है तो इस बात की यह खबर है कि मुल्क इस जगह खड़ा है जहां जीना असंभव हो गया है। इसलिए जीने को हम कैसे संभव बनायें? कैसे सरल बनायें? कैसे समृद्ध बनायें? यह सोचना चाहिए। भ्रष्टाचार कैसे मिटायें यह सोचिये ही मत। आप सोचिये कि जीवन को कैसे समृद्ध बनाएं। जीवन को कैसे सरल बनाएं। कैसे जीवन को गतिमान करें। जीवन कैसे रोज रोज समृद्धि के नए शिखरों पर पहुंचे, इसकी फिक्र करिए। भ्रष्टाचार वगैरह की व्यर्थ बकवास में मत पड़े रहिये।

-ओशो
भारत के जलते प्रश्न
प्रवचन- 14 से संकलित..