Saturday, April 20, 2024
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संविधान के सम्मान का प्रयास किसान आंदोलन

भारत में लम्बे समय के बाद पंजाब की धरती से आरंभ हुआ किसान आंदोलन, स्वस्फूर्त लोक निर्णय से अन्याय के प्रतिकार हेतु शांतिमय सत्याग्रह है। *भारतीय किसान संगठनों ने सत्ता के नए कृषि कानूनों के द्वारा भारत की किसानी और जवानी पर पैदा होने वाले सभी षड़यंत्रों को समय पर समझकर इस संकट को रोकने में जो एकजुटता दिखायी है, वह अद्भुत है।*
सरकार ने किसान संगठनों में तोड़-फोड़ करने हेतु सभी खेल-खेले है। आरोप-प्रत्यारोप भी किए गए है। फिर भी *किसान संगठनों ने संवैधानिक व्यवस्था का सम्मान करते हुए ही कानूनों के विरूद्ध विरोध प्रकट किया है। शांति व धीरज से कानून रद्द कराने की बात पर अड़िग है। मुझे विश्वास है कि, ये सरकारी हठधार्मिता के सामने झुके बिना, इस सरकार को भारत के जनमत की बात मनवानें में सफल होंगे। सरकार भी अपनी उदारता दिखायेगी।

किसानों ने विश्वास पैदा करने हेतु आंदोलन की व्यवस्थाओं, इसके स्वयंसेवकों का सरकार और समाज के साथ सद्व्यवहार, आंदोलन पर लगने वाले झूंठे आरोपों का सृजनात्मक जबाव व आंदोलन में शामिल लोगों में किसानी-जवानी की बराबरी है। धर्म-जाति के नाम पर गैर बराबरी नहीं है। किसान नेताओं ने अपनी बहुत व्यस्तता के बावजूद सरकार के बुलावे पर सभी सरकारी बैठकों में जाना और वहाँ अनुशासित होकर अपनी बातचीत रखना व किसान संगठनों के समग्र व्यवहार को देखकर ही मेरे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता को आंदोलन की पवित्रता, शुद्धता, सरलता, सहजता और स्वास्फूर्ति देखकर आनंद होता है। मैं, इस आनंद में भारतीय लोकतंत्र का दर्शन करके गौरव का अनुभव करता हूँ। *किसान आंदोलन की बात सीधी व सरल है। भारत को गुलाम बनाने वाले ये तीनों कृषि कानून किसी भी किसान को नहीं चाहिए।*

भारत में खेती व्यापार नहीं, संस्कृति है। संस्कृति में श्रम का सम्मान होता है। किसानों की श्रम निष्ठा से उत्पन्न किया हुआ अन्न-दाल-सब्जियों, दूध आदि किसी भी कम्पनियों की मनमानी पर बाजार में बिकेगा तो, उसमें बाजार केवल लाभ ही खोजेगा, उसमें श्रम का शुभ व सम्मान नहीं बचेगा।

भारत की जनता, जिस लोकतांत्रिक तरीके से अपनी सरकारी व्यवस्था बनाती है, उसका यह दायित्व बनता है कि, वह स्वयं अपने किसान-मजदूर और जवान को सम्मान देने वाली व्यवस्था कायम करें। जो सरकार अपनी जिम्मेदारी चंद उद्योगपतियों के कंधे पर रखती है, वे उद्योगपति फिर सरकार को भी अपना बैल बनाकर, हल खींचने की जिम्मेदारी दे देते है।
तीनों कृषि कानून हेतु बैल बनकर हल खींचने की जिम्मेदारी सरकार अब उद्योगपतियों के लिए निभा रही है। *सरकार व उद्योगपतियों की साझी-हठधार्मिता के कारण देश के इस इतिहासिक आंदोलन में लाखों किसान, महिनों तक हमारी लोकतांत्रिक सरकार उद्योगपतियों की बैल बन गयी है।

हमारी सर्वोच्च सम्मानीय न्यायपालिका को भी किसान आंदोलन को बाँटने व तोड़ने हेतु उपयोग करने वाली सरकार का अब भारत की भोली-भाली जनता पर चुनाव में वोट लेने वाला खेल चल नहीं सकेगा।मतदाताओं को ऐसा विश्वास था कि भारतीय नेता सत्ता में बैठकर, अपने मतदाता से ऐसा छल नहीं करेंगे।* अब ये कृषि कानून व भारतीय जनता को धोखा देने का षड़यंत्र कर ही दिया है। भारतीय लोकतंत्र के नेताओं के ऊपर से भी अब विश्वास हटने लगा है। भारत में सरकार और लूटेरी कम्पनियों में समझौते, अन्नदाता किसान को लूटने के लिए अभी तक नहीं हुआ था; जैसा अब हुआ है। यह *भारतीय किसानों के इतिहास में पहली घटना है, जब उद्योगपतियों ने स्वयं खेती के लिए अपना कानून प्रारूप तैयार करवा कर, सरकार से भी लोकसभा और राज्यसभा में मुहर लगवा ली है। मुहर लगवाने की कहानी भी अब भारत का किसान जानने लगा है।

सरकार ने किसान आंदोलन का सम्मान नहीं किया तो, भारत के संविधान का अपमान होगा।* पूरी दुनिया अभी तक भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानती और बोलती है, वह भी भारत में अब लोकतंत्र नहीं; उद्योगपतियों का तानाशाही मानेगी। केवल व्यापार व बाजार ही भारत में राज चलाता है, यह आरोप महान भारत के ऊपर लगने लगेंगे और फिर भारत एक लोकतांत्रिक देश न होकर, एक बाजारू राष्ट्र बन जाऐगा।

मैं, अपने विश्वास पर अभी भी अड़िग हूँ कि, भारत एक लोकतांत्रिक देश है, यह लोकतांत्रिक बना रहेगा। इस देश को लोकतांत्रिक बनाए रखने में किसान आंदोलन की भूमिका स्वार्णिम अक्षरों में लिखी जाएगी।* अब उद्योगपतियों की तानाशाही भी इस देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को रोक नहीं पायेगी। किसान आंदोलन में भारतीय मजदूर, किसान और जवान मिलकर भारतीय लोकतांत्रिक संविधान का सम्मान करेंगे।

(लेखक जल पुरुष के नाम से विख्यात हैं और दुनिया भर में पानी बचाने के अभियान से जुड़े हैं)

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