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श्रीलंका की गलतियों से सबको सीखना होगा

हालांकि श्रीलंका और भारत की कोई तुलना नहीं हो सकती .उत्पादन से लेकर इकानामी और विदेशी मुद्रा भंडार तक और इस आलेख का मकसद ये भी नहीं कि हम सोचने लगे कि भारत का हाल श्रीलंका जैसा हो सकता है .यहां तो बस इस बात पर ध्यान दिलाना है कि हम वहीं गलतियां न करें जो पड़ोसी देश ने की है. अच्छी बात ये है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अहम विभागों के अफसरों के साथ बैठक कर श्रीलंका की गलतियों और उससे सबक लेने कहा है . लेकिन मुश्किल ये है कि केवल केंद्र सरकार ही सब ठीक कर देगी ये भारत जैसे संघीय ढांचे के देश में कहना ठीक नहीं है . राज्यों को भी अर्थव्यवस्था और देश के सतत विकास की तरफ योगदान और जिम्मेदारी दोनों निभानी होगी.

कर्ज लेकर घी पीना ठीक नहीं .

श्रीलंका में दरअसल पिछले एक दशक से कर्ज लेकर घी पीने की नीति यानि चार्वाक दर्शन पर काम हो रहा था . चार्वाक का दर्शन है .

यावत जीवेत सुखम जीवेत रिणम कृत्वा घृतं पिवेत

यानि जब तक जियो सुख से जियो और उधार लेकर भी घी पियो .इसी पूंजीवादी सोच की तरह श्रीलंका की सरकारों ने तमिल ईलम की लड़ाई थमने के बाद तेजी से विकास के लिए चीन से कई बड़ी परियोजनाओं पर उधार लिया अब हालत ये है कि उधार नहीं चुकाने के कारण कुछ जगहों को चीन को देना पड़ रहा है. खासतौर पर कोविड के कारण श्रीलंका की पर्यटन आधारित इकानामी पूरी तरह बैठ गयी और उसका जीडीपी पर कर्ज 104 प्रतिशत तक हो गया है. अब श्रीलंका अगर कोई खर्च ना करे तब भी उसे हालात सुधारने में पांच साल लगेंगे और कर्ज चुकाने के लिए 25 साल तक कंजूसी करना होगी .जाहिर है ऐसे में देश नहीं चल सकता इसलिए अब आपातकाल और कटौती के तमाम उपाय किये जा रहे हैं.

भारत उसके मुकाबले में बहुत ही बेहतर स्थिति मे है .हमारा कर्ज जीडीपी के मुकाबले नियंत्रण में और विदेशी मुद्रा भंडार लबालब भरा हुआ है. कोविड के बाद भारत की इकानामी हिली जरुर है लेकिन अब संभलने लगी है .उसकी बड़ी वजह मजबूत बैकिंग सिस्टम और छोटी बचत योजनाओं पर जोर है .लेकिन विदेशी कर्ज को लेकर अब केन्द्र और राज्य सरकार दोनों को ठोस नियम बनाने होंगे ताकि समय पर वापसी और कर्ज लेकर पूरी की जा रही परियोजनाओं का समय पर काम पूरा हो सके ..

मुफ्तखोरी पर रोक लगना जरुरी .

श्रीलंका में दूसरा सबसे बड़ा संकट इस समय बिजली का चल रहा है ज्यादातर जगहों पर बिजली नहीं मिल रही है .उसकी एक बड़ी वजह ये है कि वहां की सरकार ने अचानक कोयले का आयात पूरी तरह बंद करने और जल विघुत परियोजनाओं से ही ज्यादातर बिजली बनाने का ऐलान कर दिया. बारिश कम होने को कारण ऐसी ज्यादातर जल विघुत परियोजनाओं का उत्पादन एकदम से कम हो गया औऱ कोयले की आपूर्ति नही हुयी इससेअब बिजली मिलना मुश्किल है .ऊपर से राजपक्षे सरकार ने मुफ्त बिजली का खूब प्रयोग किया जिससे हाल खराब हो गये . भारत में भी इस समय कई राज्य सरकारें और चुनाव की मजबूरी के चलते मुफ्त बिजली का प्रयोग हो रहा है इससे ज्यादातर बिजली विभाग लहुलुहान हो गये हैं. अकेले महाराष्ट्र का ही उदाहरण लें तो यहां पर बिजली विभाग का कर्ज बढता जा रहा है और बिजली बिल का ही बकाया एक लाख करोड़ से ज्यादा हो गया है . हालात ये है कि कई बार कोयला खऱीदने तक में मुशकिल हो रही है. ऐसा ही हाल कई राज्यों के परिवहन विभागों का है और ज्यादातर राज्यो में कुप्रबंधन और गलतियों के कारण सरकारी निगम घाटे में चल रहे हैं. उनको बंद होने से पहले ही कदम उठाना होगा.

खेती से खिलवाड़ अचानक ना हो.

श्रीलंका में सबसे ब़ड़ा संकट खाघान्न की आपूर्ति का है . चाय सौ रुपये की एक कप और चीनी 600रुपये किलो तक मिल रही है . ब्रेड से लेकर बटर तक सब की कमी हो रही है. उसकी बड़ी वजह ये है कि राजपक्षे सरकार ने अचानक ही पूरे देश में जैविक खेती करने का ऐलान कर दिया जिससे उत्पादन एकदम से घट गया और ऊपर से आयात नहीं किया गया. खेती किसी भी देश की रीढ़ होती है. भारत में मजबूत जीडीपी में खेती का बहुत बड़ा योगदान है. आज भारत के पास खाघान्न के भंडार तीन से चार साल तक की आपूर्ति के लायक है लेकिन मौसमी सब्जियों और तेल के दाम आसमान छूने से लोगों को परेशानी हो रही है. भारत में खेती कानून वापस लेकर सरकार ने सही कदम उठाया. खेती जैसे संवेदनशील मुददे पर अचानक नी जर्क यानी घुटना तोड़ प्रतिक्रिया सही नही होती .यहां बदलाव धीरे धीरे ही लाने चाहिये .

केंद्रीकरण से बचना होगा.

श्रीलंका में सत्ता और सरकार में पिछले कुछ सालों से राजपक्षे और उनके समर्थकों का ही कब्जा रहा है . पूरी सत्ता केंद्र में रही है और ज्यादातर फैसले कोलंबों में ही लिये गये .भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में विकेंद्रीकरण ही सबसे बेहतर है और अच्छी बात है कुछ बातों को छोडकर ज्यादातर विषय़ समवर्ती या राज्य की सूची में आते है .अब समय है कि राजनीति के परे हटकर केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर कोविड के बाद के असर और इकानामी के संवेदनशील मुददों पर मिलकर हल निकालें ताकि हम कोई ऐसी गलती ना करें जिसका खामियाजा आने वाली पीढि़यों को भुगतना पड़े .

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