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आज देश को प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पध्दति की आवश्यकता

भारत की शिक्षा पद्धति को प्राचीनकाल में ज्ञान पद्धति कहा जाता था| यह समग्रतया वेद पर आधारित थी तथा वेद ही इस की विषय वस्तु थी| भाव यह है कि हमारी शिक्षा में वेद ही पाठ्यक्रम का भाग था तथा वेद के माध्यम से ही सब प्रकार की शिक्षा दी जाती थी| यह शिक्षा देने के लिए आज की भाँति स्कूल,कालेज नहीं थे| इन के स्थान पर गुरुकुल होते थे| इन गुरुकुलों में शिक्षा देने वाले आचार्यगण साधारणतया वानप्रस्थी ही होते थे| यह वानप्रस्थी अपने गृहस्थ जीवन में बहुत सा यश और कीर्ति प्राप्त कर चुके होते थे तथा वेदानुसार अपने जीवन के पचास वसंत पूर्ण कर गृह-त्याग करने के लिए वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करते थे| अब अपने परिवार के चन्द पुत्र-पुत्रियाँ ही नहीं समग्र संसार ही उनके परिवार का भाग होता था| अत: वह व्यक्तिगत परिवार का मोह छोड़ कर समग्र सृष्टि को ही अपना परिवार बनाकर सेवाभाव से अपने कार्य में जुट कर अपने शरीर को तपाने का अभ्यास आरम्भ करते थे|

इस सब से जो एक बात सामने आती है वह यह कि यह वानप्रस्थी लोग जब घर को त्याग कर समाज की सेवा की भावना से निकलते थे तो जिस प्रकार का ज्ञान उन्होंने अपने जीवन में एकत्र कर कार्य किया होता था, उस ज्ञान को बांटने का काम ही वह आरम्भ कर देते थे| इसके लिए वह न तो अपने शिष्यों अथवा उनके अभिभावकों से कुछ शुल्क लेते थे तथा न ही वह इसके लिए अपने राजा से ही कुछ अनुदान माँगते थे| मात्र शिष्यों को आदेश होता था कि वह अपने इस गुरुकुल परिवार के जीवन यापन के लिए निकटस्थ गाँव में जाकर भिक्षा लेकर आवें| जो भिक्षा वह लेकर आते थे, उसे गुरु को समर्पित कर देते थे| इस भिक्षा से ही शिष्यों का तथा इस भिक्षा से ही गुरु का भरण-पौषण होता था| गुरुकुल, जो उस समय का शिक्षा केंद्र होता था, यह शिक्षा का केंद्र आज के समान बड़े सुन्दर भवनों में न हो कर गुरु की अपनी आवासीय झोंपड़ी अथवा कुटिया में होता था, जो जंगल की लकड़ियों व घास फूस से बना ली जाती थी| यह गुरुकुल प्राय: जंगलों में, पहाड़ों की तलहटियों से सटे हुए अथवा किसी नदी के संगम पर या किनारे पर होते थे |

इस प्रकार के प्रकृति की गोद में रहते हुए वह अपने शिष्यों की ज्ञान की पिपासा को शांत करते थे| प्राकृतिक दृश्य, जंगल के पशु पक्षियों की कलरव ,सांय–सांय करती वायु, कल-कल करते बहता हुआ झरनों का जल प्रकृति की छटा को सब और बिखेर देता था| प्रकृति की इस छटा में ज्ञान देने व लेने का आनंद ही कुछ और होता था| इन जंगलों, पहाड़ों,तलहटियों तथा नदियों के संगम स्थानों पर विचरण करने से ज्ञान पिपासुओं के शरीरों में फुर्ती आ जाती थी, ओज व तेज पैदा होता था तथा बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती थी| सब ज्ञान वेद के नियमों तथा आदेशों के अनुसार दिया जाता था| इससे आज जो कुछ महीनों में पढ़ा जाता है, उसे वह दिनों में ही पा लेते थे| यह ही कारण था कि विश्व भर के ज्ञान पिपासु बालक इस देश में आ कर अपने ज्ञान की पिपासा को शांत करने का यत्न करते थे तथा इस कारण ही भारत को जगत् गुरु कहा जाता था |

हमारे देश में गुरुकुलों की सब आवश्यकताएं भिक्षा से ही पूर्ण होती थी तथा इन गुरुकुलों की आवश्यकताएं भी सीमित सी ही होती थीं क्योंकि साधारण से झोपड़ों में रहकर यह शिक्षा दी जाती थी| पहनने को एक अंग वस्त्र तथा एक कटी वस्त्र होता था| इतनी सीमित आवश्यकताओं को भी पूर्ण करने के लिए शिष्यों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था तथा न ही राजा से किसी प्रकार की सहायता ली जाती थी| इतना सब कुछ होने पर भी शिक्षा पूर्णतया निशुल्क ही होती थी |

गुरु अपने विषय का मर्मज्ञ होता था तथा शिष्य पूर्ण लगन व उत्साह से शिक्षा पाने व अभ्यास करने में लगे रहते थे| वह अपने गुरु का बहुत आदर करते थे तथा उसकी प्रत्येक आज्ञा को प्रभु आज्ञा मानकर उसका पालन करते थे| गुरु भी अपने ज्ञान की प्रत्येक बूंद तक अपने शिष्य को अर्पित करने में कुछ भी कमीं नहीं आने देते थे| वह अपने गुरुकुल के प्रत्येक बालक को अपनी ही संतान मानते हुए, उनका पालन करते थे तथा उन्हें सच्चा ज्ञान देने में सदा तत्पर रहते थे|

अंग्रेजी सत्ता काल में शिक्षा की विधि बदल दी गयी| जिस गुरुकुल पद्धति से ज्ञान के मर्मज्ञ तथा देशभक्त शिष्य पैदा होते थे वहीँ अंग्रेज द्वारा आरम्भ की गई शिक्षा से क्लर्क पैदा होने लगे| देश के स्वाधीन होने पर भी इस शिक्षा पद्धति को ही अपनाया गया| परिणाम स्वरूप आज की शिक्षा राजाश्रित हो कर सरकार की टाऊट बनकर ही रह गई है| आज का विद्यार्थी पैसा देकर अर्थात् फ़ीस देकर शिक्षा पाता है तथा आज का अध्यापक चंद सिक्कों के लिए बिक गया है| सरकार का इस शिक्षा में प्रतिक्षण हस्तक्षेप होने से भी शिक्षा का सत्र निरंतर गिरता ही चला जा रहा है| जब तक हमारी शिक्षा वेदानुसार रही तब तक सब ठीक रहा, ज्यों ही इस शिक्षा से वेद निकल गया त्यों ही यह शिक्षा बेकार हो गई|

आज की भारतीय शिक्षा अनेक समस्याओं से घिरी है | इस की संचालक सरकार को कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि इसे कैसे सुधारा जावे? अध्यापक के पास न तो इतनी शक्ति है और न ही सामर्थ्य कि वह इसके सुधार के लिए कुछ कर सके| विद्यार्थी जो कभी अपने गुरु के लिए जान तक दे देता था, आज अध्यापक को किसी प्रकार का सम्मान नहीं देता| इस प्रकार की बहुत सी समस्याएँ शिक्षा के क्षेत्र में आज मिलती हैं, जिनका समाधान खोजे बिना उत्तम शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो सकती| उत्तम शिक्षा की व्यवस्था कैसे की जावे? , हम क्या व्यवस्था करें कि हमारी शिक्षा पद्दति एक सर्वमान्य शिक्षा पद्धति बन जावे|

हम सब जानते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में परम पिता परमात्मा ने इस सृष्टि के लोगों के कल्याण के लिए एक ज्ञान दिया था| इस ज्ञान को वेद का नाम दिया गया| प्राचीन गुरुकुलों में इस ज्ञान का ही प्रसार किया गया तथा विश्व सत्य के आधार पर आगे बढ़ता गया| वेद में विश्व का समग्र ज्ञान समाहित था| इस ज्ञान के आधार पर हमारा विज्ञान भी अत्यधिक विकसित था| हम सब जानते हैं कि वन गमन के पश्चातˎ जब श्री राम सीता जी को अपने भाई लक्षमण की देख रेख में छोड़ कर सोने के हिरण को पकड़ने गए और मरते हुए हिरण ने ऊँचे स्वर में कहा कि हाय! लक्ष्मण भ्राता सहायता करो, मुझे बचाओ, यह सुनते ही सीता जी ने सहायता के लिए लक्षमण को जाने का आदेश दे दिया| इस अवस्था में लक्ष्मण- सीता माता की रक्षा के लिए कुटिया के चारों और एक रेखा खींच गया और जाते जाते यह भी बोल गया कि इस रेखा में आप पूर्णतया सुरक्षित रहेंगी| इससे बाहर किसी भी अवस्था में न निकलना|

यह लक्ष्मण रेखा क्या थी और आज हम इस प्रकार की रेखा बनाकर आज हम इसका लाभ क्यों नहीं उठा सकते| इस पर जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि आज भी इस रेखा का एक रूप हमें विज्ञान ने दे रखा है| इस रेखा को आज बारूदी सुरंग के नाम से जाना जाता है| इसे जमीन में दबा दिया जाता है| जब कोई व्यक्ति इस पर पैर रखता है तो यह विस्फोट कर देती है, जिससे इसे पार करने का यत्न कर रहा व्यक्ति या तो मारा जाता है या फिर बुरी तरह से घायल हो जाता है| यह रेखा अपने और पराये को पहचान नहीं कर पाती| इस रेखा पर इसे बिछाने वाले का पैर भी आ जाता है तो भी इसमें विस्फोट हो जाता है और शत्रु आता है तो भी विस्फोट होता है किन्तु लक्ष्मण रेखा की यह विशेषता थी कि कुटिया के अन्दर से निकलने वाला व्यक्ति जब बाहर आता था तो यह उसे पहचान लेती थी और किसी प्रकार का कोई विस्फोट नहीं करती थी किन्तु बाहर से आने वाला व्यक्ति ज्यों ही इसे पार करने का प्रयास करता, चाहे वह भूमि पर पाँव रखकर करता या फिर कूद कर पार करने का प्रयास करता, वह निश्चय ही जल कर भस्म हो जाता था| आज के वैज्ञानिक युग में अब तक एसा कोई विस्फोटक नहीं बन पाया, जो अपने और पराये को पहचान सके और केवल शत्रु को ही मारे अपनों को कुछ न होने दे| फिर हम कैसे कह सकते हैं कि आज का वैज्ञानिक युग उन्नत है और उस समय नहीं था?

हम यह भी देखते हैं कि हनुमान ल˙का से चलकर एक रात्री में आने और जाने का कार्य करके जड़ी बूटी ले आये थे, पाताल से अहि रावण के पास से श्रीराम लक्षमण को छूड़ा लाये थे, श्रीराम लंका से चलकर रावण वध के पश्चात् सीता जी को लेकर कुछ घंटों में ही अयोध्या पहुँच गए थे| यह सब कैसे संभव हो पाया| स्पष्ट है कि यह सब हवाई जहाज से ही संभव हुआ था| इस का स्पष्ट संकेत है कि उस समय हवाई जहाज भी चला करते थे| उस समय की निर्माण कला पर विचार करें तो हम देखते है कि रामेश्वरमˎ से श्रीलंका तक का आठ योजन का पुल केवल छ: दिनों में ही निर्माण हो गया, जिसे यदि आज बनाया जावे तो हम दस वर्ष में भी इस कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते| इससे यह स्पष्ट होता है कि उस युग के इंजीनियर भी आज के युग के इंजीनियर से कहीं अधिक ज्ञान रखते थे और यह ज्ञान उन्हें वेद से ही मिला था| लक्षˎमण को मृत्यु से निकाला गया संजीवनी बूटी देकर, इससे यह भी पता चलता है कि जब शिक्षा का आधार केवल वेद ही थे तो हमारा शरीर विज्ञान अथवा मेडिकल विज्ञान भी आज के विज्ञान से कहीं अधिक उन्नत था|

महाभारत पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो इस युद्ध में भी हमें बहुत से विनाशक शस्त्र मिलते हैं, जिनके प्रतिस्पर्द्धि शस्त्र आधुनिक विज्ञान अब तक नहीं बना सका| रामायण और महाभारत काल में तलवार और बाण ही युद्ध का साधन थे| इन को चलाने से भयंकर विस्फोट होता था, आग निकलती थी| क्या धनुष से निकले बाण आग उगलते हुए जा कर महा विनाश कर सकते हैं? कभी नहीं, तो यह सब क्या था? विचार करने पर पता चलता है कि यह बाण वास्तव में गोलियां और बम ही होते थे| महाविनाशक शस्त्रों अथवा बाण को आज हम तोप,मिजाइल अथवा एटम बम कहते हैं| आज भी हमारे निकटवर्ती इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें बहुत सी तोपें मिलती हैं, जो प्राचीन किलों में सुरक्षित पड़ी हैं और जिन्हें बाण के नाम से पुकार जाता है| इस प्रकार की एक तोप जयपुर के जयगढ़ नामक दुर्ग में पड़ी है| इस तोप को वहीँ पर ही बनाया गया था, जहाँ वह आज भी पड़ी है| अत्यधिक भारी होने के कारण इसे वहां से हटाया नहीं जा सकता| इस तोप का नाम जयबाण है| यदि आज हम किसी तोप को बाण नाम से पुकार सकते हैं तो क्या श्री राम और श्री कृष्ण के काल में इन्हें बाण नहीं कहा जा सकता था? निश्चय ही इस प्रकार के भयंकर विस्फोटकों का नाम बाण दिया गया होगा, जो बहुत दूर से ही मार करने में सक्षम थे| इस प्रकार विस्फोटक पदार्थों को बनाने के क्षेत्र में भी हमारा प्राचीन वैदिक काल आज के वैज्ञानिक अनुसंधानों से कहीं अधिक उन्नत रहा है|

महाभारत के युद्ध के पूर्व हमारी राजनीति का केंद्र हस्तिनापुर था, जो दिल्ली के निकट पड़ता है और यह युद्ध पानीपत के मैदान में हुआ था, यह भी दिल्ली के पास ही पड़ता है जबकि श्री कृष्ण जी द्वारका रहते थे, जो वर्तमान कर्नाटक का भाग है| श्री कृष्ण जी लगभग प्रतिदिन द्वारका जाते थे और फिर इनसे बातचीत करने , इनका मार्ग दर्शन करने हस्तिनापुर आते थे| क्या वह रथ से प्रतिदिन आ या जा सकते थे? नहीं| तो फिर कैसे आते जाते थे? इससे स्पष्ट होता है कि आज का वायुयान उस समय भी प्रयोग में था|

यदि हमारे पास यह सब कुछ था तो आज यह सब कहाँ लुप्त हो गया और आज तो हमें इससे कुछ अधिक उन्नत होना चाहिए था किन्तु हम तो पीछे जा रहे हैं| इसका कारण है जब से वेद को छोड़ा, तब से ही हमारी शिक्षा का नाश हुआ| इसलिए निश्कर्ष निकाला गया कि आज की शिक्षा की सब समस्याओं का समाधान केवल और केवल वेद में ही है, प्राचीन शिक्षा को अपनाने में ही है| वेद के अनुसार शिक्षा देने पर ही ज्ञान की ज्योति पुन: जग सकती है, भारत एक बार फिर विश्व गुरु बन सकता है| इसके लिए हमारी प्राचीन आश्रम व्यवस्था को पुनर्जीवित करने की भी आवश्यकता है| शिक्षानीति को राजकीय आश्रय से निकाल कर इसे निशुल्क तथा वानप्रस्थ बनाने की मह्तीय आवश्यकता है| यह तब ही संभव हो पावेगा, जब शिक्षा देने के लिए नियमित रूप से देश के सब नागरिक, चाहे वह राजा हो या प्रजा, सब एक निश्चित आयु में अपना सब कुछ त्याग कर अपने आपको देश अथवा समाज को समर्पित कर दें और निशुल्क सेवा करते हुए भावी पीढी को सुशिक्षित करे और इस शिक्षा का आधार पुन: वेद को ही बनाया जावे|

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि हमारी प्राचीन वैदिक शिक्षा पद्धति एक उन्नत, अनुकरणीय, सर्वातोमुखी शिक्षा पद्धति थी, जो गुरुकुलाश्रित थी| गुरुककुल में प्रवेश करते समय शिक्षार्थी बालक का नियम पूर्वक संसकार उसके घर पर होता था और फिर गुरुकुल में जा कर उसका गुरु एक बार फिर उसका वेदारम्भ संस्कार करता था और अपने शिष्य को यज्ञोपवीत धारण कराता था| जिस बालक के गले में यज्ञोपवीत दिखाई देता था तो किसी को भी समझने में देर नहीं लगती थी की यह बालक किसी गुरु के पास शिक्षा प्राप्त कर रहा है| हमारी यह पद्धति आधुनिक विज्ञान से बहुत आगे की और स्वेच्छा से शिक्षा दान करने की थी, निस्वार्थ भाव से छोटे बड़े का भेद किये बिना सब को समान शिक्षा का दान करती थी| इस कारण ही इस से गौतम, कणाद, याज्ञवल्क्य, गार्गी, मैत्रेयि जैसी महानˎ विदुषी, देश सेवक पुरुष और महिलायें, ऋषि और देवऋषि इस देश को मिले, जिन्होंने ज्ञान के प्रचार और प्रसार के लिए कभी राजा की और मुख न करते हुए स्वयं के सामर्थ्य से कार्य किया और उस समय के राजा लोग भी इनके चरणों में बैठते थे|

अत: हमारी प्राचीन वैदिक शिक्षा पद्दति विश्व की सर्वोत्तम शिक्षा पद्धति है, जब से इसमें से वेद को अलग किया गया है, तब से उन्नति के मार्ग या टतो अवरुद्ध हो गए हैं या फिर मंद पड गए हैं| उस पद्धती के कारण विश्व भर के देशों के बालक यहाँ शिक्षा पाने आते थे और भारत को विश्वगुरु के नाम से जाना जाता था| आज आवश्यकता है एक बार वह युग लौटाने की| इसके लिए वैदिक शिक्षा पद्धति फिर से लौटाने की आवश्यकता है और आश्रम व्यवस्था को अनिवार्य करने की भी आवश्यकता है| इसे अपनाने पर ही हम एक बार फिर से विश्वगुरु बन सकते हैं|

मैं यहाँ अपने ही परिवार का उदाहरण देना चाहूँगा| मेरे दामाद के शरीर का दसयाँ भाग धीरे धीरे सुन्न होता जा रहा है| विगतˎ कुछ वर्षों से यह अवस्था निरंतर बढती ही जा रही थी| अनेक चिकित्सकों को दिखाया, वैद्यों को दिखाया किन्तु रोग का कोई निदान किसी के पास नहीं मिल पा रहा था| लगभग एक वर्ष पूर्व उसे एक आयुर्वैदिक चिकित्सक मिला, जिसने ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों की व्याख्या के आधार पर उसका इलाज आरम्भ किया| आज उसके शरीर का बड़ा भाग ठीक हो गया है और इलाज अब भी चालु है, लाभ हो रहा है| इससे स्पष्ट होता है कि जो इलाज आधुनिक विज्ञान के धुरंधर नहीं कर सकते, वह सब वेद के आधार पर ही हो सकता है|

मुझे पित्ते में पत्थरी थी| अनेक अस्पतालों में दिखाया किन्तु सब की एक ही राय थी कि इसका कोई इलाज नहीं| यदि इसका कोई निदान है तो वह है आपरेशन करके पित्ते को निकाल बाहर करना| मै मुम्बई गया हुआ था| वहां आर्य समाज गोरेगांव के एक सदस्य ओंकार मिश्रा जी है, उन्होंने बताया कि अंधेरी में एक व्यक्ति निशुल्क दवा देता है, सप्ताह में एक पुडिया लेनी होती है, बीस पुडिया से गारंटी के सथ पित्ते को पत्थरी रहित कर साफ़ कर देती है| मैंने यह दवा ली और सोलह खुराक में ही मेरी पत्थरी निकल गई| जब मैं अपने डाक्टर धीरेन्द्र सिंघानिया जी को अपने दिल की बीमारी के लिए दिखाने गया तो उन्हें मैंने बताया कि मेरे जो पत्थरी थी वह मुंबई की दवा से निकल गई| इस पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रया देते हुए कहां कि यह दवा से नहीं ईश्वर की दवा से निकली है, आप प्रतिदिन वेद मन्त्रों की व्याख्या करके व्ह्ट्स एप्प में डालते हो, वेद का काम करते हो, इसलिए यह निकल गई है| इससे भी स्पष्ट होता है कि वेद की शिक्षाएँ आधुनिक विज्ञान से उन्नत होती है और इससे अधिक लाभप्रद भी होती है|

हमारे देश में आज लोकतंत्र है| लोकतंत्र में राजा को विविश करने की शक्ति होती है| राजा को स्वार्थी नहीं होने देती| अत: आओ हम सब मिलकर राष्ट्र्तन्त्र को बाधित करें कि वह जन मानस की आवाज को सुने और उसके अनुसार देश की व्यवस्था को बनाते हुए एक बार फिर से वैदिक युग की और लौटे| वैदिक शिक्षाओं के अनुसार वेद के माध्यम से शिक्षा का प्रचार और प्रसार किया जावे| एक निश्चित आयु में जिस प्रकार आज सरकारी कर्मचारी को पदमुक्त किया जाता है, उस प्रकार ही एक निश्चित आयु में समाज के सब लोगों को उनके वर्त्तमान कार्यों से मुक्त करने की परम्परा आरम्भ की जावे| इस प्रकार जब आश्रम व्यवस्था आरम्भ हो जावेगी तो शिक्षा सरकार के हाथों से निकल कर गुरु के हाथों में चली जावेगी| गुरु का सम्मान बढ़ जावेगा और वह एकनिष्ठ हो अपने शिष्यों को शिक्षा देगा और एक बार फिर हमें गौतम कणाद जैसे ऋषि और देवऋषि मिलेंगे और मैत्रेयी, गार्गी जैसी यशस्वी नारियाँ मिलेंगी| गुरुकुल व्यवस्था प्रशस्त होगी और हम एक बार फिर से विश्वगुरु बनने की और आगे बढ़ेंगे|

डॉ. अशोक आर्य
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२०१०१२ गाजियाबाद उ. प्र. भारत
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