Thursday, March 28, 2024
spot_img
Homeमीडिया की दुनिया सेरिश्तों की चौखट को बेपर्दा करती अदालतें

रिश्तों की चौखट को बेपर्दा करती अदालतें

मैं न पुरातनपंथी हूं, न कर्मकांडी हूं और न हिंदुत्ववादी हूं। मगर हां, वह सनातनी हिंदू हूं, जिसकी सनातनी विरासत, संस्कार, मूल्य, ज्ञान में अपने आप मेरी यह अंतरदृष्टि बनी, यह अवचेतन बना कि रावण बुराई है। मांस-मदिरा और व्यभिचार पाप है। घर-परिवार, समाज याकि रिश्तों की परंपरागत बुनावट में जो चला आया है उसका निर्वहन जितना संभव हो होना चाहिए। मतलब अपने आपको जीने के तौर-तरीकों में ढालने के संस्कारगत, नैतिक आग्रह का वह परिवेश था, जो कानून, बाध्यता से नहीं विरासत से था। यहीं सभ्यताओं, कौम, धर्म और संस्कृति की वह घुट्टी है, जिससे व्यक्ति का व्यवहार बना, ढला होता है। रिश्ते और उसके व्यवहार में ही फिर परस्पर विश्वास, आदर, सहयोग, साझेपन से निर्वहन है। यहीं नर-नारी, घर-परिवार और समाज की बुनियाद है। संदेह नहीं हर धर्म, कौम अपने भूभाग विशेष, काल विशेष के अनुसार कुछ फर्क लिए होता है। पुरूष- महिला, शादी, घर-परिवार के रिश्तों की बुनावट के प्राथमिक मकसद में समानता होते हुई भी यूरोप, जापान या सऊदी अरब में रिश्तों की तासीर का अलग-अलग होना स्वभाविक है।

अपना मानना है कि हिंदू और उसके जीने के तरीके में, उसके धर्म में क्योंकि आदि धर्म, अनादी काल से चली आई विरासत है इसलिए उसके निज नियम, कायदे व कानून यूरोप जैसे नहीं हो सकते हैं। अलग-अलग सभ्यताओं ने अपने अनुभव, विज्डम में रिश्तों की जो बुनावट बनाई उनकी अपनी खूबियां हैं। ऐसा वहां के परिवेश, भूगोल, धर्म की बदौलत भी है। तभी लाख टके का सवाल है कि हम भारतीय, भारत के हम हिंदू रिश्तों की अपनी बुनावट, अपने नैतिक आग्रहों में अपना विकास करें या पश्चिम में जो है उसे रोल म़ॉडल मानते हुए उसके चश्मों में देखते हुए वहां के ट्रेंड में अपने को ढालें, अपनी अगली नस्लें बनाएं?

यह बहुत अहम मसला है। अपना मानना है कि भारत का आज नंबर एक संकट रिश्तों का टूटना-बिखरना है। घर-परिवार, समाज आज जिस तरह टूट, बिखर रहे हैं वह अंततः देश को, उसकी समाज रचना, उसके धर्म- उसके नैतिक बल को तोड़ने वाला होगा।

इस स्थिति के कई जिम्मेवार कारण हैं। अपना मानना है कि रिश्तों का टूटना, बिखरना, पश्चिम से आए, आ रहे खांचों, टेंपलेटों, जुमलों में अपने को ढालने के चलते भी है। आजाद भारत के 70 साला इतिहास की गजब विचारणीय बात है कि पंडित नेहरू की प्रगतिशीलता में भी म़ॉडल पश्चिमी था तो कथित तौर पर नेहरू के आइडिया ऑफ इंडिया से अलग मोदी-शाह के आइडिया ऑफ इंडिया में भी हिंदू को आधुनिक, प्रगतिशील बनाने के फैसले भी पश्चिमी पैमाने में हुए हैं। पंडित नेहरू ने हिंदुओं की प्रगतिशीलता के लिए हिंदू नागरिक संहिता, विवाह कानून बनवाया। उस वक्त फिर भी एक विचारमना व्यक्ति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे, जिन्होंने कुछ पहलुओं पर धर्म, नैतिकता का हवाला देते हुए हिंदू जीवन को कचहरी के चक्कर लगाने के खतरे से आगाह किया था। लेकिन आज तो हालात और विकट हैं। नरेंद्र मोदी के कथित हिंदू और संघ की सरकार में हाल देखिए कि शादी के संस्कार ने ‘लिव इन रिलेशन’ का प्रतिस्थापन पाया। समलैंगिकता के रिश्ते मान्य हुए तो शादी की संस्था के बीच व्यभिचार को अवैध न माने जाने का वह फैसला भी आया, जिसमें यह चिंता नहीं है कि इससे घर-परिवार और रिश्तों की ईमानदारी, पवित्रता का आगे क्या बनेगा?

नेहरू के राज में सरकार ने प्रगतिशीलता के पश्चिमी टैंपलेट चुने तो मोदी राज में सुप्रीम कोर्ट ने प्रगतिशीलता में पश्चिम के वे जुमले चुने, जिन्हें यदि सवा सौ करोड़ लोगों के परिवारों पर कसें, अपनाए तो जीवन नरक हो जाएगा। क्या सवा सौ करोड़ लोगों के परिवारों में ‘लिव इन रिलेशनशिप’, समलैंगिक आजादी, शादी बाद के दांपत्य जीवन में लैंगिक समानता के हवाले विवाहेत्तर सेक्स की छूट के बीज बोना वाजिब है? क्या समाज की बरबादी नही है?

कोई माने या न माने, रिश्तों की बरबादी में आज भारत आज बुरी तरह खोखला है। इसके राजनीतिक, आर्थिक, कारोबारी मतलब, संदर्भ और मायने अलग हैं। फिलहाल मुद्दा घर-परिवार, शादी, सेक्स रिश्तों में बरबादी का है। इसमें देश के एलिट वर्ग ने, एलिट समाज के नैरेटिव ने, फिल्म- सोशल मीडिया और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, विधायी कानूनों ने सामूहिक तौर पर आम हिंदू मानस पर अपने आग्रहों का, अपनी प्रगतिशीलता का ऐसा हल्ला बोल प्रभाव छोड़ा है, जिससे तलाकों की बाढ़ आई है। रिश्ते छोटे, शंकित, टूटे पड़े हैं। बड़े-बूढों का मान-सम्मान खत्म है। जीना हराम है। हाई कोर्ट के रिटायर जज अदालत जा कर गुहार करते हैं कि मुझे मेरे बेटे से बचाओ। नैतिक दबाव से मुक्त सेक्स की भूख इस कदर यू ट्यूब, इंटरनेट पर फूटी पड़ी है कि सभी तरह के रिश्तों को वासना की नजरों से देखा-पढ़ा जा रहा है।

चाहें तो इस सबको प्रगति और प्रगतिशीलता कह सकते हैं। कह सकते हैं रिश्तों का टूटना, बिखरना भी आजादी है। स्त्री-पुरूष के रिश्तों में समानता, मेरी मर्जी मैं लेस्बियन या गे, हमारी मर्जी की लिव इन रिलेशन में रहें या शादी करके बाहर स्वच्छंदता से यौनाचार बनाएं वाली प्रगतिशीलता का हल्ला कुल मिला कर तो पुराने रिश्तों की छुट्टी है।

यहां अपनी दलील है कि यदि कानून, अदालतें, भारत का एलिट (जिसने लिव इन रिलेशन, समलैंगिकता, लैंगिक समानता, व्यभिचार के अधिकार की जरूरत बनवाई) पश्चिम से खिली प्रगतिशीलता, स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, अधिकार में भारत में रिश्तों की पुनर्व्याख्या करवा रहा है तो यह काम क्यों नहीं पश्चिमी पूर्णता के साथ सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों से करता है?

तब ऐसा क्यों कि 28 सितंबर 2018 को पांच जजों की बेंच ने व्यभिचार को जुर्म नहीं माना तो यह भी कहा कि हां, इसके हवाले तलाक लिया जा सकता है! एक तरफ शादीशुदा पति-पत्नी के लिए इधर-उधर सेक्स करना अपराध नहीं लेकिन दूसरी ओर उसे तलाक के लिए कारण मानना भला क्या बात हुई? जब जुर्म मानने वाली आईपीसी की धारा 497 और 198 अंसवैधानिक करार दी हैं तो पति – पत्नी के बीच क्यों यह बात तलाक का आधार बने कि किसने किससे अवैध सेक्स संबंध बनाए? यह फालतू बात है कि तलाक के लिए जब कोई जाएगा तो वह प्रूफ ले कर जाएगा कि मैंने पत्नी या पति को दूसरे से व्यभिचार की अनुमति नहीं दी थी! जब व्यभिचार जुर्म ही नहीं है, वह पुरूष-स्त्री की आजादी का सहज सेक्स है तो परस्पर सहमति होने जैसी बात की भला क्या तुक?

ऐसे ही एक तरफ हर बात में स्त्री-पुरूष की समानता की बात तो दूसरी और दहेज जैसे मामले में क्यों पुरूष को, घर वालों को सीधे गिरफ्तारी का कानून? लैंगिक समानता ही जब प्रगतिशीलता का दो टूक पैमाना तो क्यों यह सोचना कि महिला कमजोर होती है उसे विशेष संरक्षण मिले? उसकी शिकायत को तवज्जो मिले और पुरूष को सीधे जेल में डाला जाए।

दरअसल यह सब जो है वह पश्चिमी देशों की प्रगतिशीलता को, उसके जुमलों, टैंपलेट्स को जस का तस अपना कर अपने आपको प्रगतिशील, विद्वान बताने का शगल है। हम हिंदू बतौर समाज व धर्म क्योंकि लावारिस है और अपने धर्मगुरू हों या संगठककर्ता जैसे संघ के मोहन भागवत भी जब बेसुध हैं, बिना विचार के हैं तो वे समलैंगिकता और व्यभिचार के फैसलों में क्या सोचेंगे? किसे फुरसत है इस चिंता की कि इस सबसे भारत में रिश्तों का नैतिक आधार, बल कितना चूर-चूर हो चुका है। सोचें, सुप्रीम कोर्ट में यह हिम्मत नहीं हुई जो नेताओं से दो-दो हाथ करते हुए उनके अपराध को रोकने के लिए चुनावी कानून का बड़ा फतवा दे देता। उस पर फैसले का वक्त आया तो उस पर फतवे की हिम्मत नहीं लेकिन लावारिस हिंदू धर्म, घर-परिवारों के रिश्तों में फैसला करना हुआ तो एक झटके में शादी में व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया!

क्या इस सब पर सोचा नहीं जाना चाहिए? क्या कहीं इस तरह की चिंता, चर्चा सुनाई दी? आजाद भारत के कानून ने सर्वप्रथम तलाक को आसान बनाया और घर-परिवार को अदालत की चौखट पर पहुंचा दिया। अब दाम्पत्य जीवन में व्यभिचार को मान्य बता जो पाप हुआ है उसका दुष्परिणाम इस बात के साथ हमेशा याद रखिएगा कि लम्हों ने खता की, सदियों ने सज़ा पाई!

इस सबमें फिर आगे का सवाल है कि विधायिका, सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू समाज, घर-परिवार के रिश्तों को तोड़ने के जितने फैसले किए हैं, जिन-जिन बातों में वह पंच बने हैं उनमें किन संर्दभों, किस हकीकत में फैसले हुए या होते हैं? क्या लावारिस हिंदू समाज के रिश्तों में नैतिक, सांस्कृतिक, डिवाइन, धर्म के बल और तर्कों को सुन, समझ कर कभी आधुनिक भारत ने विचार किया?

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES

1 COMMENT

  1. आपकी सब बातों से सहमत हुआ जा सकता है, किन्तु स्वयं को हिन्दू मानने में संकोच करते हुए भी, बार -बार इन फैसलों के ” हिन्दू -समाज” पर पड़नेवाले प्रभावों पर ही चिंतित दिखायी देते हैं। इसका क्या मतलब? महोदय ये फैसले समग्र “भारतीय समाज” को प्रभावितकरेंगे,जिसमें मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य धर्मावलंबी भी रहते हैं। उनकी चिन्ता क्यों आपको नहीं होती? इसका उत्तर चाहिए। क्या भारत मात्र हिन्दुओं का ही देश है अथवा हम मात्र हिन्दू हैं, भारतीय नहीं?
    *
    मूल प्रश्न यह है कि क्या व्यक्ति बड़ा है या समाज? धर्म बड़ा है या कानून? धर्म/कानून व्यक्ति के लिये है ,या व्यक्ति धर्म /कानून व्यक्ति के लिये? यदि व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं, तो समाज को स्वतंत्र कहा जा सकता है?
    इस पर समग्रता से एक राष्ट्र के तौर पर विचार कीजिये ,विचारक महोदय! आपके विचार अस्पष्ट और एकांगी हैं।
    बता दें, हम किसी भी पक्ष में नहीं ।
    जो निष्पक्ष सार्वभौम सत्य है, हमें स्वीकार है।

Comments are closed.

- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार