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नृत्य दिवसः भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य अतीत से आज तक

भारत में प्राचीन काल से एक समृद्ध और प्राचीन परम्‍परा रहा है । विभिन्‍न कालों की खुदाई, शिलालेखों, ऐतिहासिक वर्णन, राजाओं का वंश परम्‍परा तथा कलाकारों, साहित्यिक स्रोतों, मूर्तिकला और चित्रकला से व्‍यापक प्रमाण उपलब्‍ध होते हैं । पौराणिक कथाएं और दंतकथाएं भी इस विचार का समर्थन करती है कि भारतीय कला के धर्म तथा समाज में नृत्‍य ने एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान बनाया था । जबकि आज प्रचलित ‘शास्‍त्रीय’ रूपों या ‘कला’ के रूप में प्ररिचित विविध नृत्‍यों के विकास और निश्चित इतिहास को सीमांकित करना आसान नहीं है ।

साहित्‍य में पहला संदर्भ वेदों से मिलता है, जहां नृत्‍य व संगीत का उदगम है । नृत्‍य का एक ज्‍यादा संयोजित इतिहास महाकाव्‍यों, अनेक पुराण, कवित्‍व साहित्‍य तथा नाटकों का समृद्ध कोष, जो संस्‍कृत में काव्‍य और नाटक के रूप में जाने जाते हैं, से पुनर्निर्मित किया जा सकता है । शास्‍त्रीय संस्‍कृत नाटक (ड्रामा) का विकास एक वर्णित विकास है, जो मुखरित शब्‍द, मुद्राओं और आकृति, ऐतिहासिक वर्णन, संगीत तथा शैलीगत गतिविधि का एक सम्मिश्रण है । यहां 12वीं सदी से 19वीं सदी तक अनेक प्रादेशिक रूप हैं, जिन्‍हें संगीतात्‍मक खेल या संगीत-नाटक कहा जाता है । संगीतात्‍मक खेलों में से वर्तमान शास्‍त्रीय नृत्‍य-रूपों का उदय हुआ ।

खुदाई से दो मूर्तियां प्रकाश में आई- एक मोहनजोदड़ों काल की कांसे की मूर्ति और दूसरा हड़प्‍पा काल (2500-1500 ईसा पूर्व) का एक टूटा हुआ धड़ । यह दोनों नृत्‍य मुद्राओं की सूचक हैं । बाद में नटराज आकृति के अग्रदूत के रूप में इसे पहचाना गया, जिसे आम तौर पर नृत्‍य करते हुए शिव के रूप में पहचाना जाता है ।

हमें भरतमुनि का नाटय-शास्‍त्र शास्‍त्रीय नृत्‍य पर प्राचीन ग्रंथ के रूप में उपलब्‍ध है, जो नाटक, नृत्‍य और संगीत की कला की स्रोत पुस्‍तक है । आमतौर पर यह स्‍वीकार किया जाता है कि दूसरी सदी ईसापूर्व- दूसरी सदी ईसवीं सन् इस कार्य का समय है । नाटय शास्‍त्र को पांचवें वेद के रूप में भी जाना जाता है । लेखक के अनुसार उसने इस वेद का विकास ऋृग्‍वेद से शब्‍द, सामवेद से संगीत, यजुर्वेद से मुद्राएं और अथर्ववेद से भाव लेकर किया है । यहां एक दंतकथा भी है कि भगवान ब्रह्मा ने स्‍वयं नाअय वेद लिखा है, जिसमें 36,000 श्‍लोक हैं ।

नाटय-शास्‍त्र में सूत्रबद्ध शास्‍त्रीय परम्‍परा की शैली में नृत्‍य और संगीत नाटक के अलंघनीय भाग हैं । नाटय की कला में इसके साभी मौलिक अंशों को रखा जाता है और कलाकार स्‍वयं नर्तक तथा गायक होता है । प्रस्‍तुतकर्त्‍ता स्‍वयं तीनों कार्यों को संयोजित करता है । समय के साथ-साथ जबकि नृत्‍य अपने आप नाटय से अलग हो गया और स्‍वतंत्र तथा विशिष्‍ट कला के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ।

प्राचीन शोध-निबंधों के अनुसार नृत्‍य में तीन पहलुओं पर विचार किया जाता है- नाटय, नत्‍य और नृत्‍त । नाटय में नाटकीय तत्‍व पर प्रकाश डाला जाता है । कथकली नृत्‍य–नाटक रूप के अतिरिक्‍त आज अधिकांश नृत्‍य-रूपों में इस पहलू को व्‍यवहार में कम लाया जाता है । नृत्‍य मौलिक अभिव्‍यक्ति है और यह विशेष रूप से एक विषय या विचार का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्‍तुत किया जाता है । नृत्‍त दूसरे रूप से शुद्ध नृत्‍य है, जहां शरीर की गतिविधियां न तो किसी भाव का वर्णन करती हैं, और न ही वे किसी अर्थ को प्रतिपादित करती हैं । नृत्‍य और नाटय को प्रभावकारी ढंग से प्रस्‍तुत करने के लिए एक नर्तकी को नवरसों का संचार करने में प्रवीण होना चाहिए । यह निवरस हैं- श्रृंगार, हास्‍य, करूणा, वीर, रौद्र, भय, वीभत्‍स, अदभुत और शांत ।

सभी शैलियों द्वारा प्राचीन वर्गीकरण- तांडव और लास्‍य का अनुकरण किया जाता है । तांडव पुरूषोचित, वीरोचित, निर्भीक और ओजस्‍वी है । लास्‍य स्‍त्रीयोचित, कोमल लयात्‍मक और सुंदर है । अभिनय का विस्‍तारित अर्थ अभिव्‍यक्ति है । यह अंगिक, शरीर और अंगों; वाचिक, और कथन; अहार्य, वेशभूषा और अलंकार; और सात्विक, भावों और अभिव्‍यक्तियों के द्वारा सम्‍पादित किया जाता है ।

भरत और नंदीकेश्‍वर- दो प्रमुख ग्रंथकारों ने नृत्‍य का कला के रूप में विचार किया है, जिसमें मानव शरीर का उपयोग अभिव्‍यक्ति के वाहन के रूप में किया जाता है । शरीर (अंग) के प्रमुख मानवीय अंगों की सिर, धड़, ऊपरी और निचले अंगों के रूप में तथा छोटे मानवीय भागों (उपांगों) की ढोड़ी से लेकर भवों तक चेहरे के सभी भागों तथा अन्‍य छोटे जोड़ों के रूप में पहचान की जाती है ।

नाटय के दो अतिरिक्‍त पहलू प्रस्‍तुतीकरण और शैली के प्रकार हैं । यहां प्रस्‍तुतीकरण के दो प्रकार हैं, जिनके नाम हैं- नाटयधर्मी, जो रंगमंच का औपचारिक प्रस्‍तुतीकरण है और दूसरा लोकधर्मी कई बार लोक, यर्थाथवादी, प्रकृतिवादी या प्रादेशिक के रूप में अनुवादित । शैली या वृत्ति को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- कैसकी, लास्‍य पहलू के संचार में ज्‍यादा अनुरूप, दक्ष गीतिकाव्‍य; अरबती, ओजस्‍वी पुरूषोचित; सतवती जब रासों का चित्रण किया जाता है तब अक्‍सर इसका उपयोग किया जाता है और भारती (शाब्दिक अंश) ।

शताब्दियों के विकास के साथ भारत में नृत्‍य देश के विभिन्‍न भागों में विकसित हुआ । इनकी अपनी पथृक शैली ने उस विशेष प्रदेश की संस्‍कृति को ग्रहण किया; प्रत्‍येक ने अपनी विशिष्‍टता प्राप्‍त की । अत: ‘कला’ की अनेक प्रमुख शैलियां बनीं; जिन्‍हें हम आज भरतनाटय, कथकली, कुचीपुड़ी, कथक, मणिपुरी ओर उड़ीससी के रूप में जानते हैं । यहां आदिवासी और ग्रामिण क्षेत्रों के नृत्‍य तथा प्रादेशिक विविधताएं हैं, जो सरल, मौसम के हर्षपूर्ण समारोहों, फसल और एक बच्‍चे के जन्‍म के अवसर से सम्‍बन्धित हैं । पवित्र आत्‍माओं के आह्वान हौर दुष्‍ट आत्‍माओं को शांत करने के लिए भी नृत्‍य किए जाते हैं । आज यहां आधुनिक प्रयोगात्‍मक नृत्‍य के लिए भी एक सम्‍पूर्ण नव निकाय है ।