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गौरक्षा बलिदान पर्व – 8 फरवरी सन 1920 ई.जिसे हम भूल गए

सन 1918 में ग्राम कटारपुर, हरिद्वार के मज़हबी गौ हत्यारों ने बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गौहत्या की घोषणा की, मायानगरी हरिद्वार के मायापुरी क्षेत्र में कभी ऐसा घोर अनर्थ नहीं हुआ था. अतः हिन्दुओं ने तत्कालीन स्थानीय ज्वालापुर थाने पर शिकायत की, पर वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह सब कुकर्म हो रहा था. हरिद्वार थाने में शिवदयाल सिंह थानेदार थे, उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया. हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो, पर गौ हत्या नहीं होने देंगे. तत्कालीन समय में 17 सितम्बर सन 1918 को बकरीद थी, हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ, पर अगले दिन 18 सितम्बर सन 1918 को गौ हत्यारों ने पांच गायों को सार्वजनिक रुप से जुलूस निकालकर सरेआम कुर्बानी, कत्ल करने हेतु उन्हें एक इमली के पेड़ से बांध दिया. वे कट्टर मज़हबी नारे लगा रहे थे, दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों वीर गौभक्त निर्भिक हिन्दू युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध तैयार थे. जैसे ही कुर्बानी के लिये गौ हत्यारों ने गाय माता की गर्दन पर छुरी रखी तो तैयार खडे गौभक्तो ने “जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव” के जयकारो के साथ धावा बोला और सब गाय छुड़ा लीं. लगभग तीस गौ हत्यारे मौके पर ही मारे गये, “यह संख्या का आंकडा सुनिश्चित नहीं हैं केवल जनश्रुति के आधार पर प्रस्तुत किया गया हैं” बाकी गौ हत्यारे सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए.

इस गौरक्षा के निमित्त हुई मुठभेड़ में असंख्य हिन्दू भी हताहत हुए, गौभक्त महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के अड़तालीस घाव लगे, अतः वे बच नहीं सके. पुलिस और प्रशासन को जैसे ही गौ हत्यारों के वध का पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा. हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया, महिलाओं का अपमान किया गया. एक सौ बहत्तर लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया, जेल का डर दिखाकर कई लोगों से भारी रिश्वत ली गयी. गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्र भी इसमें फंसा दिये गये. फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा, कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था.

गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री ‘वेदतीर्थ’ ने वहां जाकर महात्मा गांधी को सारी बात बतायी, पर मज़हबी तुष्टिकरण में लगे हुए महात्मा गांधी किसी भी तरह गौ हत्यारों के विरोध में जाने को तैयार नहीं हुए. अतः वे ही शान्त रहे, पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गौ भक्त थे, उनका हृदय पीड़ा से भर उठा. उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी.

8 अगस्त सन 1919 ई. को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गौ भक्तों को फांसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित एक सौ पैंतीस लोगों को कालेपानी की सजा दी गयी. इन गौभक्त हिन्दुओं में सभी जाति, समाज, वर्ग और अवस्था के लोग थे, जो लोग अन्डमान निकोबार द्वीप पर कालेपानी की सजा हेतु भेजे गये, उनमें से कई भारी उत्पीड़न सहते हुए वहीं मर गये. महानिर्वाणी अखाड़ा, कनखल के महंत रामगिरि भी प्रमुख अभियुक्तों में थे, पर वे घटना के बाद गायब हो गये और कभी पुलिस के हाथ नहीं आये. पुलिस के आतंक से डरकर अधिकांश हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया, अगले आठ वर्ष तक कटारपुर और आसपास के गांव में कोई फसल तक नहीं बोई गयी.

8 फरवरी सन 1920 ई. को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास 45 वर्ष तथा चौधरी जानकी दास 60 वर्ष को प्रयाग में, डा. पूर्णप्रसाद 32 वर्ष को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान 22 वर्ष को वाराणसी जेल में फांसी दी गयी. चारों वीर “गौ माता की जय” कहकर फांसी पर झूल गये. प्रयागराज में इन महान गौ भक्तों के सम्मान में उस दिन हड़ताल रखी गयी थी. इस घटना से गौरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी. महान गौ भक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष 8 फरवरी को हिन्दुओं की महान शौर्य स्थली ग्राम कटारपुर में “गौ भक्तों का बलिदान पर्व” मनाने की प्रथा शुरू की, वहां स्थित गौ रक्षा के निमित्त हुए महानतम संघर्ष और बलिदान का साक्षी वो इमली का पेड़ और गौ स्मारक आज भी उन महान गौ भक्त वीरों की याद दिलाता है.

संदर्भ – घटनाक्रम के सम्बन्ध में प्रकाशित विभिन्न लेख, पुस्तक, इन्टरनेट पर सार्वजनिक रुप उपलब्ध जानकारी के स्रोत तथा सोशल मीडिया पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत विचारो पर आधारित एवं बलिदानी परिवारो के एवं स्थानीय ग्रामीणो के कथन के अनुसार प्रस्तुत किया गया हैं.

लेख साभार – Pankaj Chauhan