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इतिहास पुनर्लेखन में अब देर ना हो जाए

भारतीय इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्रता के बाद जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, वह अब तक नहीं हुआ।

पिछले शनिवार को कोलकाता पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस व्यथा से भारतीय इतिहास एवं विरासत की दुर्दशा पर चर्चा की, उस पर एक देशव्यापी चर्चा आवश्यक है। उन्होंने कहा, ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेजी शासन के दौरान और स्वतंत्रता के बाद देश का जो इतिहास लिखा गया, उसमें कुछ अहम पक्षों को नजरअंदाज किया गया। इतिहास का लेखन एवं विश्लेषण सत्ता और सिंहासन तक ही सीमित रह गया। उन्होंने गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के 1903 में ‘भारतवर्ष का इतिहास विषय पर शांति निकेतन में दिए गए भाषण की भी याद दिलाई। उस भाषण में गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि भारत का इतिहास वह नहीं है, जो हम परीक्षाओं के लिए पढ़ते और याद करते हैं। जैसे कि कुछ लोग बाहर से आए और सिंहासन के लिए पिता-पुत्र-भाई और स्वजनों की हत्या करते रहे। यह भारत का इतिहास नहीं है, क्योंकि इस इतिहास में यह जिक्र नहीं है कि तब भारत के लोग क्या कर रहे थे? क्या उनका कोई अस्तित्व नहीं था? क्या साहित्य, कला, लोक कला, विज्ञान, स्थापत्य, दर्शन, शिक्षा, जीवन-शैली आदि का इतिहास में कोई स्थान नहीं होना चाहिए था? उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर इतिहास के पुनर्लेखन में इन सभी बातों कासमावेश करने की बात की। इस तरह की बात पहले भी अनेक अवसरों पर कही जा चुकी है।

राष्ट्र के जीवन में इतिहास का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 1990 के बाद कनाडा की संसद की संस्तुति पर इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखा गया, क्योंकि वहां के स्कूलों में पर्याप्त कनाडाई इतिहास छात्रों को नहीं पढ़ाया जाता था, इसलिए इसके बारे में उन्हें पता भी नहीं था। जो इतिहास छात्रों को पढ़ाया जाता था, वह पर्याप्त रूप से राष्ट्रीय नहीं था। उसमें कनाडा के अतीत के सकारात्मक पहलुओं का समावेश नहीं था।

अपने देश की बात करें तो भारतीय संदर्भ में इतिहास की किताबें और इतिहास लेखन सार्वजनिक क्षेत्र में आते हैं। हाल के समय में यह राष्ट्रीय मीडिया के ध्यान का विषय तब बन गया जब एनडीए-1 सरकार के दौरान राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा और सभी विषयों की पाठ्यपुस्तकों को नियमित करने की बात कही। विरोधियों को किसी अन्य विषयों के पाठ्यपुस्तकों में संशोधन से कोई समस्या नहीं थी, लेकिन इतिहास की पाठ्यपुस्तकों की बात आने पर ऐसा लगा, जैसे आसमान ही टूट पड़ा। पहले इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के लेखन में शामिल रहे कुछ तथाकथित ‘प्रख्यात इतिहासकारों और उनके समर्थकों ने एक अभियान शुरू किया कि इतिहास को फिर से लिखा या संशोधित नहीं किया जा सकता। उन्होंने इतिहास के नए तथ्यों को समाहित करती हुई तब की तैयार की गई नई पुस्तकों को सिरे से नकार दिया, क्योंकि ये पुस्तकें वामपंथ से अलग हटकर थीं और गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के सुझाए गए मार्ग पर थीं।

दुनिया भर में लगभग हर देश, शहर और गांव में लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अतीत में बड़ी संख्या में इमारतें बनाई गईं, जो अब विलीन हो चुकी हैं। कुछ का वजूद मंदिरों, चर्चों, मस्जिदों, घरों, सार्वजनिक भवनों आदि में शेष रह गया है, परंतु अधिकांश प्राचीन समाजों में बनीं ऐतिहासिक इमारतें अब विलुप्त हो गई हैं। इसके अलावा सरकारों, राजनीतिक विचारों, धार्मिक विश्वासों, कला, वास्तुकला, सांस्कृतिक प्रथाओं, शैक्षिक प्रणालियों, रीति-रिवाजों और व्यवहार की प्रणालियां आदि अतीत या हाल ही के उत्पाद हैं।

अतीत सर्वव्यापी है। वास्तव में इसका अर्थ है कि हम इससे बच नहीं सकते। अतीत यह दर्शाता है कि वास्तव में क्या हुआ था? ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिससे समाज आगे बढ़ा या गिरा? विचारों और संस्थानों, खाने की आदतों, पहनावे का ढंग, आदतों आदि का इतिहास मानव अतीत का अध्ययन है। अतीत हमारी अनमोल धरोहर है। हम इसका हिस्सा हैं। चाहे यह संस्कृति, व्यवहार, धार्मिक विश्वास, अनुष्ठान, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रणालियों की परंपरा ही क्यों न हो। हमारा अतीत और हमारी धरोहर हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में परिलक्षित होती है। हम इसे नकार नहीं सकते।

इतिहास हमें हमारी जड़ों के बारे में भी बताता है। यह हमें हमारे अतीत से जोड़ता है। इतिहास हमें अतीत की गलतियों की पुनरावृत्ति के खिलाफ समकालीन कार्यों के लिए मिसाल प्रदान करके भविष्य में झांकने की अनुमति देता है। निरंतरता की अपनी भावना से इतिहास भूत, वर्तमान और भविष्य को स्पष्ट रूप और उद्देश्य प्रदान करता है। हम वर्तमान को केवल अतीत के प्रकाश में ही पूरी तरह से समझ सकते हैं। हम अतीत को अनदेखा या टाल नहीं सकते। सच बात तो यह है कि हम जहां भी जाते हैं, अतीत हमें घूरता रहता है।

दुनिया भर में उपनिवेश के अनुभव ने एक अधिक शक्तिशाली संस्कृति के वर्चस्व को दिखाया है। दूसरी संस्कृति को उसने या तो पूरी तरह से नष्ट कर दिया या उसे कम शक्ति वाली एक अधीनस्थ में बदल दिया। उदाहरणार्थ पूरे भारतीय वैदिक एवं ब्राह्मण साहित्य को कपोल-कल्पित घोषित कर दिया गया, क्योंकि भारतीय वैदिक साहित्य में ब्रह्मांड की कल्पना अरबों-खरबों सालों की है। काल गणना चतुर्युगों में थी, जो अंग्रेजों की मान्यता के खिलाफ थी। उनकी मान्यता के अनुसार तो पूरे ब्रह्मांड की रचना 23 अक्टूबर, 4004 ईसा पूर्व प्रात:काल 9 बजे हुई थी। ऐसे में वे करोड़ों, अरबों, खरबों सालों के इतिहास की कल्पना कैसे कर सकते थे?

इतिहासकारों के रूप में हमें यह स्वीकारना चाहिए कि अतीत अलग-अलग संस्कृतियों द्वारा अलग-अलग तरीकों से बना माना जाता है। अतीत की व्याख्या, रिकॉर्डिंग, प्रबंधन और सुरक्षा के तरीके भी संस्कृतियों के बीच भिन्न् होते हैं। लोग अपने अस्तित्व को, अपनी दुनिया को देखते हैं और सृजन की कहानियों को परिभाषित करते हैं। अपने अतीत को कैसे महत्व देते हैं, व्याख्या करते हैं, प्रबंधित करते हैं और संचारित करते हैं, यह उनके द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रखा जाता है।

बहरहाल, भारतीय इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्रता के बाद जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, वह अब तक नहीं हुआ, बल्कि वह और भी विकृत हो गया। जिस दृष्टि की बात श्री अरविंद और गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने की, हमें उस भारतीय दृष्टि से भारतीय इतिहास लेखन के काम को आगे बढ़ाना चाहिए। और शिक्षा का भी भारतीयकरण होना चाहिए, जिसकी बात गांधी जी ने की थी। यूनेस्को भी कहता आ रहा है कि शिक्षा की जड़ें सांस्कृतिक परंपरा में होनी चाहिए और उसका उद्देश्य श्रेष्ठ मानव निर्माण होना चाहिए।

(लेखक इतिहासकार हैं)

साभार https://www.naidunia.com/ से