Friday, April 19, 2024
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Homeअध्यात्म गंगा'आंख-मूसली, ओखल-काम, देते ये संकेत ललाम'

‘आंख-मूसली, ओखल-काम, देते ये संकेत ललाम’

वेदमाता गुरु गम्भीर मन्त्र श्रृंखाओं के साथ-साथ यदाकदा हल्की-फुल्की फुहारें भी छोड़ देती हैं, जिसे सुनकर मन हास्य विनोद में लोटपोट हो ही जाता है, किन्तु उसका अर्थ हितोपदेश से भरपूर होता है। अथर्ववेद काण्ड-११, सूक्त-३, मन्त्र संख्या-३ पर दृष्टिपात कीजिये।
“चक्षुर्मुसल काम उलूखलम्”
अर्थात् आंखें मूसल हैं तो कामनाएं ओखली है। काव्यतीर्थ पं. बिहारीलाल शास्त्री के दृष्टान्त सागर के प्रसङ्ग से हंसते-हंसते इस मन्त्र का अर्थ समझ में सहज ही आ जाता है। चार मूर्खों ने परामर्श किया कि राजा भोज एक कविता पर एक लाख रुपए का पारितोषिक देते हैं। चलो हम सब मिलकर एक कविता बनाएं और एक लाख रुपए प्राप्त कर जीवन भर चैन से रहें।

पहले ने देखा कि सामने रहट से सिंचाईं हो रही है, उसकी आवाज को सुनकर उसने कविता की पहली पंक्ति बना दी- ‘रहटा घनर घनर धन्नाय।’ दूसरे ने देखा कि सामने कोल्हू का बैल खड़ा-खड़ा भूसा खा रहा है। उसने भी अपनी पंक्ति बना दी- ‘कोल्हू का बैल खड़ा भूसा खाय।’ तीसरे ने सामने तीर-तूणीर बांधे हुए एक सैनिक को देखा और बोल पड़ा मेरी पंक्ति भी बन गई- ‘तरकस बांधे तरकस बन्द।’ चौथे को और कुछ नहीं सूझा तो बोल पड़ा- ‘राजा भोज है मूसलचन्द।’ अब उनकी कविता बन गई।
‘रहटा घनर-घनर धन्नाय, कोल्हू का बैल खड़ा भूसा खाय।
तरकस बांधे तरकस बन्द, राजा भोज है मूसलचन्द।।’
चतुर्कविमण्डल धारा नगरी में पहुंच गया और दरबार में अपने पहुंचने की सूचना दी। उन्हें निर्देशित किया गया कि पहले वे अपनी कविता राजकवि कालीदास को सुनायें। अनुमति होने पर दूसरे दिन राजा के सम्मुख प्रस्तुत करेंगे। कालिदास ने तीन कवियों की पंक्तियां ज्यों की त्यों मान ली, किन्तु चौथे कवि की पंक्ति अपमान जनक समझकर संशोधित कर दी। अब चारों कवियों की कविता राजा के सम्मुख यूं प्रस्तुत हुई-
‘रहटा घनर-घनर धन्नाय, कोल्हू का बैल खड़ा भूसा खाय।

तरकस बांधे तरकस बन्द, राजा भोज हैं पूनम के चन्द।।’
सुनकर राजा भोज एकदम रुष्ट होकर बोल पड़े। आपकी तीन पंक्तियां तो ठीक है, किन्तु चौथी पंक्ति का मेल तीन पंक्तियों से नहीं बैठता। इसलिए किसी को भी पुरस्कार नहीं दिया जाएगा। यह सुनकर चौथे मूढ़ कवि ने गुहार लगाई और कहा- महाराज यह पंक्ति मेरी नहीं है। आपके राजकवि कालीदास ने बदल दी है। राजा भोज ने कहा- तुम अपनी पंक्ति सुनाओ। उसने सुनाई- ‘राजा भोज है मूसलचन्द’ राजाभोज ने कहा अब ठीक है। तुम सबको घोषित राशि दी जाएगी। इसके बाद राजा भोज ने दरबार में सम्बोधित करते हुए कहा- ‘महाकवि कालीदासजी! आपने इन चारों को महामूढ़ कहा है और पुरस्कार के योग्य भी नहीं माना है, किन्तु इन्होंने मेरी आंखें खोल दी हैं। अब तक जो कवि आए उन्होंने मेरा अभिमान व अज्ञान को ही बढ़ाया है। किसी ने मुझे बलि व विक्रम बताया, किसी ने मेरे प्रताप को सूर्य व चन्द्र से भी बढ़ा दिया। किन्तु आज इन लोगों ने मुझे ठोकर लगाकर जगा दिया। वास्तव में मैं मूसलचन्द हूँ। मूसल केवल धान कूटता रहता है। उसे चावल का रस नहीं मिलता। हमारी कामनाएं ओखली के समान है जो कभी भरती नहीं है। धान आता-कुटता-निकल जाता, ओखली खाली की खाली। परलोक के लिए मैंने क्या शेष बचाया? यह विचारणीय है। ठीक ही कहा है कि वीर लोग तरकस बांधते हैं मृत्यु पर विजय के लिए, ज्ञान-गुणों से भरा तरकस। अविवेकी विलासी लोग कोल्हू के बैल की भांति क्रियाहीन होकर केवल भूसा खाते रहते हैं।’
संसार का रहट चक्र चल रहा है। ऊपर की घड़ियां (पात्र) खाली हो जाता है और नीचे की भर जाती है, वे फिर ऊपर आती और खाली होती जाती।

इसी प्रकार आज कोई ऊपर है तो कल नीचे। आज भरा है कल खाली। धन्य वहीं है जो समय रहते अपनी तैयारी कर लेते हैं। ये चारों भले ही तुक्कड़ी हैं, किन्तु इन्होंने मुझे शिक्षा बड़ी दी है। ठीक ही कहा गया है-
जीवन्तु में शत्रुगणा: सदैव येषां प्रसादात सुविचर्णोऽहय्।
यदायदा मां विकृतं भजन्ते तदा तदा मां प्रतिबोधयन्ति।
अर्थात्- मेरे विरोधी सदा जीवित रहें। उनकी कृपा से मैं बहुत सावधान हो गया हूं। वे जब-जब मेरा विरोध करते हैं, तब-तब मैं सुबोधवान होकर सजग बनता हूं। तात्पर्य यह कि ऐसा अवसर-कुअवसर आने पर हर कृति कीर्तिमान व्यक्ति को अपनी अन्त समीक्षा अवश्य करना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी कवि ने कहा है-
“निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छबाय।
बिनु पानी साबुन बिना शीतल करे स्वभाव।।”

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