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डॉ. स्वामीः भारतीय राजनीति का वो दुर्वासा जिससे सब खौफ़ खाते हैं

अगर सुब्रमण्यम स्वामी की तुलना किसी पौराणिक चरित्र से की जाए तो उन्हें भारतीय राजनीति का दुर्वासा कहा जा सकता है
सुब्रमण्यम स्वामी के ट्विटर हैंडल पर नजर डाली जाए तो वे अपने विरोधियों की तुलना अक्सर पौराणिक खल चरित्रों से किया करते हैं. मसलन ताड़का, शकुनि वगैरह. लेकिन अगर सुब्रमण्यम स्वामी की तुलना किसी पौराणिक चरित्र से की जाए तो उन्हें आधुनिक भारतीय राजनीति का दुर्वासा कहा जा सकता है, जो किसी से, किसी भी बात पर कुपित हो सकते हैं.

राजनीति में पिछले चार दशक से सक्रिय स्वामी आरोप-प्रत्यारोप की परोक्ष और सांकेतिक शैली में बिल्कुल भी यकीन नहीं रखते हैं. बल्कि वे तो आरोप लगाने की जगह सीधा फैसला सुनाने में ही यकीन रखते हैं. इसके सबसे ताजा पीड़ित हैं – आरबीआई के नए गवर्नर शक्तिकांत दास. 23 दिसंबर को हैदराबाद में हुए एक कार्यक्रम में सुब्रमण्यम स्वामी ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि आरबीआई के नए गवर्नर एक भ्रष्ट व्यक्ति हैं. उन्होंने खुले मंच से यह भी कहा कि आरबीआई का नया गवर्नर तो पी चिदंबरम का ‘चेला’ है.

किसी बड़े पद पर बैठे व्यक्ति पर सीधा हमला कर सरकार को असहज कर देना सुब्रमण्यम स्वामी का शगल हैै. वे खुलेआम अपने साक्षात्कारों में कहते हैं कि मोदी सरकार के मंत्रियों और वित्त मंत्री अरुण जेटली को अर्थव्यवस्था की कोई समझ नहीं है. वित्त मंत्रालय और वित्त विभाग से जुड़ी नियामक एजेंसियों के अफसरों पर उनके शब्द बाण नियमित अंतराल पर चलते रहतेे हैं. उदाहरण के तौर पर आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन. उनके साथ वित्त मंत्री अरुण जेटली के रिश्ते ठीक थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अर्थशास्त्र के जटिल विषयों पर राजन को एक बेहतरीन शिक्षक मानते थे. यानी कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को उन्हें एक और कार्यकाल देने में कोई एतराज नहीं था.


लेेकिन तभी सुब्रमण्यम स्वामी ने स्वदेशी जागरण मंच का राजन विरोधी कोरस ज्वाइन कर लिया और विरोध करने वाली लॉबी की मुख्य आवाज बन गए. स्वामी ने रघुराम राजन को ‘अमेरिकी मानसिकता’ का अर्थशास्त्री बताते हुए उनकी ‘भारतीयता’ पर ही सवाल उठा दिए. उन्होंने आरोप लगाया कि राजन की नीतियां भारतीय अर्थव्यवस्था को बरबाद कर रही हैं. जानकार मानते हैं कि इस दौरान स्वामी के तीर भले राजन की ओर थे, लेकिन निशाना जेटली ही थे. रघुराम राजन के बाद उन्होंने पिछले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

 

सवाल उठता है कि लगातार पार्टी लाइन के खिलाफ जाकर बोलने के बाद भी भाजपा के पार्टी नेतृत्व या प्रधानमंत्री की ओर से सुब्रमण्यम स्वामी को कोई कड़ा संदेश क्यों नहीं दिया जाता? हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार बिना उनका नाम लिये यह जरूर कहा था कि मीडिया को प्रचार के भूखे लोगों को महत्व नहीं देना चाहिए. लेकिन स्वामी पर इसका कोई फर्क नहीं दिखा. पीएम के बयान के अगले दिन ही उनका ट्वीट आ गया कि वे प्रचार के पीछे नहीं दौड़ते हैं, बल्कि प्रचार उनके पीछे दौड़ता है. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि नरेंद्र मोदी की जिस तरह की शख्सियत है, वे ऐसी बातों को कतई बर्दाशत नहीं करते हैं. लेकिन स्वामी के मामले में ऐसा कुछ नहीं होता.

भाजपा के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि अरुण जेटली कभी नहीं चाहते थे कि सुब्रमण्यम स्वामी भाजपा में रहें. लेकिन राजनीति में कई बार डोर इतनी उलझी हुई होती हैं कि कौन सा तार कहां से जुड़ा है, इसका अंदाजा किसी को नहीं होता. वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर अपनी किताब ‘इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री’ में लिखती हैं – ‘इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी की मुखर आलोचना और वामपंथियों के विरोध के चलते स्वामी जनसंघ के चहेते हो गए थे. आपातकाल के दौरान अमेरिका जाने से पहले स्वामी ने कई बार गुजरात की यात्रायें की और उस समय आरएसएस ने जिस प्रचारक को स्वामी को लेने के लिए भेजा, उसका नाम था नरेंद्र मोदी था.’ स्वामी खुद भी कई साक्षात्कारों में यह बात स्वीकार करते हैं.

यानी कि दोनों के बीच परिचय का सूत्र बहुत पुराना है. 2014 में सुब्रमण्यम स्वामी ने खुलेआम प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम का समर्थन भी किया था. इसके अलावा 2जी घोटाले से लेकर सोनिया गांधी की डिग्री और राहुल गांधी की नागरिकता तक पर जो सवाल स्वामी ने उठाये हैं, वे सब मोदी की मदद करने वाले ही रहे हैं. नेशनल हेराल्ड जैसे मामलों में भी स्वामी गांधी परिवार के खिलाफ जिस तरह मोर्चा खोले रहे. इसके अलावा आरएसएस की ओर से भी स्वामी की पैरवी की गई थी.

भाजपा के अंदरुनी सूत्रोंं के मुताबिक अरुण जेटली और सुब्रमण्यम स्वामी के संंबंध बहुत अच्छे कभी नहीं रहे. ऊपर से 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त यह चर्चा फैली कि सुब्रमण्यम स्वामी को दिल्ली से लोकसभा का टिकट जेटली के विरोध के चलते नहीं दिया गया. इसमें कितना सच है और कितना झूठ. यह नहीं पता, लेकिन राजनीतिक जानकारों का मानना है कि स्वामी ने इसे सही माना और जेटली के खिलाफ अपने हमले और तेज कर दिए.

जानकार मानते हैं कि भाजपा के 2014 में सत्ता में आने के बाद सुब्रमण्यम स्वामी अपनी भूमिका प्रधानमंत्री के बौद्धिक सलाहकार के रूप में देख रहे थे. विशेषज्ञ कहते हैं कि उस समय गुजरात से आए नरेंद्र मोदी को लुटियंस जोन की राजनीति में एक ऐसे आदमी की दरकार भी थी. लेकिन इसके लिए उन्होंने दिल्ली की सियासत में रमे अरुण जेटली पर भरोसा जताया. जानकार कहते हैं कि मोदी को भी सुब्रमण्यम स्वामी की तहलका मचा देने वाली प्रवृत्ति का आभास था, इसलिए भी उन्होंने स्वामी को अपनी सरकार में कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया. कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व उन्हें राज्यसभा भी नहीं भेजना चाहता था लेकिन आरएसएस का दबाव रंग लाया और वे उच्च सदन पहुंच गए.

यह माना जा सकता है कि सुब्रमण्यम स्वामी का अरुण जेटली पर हमला राजनीतिक मनमुटाव का नतीजा है. लेकिन वे विदेश के उच्च संस्थानों में पढ़े अकादमिक अर्थशास्त्रियों पर हमलावर क्यों रहते हैं? जबकि एक आर्थिक विशेषज्ञ के मुताबिक रघुराम राजन और अरविंद सुब्रमण्यम जैसे अर्थशास्त्रियों को अमेरिकी और गैर भारतीय बताने वाले स्वामी कमोबेश उन्हीं की तरह की बाजारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थक हैं.

एक आर्थिक पत्रकार कहते हैं कि मतभेद और प्रतिद्वंदिता में गांठ बांध लेना स्वामी की पुरानी आदत रही है. और फिर इस कटुता को निभाने में वे अपनी पूरी तीक्ष्ण बुद्धि सहित सारी क्षमताओं का इस्तेमाल करते हैं. यह किस्सा काफी जाना-पहचाना है कि ऐसी ही एक गांछ के चलते उन्होंने अपने पिता के साथ काम करने वाले जाने-माने सांख्यशास्त्री पीसी महालानोबिस की गणना के मौलिक होने के दावे को ही गलत साबित कर दिया था.

स्वामी ने महज 24 साल की उम्र में हार्वर्ड से पीएचडी की डिग्री ले ली थी. 1969 में वे प्रोफेसर अमर्त्य सेन के बुलावे पर दिल्ली स्कूल आफ इकोऩॉमिक्स में पढाने आए. हार्वर्ड से पढकर लौटे स्वामी बाजारवादी आर्थिक नीतियों के समर्थक थे और उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े वामपंथियों का विरोध शुरु कर दिया. नतीजतन सेन के चाहने के बाद भी वे दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर नहीं बन पाए और आईआईटी दिल्ली में पढ़ाने लगे.

लेकिन स्वामी यहां भी अपनी चिर आलोचक की भूमिका में ही रहे और इंदिरा गांधी सरकार की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना शुरु कर दी. स्वामी ने पंचवर्षीय योजनाओं को फालतू की चीज बताया और अपने बयानों से इतने मशहूर हो गए कि इंदिरा गांधी भी उन्हें जानने लगीं और उन्हें ‘अव्यवहारिक विचारों वाला सांता क्लाज’ कहा.

राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अमेरिका में पढ़े-लिखे एक तीक्ष्ण बुद्धि वाले गणितज्ञ, अर्थशास्त्री और कानून की गहरी जानकारी रखने वाले स्वामी आरएसएस के प्रिय इसलिए बन गए क्योंकि वे गांधी परिवार से खुले आम मोर्चा ले रहे थे और इंदिरा गांधी को चिढ़ा रहे थे. इसी के पुरस्कार स्वरूप 1974 में जनसंघ ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया.

जनसंघ से जुड़ाव के बाद विदेश में पढ़े स्वामी के विचार भी बदले. अब वे खुले आम हिंदू राष्ट्र के समर्थन में खुद को अभिव्यक्त करने लगे. कभी खुले बाजार वाली अर्थनीति के समर्थक रहे स्वामी ने अपने तरीके का स्वदेशी मॉडल गढ़ लिया और आर्थिक प्रशासन से जुड़े लोगों की आलोचना शुरु कर दी.

आलोचना का यह स्थायी भाव स्वामी के मिजाज में शुरु से नत्थी रहा है. आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में जब वे वित्त मंत्री नहीं बन पाए तो इसके लिए उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को दोषी माना और उन पर सीमा पार जाकर आरोप लगाए. 1998 में प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वाजपेयी ने उन्हें फिर से वित्तमंत्री नहीं बनाया तो सोनिया गांधी और जयललिता के साथ मिलकर उन्होंने केंद्र की सरकार को गिरा दिया. बाद में स्वामी द्वारा दायर भ्रष्टाचार के मुकदमे में ही जयललिता को सजा हुई और सोनिया के खिलाफ उनका अभियान आज भी जारी है.

स्वामी के सियासी जीवन में दोस्ती और दुश्मनी इतनी तेजी से बदलती है कि इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि उनका अगला कदम क्या होगा? मसलन गांधी परिवार से उनकी चिढ़ हमेशा जगजाहिर रही. इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर उनके आरोप राजनीतिक सीमाओं से आगे तक जाते रहे. लेकिन राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजीव गांधी से उनके संबंध ठीक हुआ करते थे.

सुब्रमण्यम स्वामी की स्पष्टवादिता वैचारिक खेमेबंदी की भी परवाह नहीं करती है. स्वदेशी लॉबी के प्रमुख पैरोकार एस गुरुमुर्ति को उनका मित्र और समान विचारधारा वाला माना जाता रहा है. जब मोदी सरकार और आरबीआई के बीच विवाद चल रहा था तो आर्थिक जानकार इसके पीछे गुरुमूर्ति का ही दिमाग मान रहे थे. लेकिन इस विवाद में सुब्रमण्यम स्वामी खुले तौर पर आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल के समर्थन में बोले और उन्हें एक सम्मानित अकादमिक अर्थशास्त्री करार दिया. लेकिन एस गुरुमूर्ति के लिए उन्होंने यहां तक कह दिया कि उन्हें आरबीआई का निदेशक बनाना गलती थी.

इसके अलावा जब तमिलनाडु से यह खबर आई कि सुपर स्टार रजनीकांत अपनी पार्टी बना सकते हैं तब राजनीतिक जानकारों का मानना था कि इस पूरी योजना के पीछे गुरुमूर्ति ही हैं. लेकिन इस खबर के सामने आते ही स्वामी ने कहा कि रजनीकांत अनपढ़ हैं और तमिलनाडु की जनता बहुत समझदार है. उन्होंने यहां तक कहा कि रजनीकांत अपनी पार्टी बनाएं और उम्मीदवार घोषित करें फिर मैं उनकी पोल खोलूंगा. जानकार मानते हैं कि स्वामी के इस हमले का असली निशाना गुरुमूर्ति पर ही था.

इसके अलावा आरएसएस का सुब्रमण्यम स्वामी के सियासी करियर को गढ़ने में खासा योगदान रहा है. लेकिन एक बार उन्होंने एक लेख में कुछ ऐसा भी लिख डाला, जिसका लब्बोलुआब यह था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में फासीवाद का उदय हो रहा है. लेकिन उनके ऐसा करते रहने के बाद भी सीधे तौर पर उन्हें चुनौती देने की हिम्मत कोई नहीं करता. हालांकि सियासी जानकार यह भी मानते हैं कि चाहे-अनचाहे जो विवाद प्रियता स्वामी के व्यक्तिव का हिस्सा बन गई है उसने राजनीति की राह में उनका नफा करने के साथ-साथ काफी नुकसान भी किया है. लेकिन स्वामी उन लोगों में से हैं ही नहीं जो अपने नफे-नुकसान का ध्यान रखते हैं.

स्वामी आखिर ऐसे क्यों हैं? उनके समर्थक इसे हमेशा उनकी सत्य के साथ खड़े होने की प्रवृत्ति बताते हैं, जिसमें उनकी कुशाग्र बुद्धि और अकादमिक ज्ञान हमेशा उनका साथ देता है. 70 लाख से ज्यादा फॉलोअरों वाला उनका ट्विटर हैंडल भी इस बारे में हमें कुछ संकेत दे सकता है. यहां पर अपने परिचय में स्वामी नेे लिखा है – ‘आई गिव एज़ गुड एज़ आई गेट.’ बोलचाल की हिंदी में अगर इसका भावानुवाद करें तो कह सकते हैं – जैसे को तैसा. शायद इसी में स्वामी के चिर असंतोष का सूत्र भी छिपा है.

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से