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रामकथा के प्रथम अन्वेषक फादर कामिल बुल्के

(हिन्दी के योद्धा : जिनका आज जन्मदिन है)

ईसाई धर्म के प्रचार के लिए बेल्जियम से भारत आकर यहां की नागरिकता स्वीकार करने वाले, हिन्दी को अपनी माँ, राम को अपना आदर्श और तुलसी के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले डॉ. फादर कामिल बुल्के (1.9.1909- 17.8.1982) रामकथा पर गंभीर शोध करने वाले पहले अनुसंधित्सु हैं. ‘रामकथा –उत्पत्ति और विकास’ आज भी रामकथा पर सर्वश्रेष्ठ शोध कार्य माना जाता है. अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान डॉ. बुल्के के सामने यदि कोई हिन्दी भाषी अंग्रेजी बोलता था तो वे नाराज हो जाते थे और हिन्दी में जवाब देते थे. वे 1950 से लेकर 1977 तक सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची में हिन्दी एवं संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे.

‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ उनकी दूसरी ऐसी महत्वपूर्ण कृति है जिसका आज भी कोई विकल्प नहीं है. साहित्य के अध्येताओं के लिए यह सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला शब्दकोश है.

यह एक संयोग ही है कि लॉर्ड मैकाले के भारत आने के ठीक एक सौ वर्ष बाद 1935 में बुल्के मिशनरी काम से भारत आए. कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट म्युनिसिपैलिटी के एक गाँव रम्सकपेल में 1909 में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था. उन्होंने लूवेन विश्वविद्यालय (लिस्सेवेगे) से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री ली और उसके बाद 1930 में जेसुइट बन गए. बाद में जेसुइट सेमिनरी से लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने बुल्के ने अपना जीवन एक सन्यासी के रूप में बिताने निश्चय किया और कई महत्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद 1935 में भारत आ गए. यहां उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज दार्जीलिंग में और येसु संघियों के मुख्य निवास स्थान मनरेसा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया. उन्होंने गुमला (वर्तमान झारखंड में) लगभग 5 वर्ष तक गणित पढ़ाया. 1941 में वे पुरोहित बने. इसके पूर्व उन्होंने 1940 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से ‘साहित्य विशारद’ की परीक्षा पास की थी. 1944 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया और उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में हिन्दी में एम.ए. और 1950 में डॉक्टोरेट. 1951 में उन्होंने भारत की नागरिकता ग्रहण की.

भारत आने और अपने अध्ययन–अध्यापन की यात्रा के बारे वे स्वयं कहते हैं, “मेरी जन्मभूमि बेल्जियम के उत्तर में फ्लेमिश भाषा बोली जाती है और दक्षिण में फ्रेंच भाषा. फ्रेंच विश्व भाषा है. अत: समस्त बेल्जियम में उसका बोलबाला था. फ्रेंच, विश्वविद्यालीय तथा उच्च माध्यमिक विद्यालय में शिक्षण का माध्यम थी और उत्तर बेल्जियम के बहुत से मध्यवर्गीय परिवारों में भी फ्रेंच बोली जाती थी.

इस परिस्थिति के विरोध में फ्लेमिश भाषा का आन्दोलन प्रारंभ हुआ, जो मेरे विद्यार्थी जीवन के समय प्रबल होता जा रहा था. मैं भी उस आन्दोलन से सहानुभूति रखता था और इकतीस की उम्र में सन्यास लेने तक इसमें सक्रिय भाग लेता रहा.

मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं सन् 1935 ईं में राँची पहुंचा और यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है, बल्कि अंग्रेजी का ही बोलबाला है. मेरे देश की भांति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. उसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिन्दी पंडित बनने का निश्चय किया. यह निश्चय एक प्रकार से मेरे शोध कार्य की ओर प्रथम सोपान है.” ( हिन्दी चेतना, जुलाई -2009, पृष्ठ-31) बेहद कुशाग्र बुद्धि वाले कामिल बुल्के ने केवल पांच सालों में न केवल हिंदी बल्कि संस्कृत पर भी पूरा अधिकार कर लिया. उन्होंने अवधी, ब्रज, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश की भी अच्छी जानकारी हासिल कर ली.

जब कामिल बुल्के का जेसुइट धर्मसंघ में प्रशिक्षण समाप्त हुआ, तो संघ के अधिकारियों से उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए अनुमति मांगी और उन्हें उनकी रुचि के अनुरूप हिन्दी में एम.ए. करने की अनुमति मिल गयी. इसके लिए वे इलाहाबाद गए और एम.ए. में एडमीशन लिया. उस समय डॉ. धीरेन्द्र वर्मा विभागाध्यक्ष थे. जब वे एम.ए. द्वितीय वर्ष में थे तभी डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने उनकी प्रतिभा के पहचाना और हिन्दी में शोध करने के लिए प्रेरित किया. उन्ही के निर्देश पर डॉ. माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में राम कथा पर शोध के लिए उनका पंजीकरण हुआ. वे लिखते हैं, “रामकथा पर शोध –कार्य प्रारंभ करने की प्रेरणा मुझे इन तीन तत्वों से मिली – हिन्दी-प्रेम, तुलसी के प्रति श्रद्धा तथा डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की उदारता.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-31)

‘रामकथा : उत्पति और विकास’ में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, बंगला, तमिल आदि सभी प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध रामविषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन् तिब्बती, वर्मी, इंडोनेशियाई, थाई आदि भाषाओं में उपलब्ध समस्त राम साहित्य का अत्यंत वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया गया है. इसके प्रकाशन के साथ ही फादर बुल्के की गणना भारत विद्या और हिन्दी के प्रतिष्ठित विद्वान के रूप में होने लगी.

डॉ. फादर बुल्के का शोध- प्रबंध हिन्दी माध्यम में प्रस्तुत हिन्दी विषय का पहला शोध- प्रबंध भी है. जिस समय फादर बुल्के इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय विश्वविद्यालय के सभी विषयों के शोध- प्रबंध केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करने का विधान था. फादर बुल्के के लिए अंग्रेजी में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करना सरल भी था, किन्तु यह बात उनके हिन्दी स्वाभिमान के विपरीत थी. उन्होंने आग्रह किया कि उन्हे हिन्दी में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान की जाय. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा ने उनके आग्रह पर शोध- संबंधी नियमावली में संशोधन कराया और उन्हे अनुमति दी. इसके बाद तो अन्य उत्तर भारतीय विश्वविद्यालयों में भी आधुनिक भारतीय भाषाओं में शोध- प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाने लगी. डॉ. बुल्के को 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी.फिल. की उपाधि मिली. इसी वर्ष उनकी नियुक्ति सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची के हिन्दी-संस्कृत विभाग के अध्यक्ष पद पर हो गई और वे वहां इस पद पर अवकाश ग्रहण करने अर्थात 1977 तक रहे.

अपना शोध-प्रबंध जमा करने के बाद भी डॉ. बुल्के इसी विषय पर अगले 18 वर्ष तक काम करते रहे. उनकी इस कृति के बारे में उनके गुरु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है, “ इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है. वास्तव में यह शोध- प्रबंध अपने ढंग की पहली रचना है. हिन्दी क्या, किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है.” हिन्दी परिषद, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने स्वयं इसे प्रकाशित करके इसकी गुणवत्ता पर मुहर लगा दी.

रामकथा और तुलसी की भक्ति के बारे में डॉ. बुल्के ने लिखा है, “वास्तव में रामकथा आदर्श जीवन का वह दर्पण है, जिसे भारतीय प्रतिभा शताब्दियों तक परिष्कृत करती रही. इस प्रकार रामकथा भारतीय आदर्शवाद का उज्जवलतम प्रतीक बन गई है. वाल्मीकि के परवर्ती रामकाव्य के कवियों में तुलसी का स्थान अद्वितीय है. उन्होंने वाल्मीकि और लोकसंग्रह का पूरा-पूरा निर्वाह किया है और उस रामकथा के सोने में भगवद्भक्ति की सुगंध जगा दी है.

तुलसीदास ने भगवद्भक्ति के विषय में जो संदेश दिया है, वह वाल्मीकि के नैतिक आदर्श की भांति विश्वजनीन है. इष्टदेव के प्रति अनन्य आत्म-समर्पण के साथ- साथ अपने दैन्य की तीव्र अनुभूति तुलसी की भगवद्भक्ति की प्रमुख विशेषता है. उन्होंने कहीं भी कर्मकाँड पर बल नहीं दिया, कहीं भी मन्दिर में होने वाली पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया. भक्तिमार्ग की नींव नैतिकता है और अपनी उक्त प्रमुख विशेषता के कारण वह सब संप्रदायों के ऊपर उठकर मानव मात्र के लिए उपयुक्त है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ- 32)

उन्होंने एक जगह लिखा है, “अव्याहतानुयोगी मुनिजन: अर्थात् साधु से कोई भी प्रश्न पूछा जा सकता है. संस्कृत की इस उक्ति के अनुसार लोग मुझसे ये नितान्त व्यक्तिगत प्रश्न पूछने में संकोच नहीं करते. “ विद्वान होते हुए भी आपका ईसा में इतना दृढ़ विश्वास कैसे ? विदेशी होते हुए भी हिन्दी तथा भारतीय संस्कृति से इतना प्रेम कैसे ? ईसाई होते हुए भी तुलसी पर इतनी श्रद्धा कैसे ? इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है कि ईसा, हिन्दी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और कि मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं. बल्कि गहरा संबंध है.” ( उपर्युक्त, पृष्ठ-33)

अपनी तुलसी भक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है, “1938 में मैने ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपान्त पढ़ा. उस समय तुलसीदास के प्रति मेरे हृदय में जो श्रद्धा उत्पन्न हुई और बाद में बराबर बढ़ती गई, वह भावुकता मात्र नहीं है. साहित्य तथा धार्मिकता के विषय में मेरी धारणाओं से इस श्रद्धा का गहरा संबंध है.” (उपर्युक्त, पृष्ठ 34)

फादर कामिल बुल्के का दूसरा ऐतिहासिक कार्य ‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ है. उन्होंने पहले अन्य भाषा- भाषियों की सुविधा के लिए ‘ए टेक्निकल इंग्लिश हिन्दी ग्लॉसरी’ लिखा और उसकी लोकप्रियता को देखते हुए बाद में ‘अंग्रेजी- हिन्दी कोश’ तैयार किया जो 1968 में प्रकाशित हुआ. आज भी यह कोश साहित्यिक अभिरुचि के लोगों में सर्वाधिक प्रचलित कोश है. इसके विषय मे विष्णु प्रभाकर ने लिखा है, “मुझे यह कोश अबतक के सभी ऐसे कोशों में सबसे उपादेय और सही लगा.”( अंगरेजी- हिन्दी कोश के फ्लैप से ) और इलाचंद जोशी ने लिखा है,”यह कोश न केवल हिन्दी और अंग्रेजी के नए पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा वरन् हम जैसे पुराने घिसे हुए लेखकों के लिए भी बड़े काम की चीज सिद्ध होगा…. स्वयं मुझे अपने निबंधों के लेखन में इससे बड़ी सहायता मिली है.” (अंगरेजी-हिन्दी कोश के फ्लैप से )

फादर बुल्के का विश्वास था कि ज्ञान- विज्ञान के किसी भी विषय की संपूर्ण अभिव्यक्ति हिन्दी में संभव है और अंग्रेजी पर आश्रित बने रहने की धारणा निरर्थक है. उनका दृढ़ विश्वास था कि हिन्दी निकट भविष्य में ही समस्त भारत की सर्वप्रमुख भाषा बन जाएगी.

अपने कॉलेज मंच से भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, “ संस्कृत राजमाता है, हिन्दी बहूरानी है और अंग्रेजी नौकरानी है. पर नौकरानी के बिना भी काम नहीं चलता.” वे कहा करते थे कि दुनिया भर में शायद ही कोई ऐसी विकसित साहित्य भाषा हो जो हिन्दी की सरलता की बराबरी कर सके. अपनी मातृभाषा फ्लेमिश से भी उन्हें अत्यधिक अनुराग था. डॉ. बुल्के इस बात के गवाह हैं कि जो व्यक्ति अपनी मातृभाषा से प्यार करता है वही दूसरे की मातृभाषा से भी प्यार कर सकता है.

लंबे समय तक फादर बुल्के के संपर्क में रहने वाले डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के शब्दों में, “ फादर बुल्के उन विदेशी सन्यासियों में थे, जो भारत आकर भारतीय से अधिक भारतीय हो गए थे. उन्होंने यहां की जनता के जीवन से अपने को एकाकार कर लिया था. उन्हे देखकर कोई भी व्यक्ति यह अनुभव कर सकता था कि सन्यास का अर्थ जीवन और जगत का निषेध न होकर स्वत्व का निषेध है और स्व का ऐसा विस्तार, जिसमें पूरी दुनिया के लिए ममत्व भरा हुआ है.” ( हिन्दी चेतना, डॉ. कामिल बुल्के विशेषांक, जुलाई 2009, पृष्ठ-19)

उनके द्वारा रचित छोटी बड़ी पुस्तकों की संख्या 29 है. जिसमें प्रमुख हैं, ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’, ‘हिंदी-अंगरेजी लघुकोश’, ‘अंगरेजी-हिंदी कोश’, ‘रामकथा और तुलसीदास’, ‘मानस –कौमुदी’, ‘ईसा जीवन और दर्शन’, ‘एक ईसाई की आस्था’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’, ‘नीलपक्षी’ आदि.

इसके अलावा भी उनके सैकड़ों शोध- निबंध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. वे ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’, ‘काशी नागरी प्रचिरिणी सभा’ और ‘बेल्जियन रॉएल अकादमी’ के सम्मानित सदस्य थे.

निस्संदेह डॉ. फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावात्मक रूप से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया. भारत सरकार ने साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मनित किया.

17 अगस्त 1982 को गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया. सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची के प्रांगण में स्थित उनके आवास व पुस्तकालय को ‘डॉ. फादर बुल्के शोध संस्थान’ के नाम से विकसित किया गया है. इस पुस्तकालय और शोध -केन्द्र के प्रभारी ने मुझे बताया था कि इसका संचालन उनकी पुस्तक ‘अंगरेजी हिन्दी कोश’ से मिलने वाली रॉयल्टी से होता है.

‘फादर कामिल बुल्के : भारतीय संस्कृति के अन्वेषक’ शीर्षक से शैल सक्सेना ने फादर बुल्के पर एक पुस्तक लिखी है और डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने साहित्य अदकादमी के लिए ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ सिरीज के अंतर्गत उनपर एक विनिबंध लिखा है.

हरिवंशराय बच्चन ने फादर बुल्के के ऊपर एक कविता लिखी है. कविता निम्न है-

“फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम”

जन्मे और पले योरुप में, पर तुमको प्रिय भारत धाम.

रही मातृभाषा योरुप की, बोली हिन्दी लगी ललाम.

ईसाई संस्कार लिए भी, पूज्य हुए तुमको श्रीराम.

तुलसी होते तुम्हें पगतरी के हित देते अपना चाम.

सदा सहज श्रद्धा से लेगा मेरा देश तुम्हारा नाम

फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम.”

आज डॉ. फादर कामिल बुल्के की 111वीं जन्मतिथि है. इस अवसर पर हम हिन्दी भाषा और राम- कथा पर किए गए उनके असाधारण शोध- कार्य का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

(लेखक कोलकोता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)

प्रस्तुति
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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