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स्वरुपचंद गोयल बनना इतना आसान नहीं है

मुंबई के जाने माने समाजसेवी और पूरे देश भर में बाबूजी के नाम से जाने पहचाने जाने वाले स्वरुपचंद जी गोयल का मुंबई में 89 वर्ष की आयु में निधन हो गया। अगले महीने 18 अगस्त को उनके जन्मदिन को बड़े पैमाने पर मनाने की तैयारी भी चल रही थी, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। 18 अगस्त 1930 को स्वरूपचंद गोयल आजीवन विभिन्न धार्मिक उपक्रमों के माध्यम से धन संग्रह कर वनवासी क्षेत्रों में संस्कार केंद्र, एकल विद्यालय से लेकर स्वास्थ्य केंद्र, सामाजिक केंद्र की स्थापना में सहयोग करते रहे।

चौथी पास एक व्यक्ति अपने दोस्त के कहने पर आगरा से मुंबई आता है और देखते ही देखते मुंबई के क्षितिज पर एक अपरिहार्य व्यक्तित्व बनकर छा जाता है। किसी फिल्मी कहानी की तरह स्वरुपचंद गोयल अपनी ऐसी पहचान बनाते हैं कि मुंबई का मारवाड़ी समाज, उद्योग, व्यापार कारोबार से लेकर धार्मिक व सांस्कृतिक जगत से जुड़े लोगों में किसी नक्षत्र की तरह जगमगाते रहते हैं। उन्होंने मुंबई में अपनी राजनितिक यात्रा भारजीय जनता पार्टी के कोषाध्यक्ष के के रूप में शुरु की जिस भाजपा को तब कोई पाँच दस रुपये चंदा नहीं देता था स समय स्वरूपजी स्व. राजमाता, स्व. वाजपेयी से लेकर भाजपा के तब के बड़े से बड़े दिग्गज नेताओं को एक करोड़, पाँच करोड़ रुपये की थैली देने के माध्यम से जो अभियान चलाकर उसे सफल बनाया वह किसी चमत्कार से कम नहीं था।

स्वरुपजी की इस पहल से ही भाजपा को आर्थिक ताकत मिली। स्वरुपजी मुंबई के एक ऐसे चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे जिनके मार्गदर्शन में ऐसे हजारों समर्पित कार्यकर्ता तैयार हुए जिन्हें देश के वनवासियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वाववंबन के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा मिली। संपर्कों का विशाल नेटवर्क होने के बावजूद कभी किसी को अपने व्यक्तिगत काम के लिए नहीं कहा। भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से चुनाव लड़ने वाले कई ऐसे नेता हैं जो स्वरूपजी के बलबूते पर ही चुनाव लड़े और जीत सके। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री राम नाईक जब मुंबई में एक कार्यकर्ता के रूप में स्कूटर पर घूमते थे तो स्वरूपजी ने ही उन्हें सबसे पहले जीप दिलवाई। ऐसे पचासों उदाहरण हैं कि किस तरह स्वरूपजी लोगों की मदद करते थे।

मुंबई शहर में एक से एक धनाढ्य लोग हैं, लेकिन उन धनाढ्य लोगों के बीच स्वरूपजी जैसा ही एक व्यक्ति ऐसा था जिसके पास कहने को तो कुछ नहीं था लेकिन शहर भर के धनपति उसके आगे झुकते थे। मुंबई के सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक क्षेत्र का कोई ऐसा काम नहीं जिसे स्वरुपजी ने शुरु किया हो और वो सफल नहीं रहा हो। मुंबई में होने वाली रामलीलाएँ हों या गिरगांव चौपाटी पर होने वाला कवि सम्मेलन आज इस बात के गवाह हैं कि स्वरुपजी यानी आदरणीय बाबूजी की सोच कितनी आगे की थी। गिरगांव के इसी कवि सम्मेलन के मंच पर स्व. अटलबिहारी बाजपेयी से लेकर नीरज और हिंदी कविता के हर दिग्गज नाम को बाबूजी ने आमंत्रित कर उनको पहचान दी। आज भी देश का हर हिंदी कवि यहाँ आकर कविता पढ़ना अपना सौभाग्य समझता है। मुंबई शहर के तमाम मारवाड़ी व्यापारी, उद्योगपति स्वरुपजी के एक इशारे पर लाखों रुपये का दान कर देते थे।

मुंबई में पहली होली पर किसी ने रंग नहीं लगाया तो अवसाद में डूब गए, मगर फिर अपनी मेघा, मिलनसारिता और संकल्प शक्ति के बल पर पूरे मुंबई को उत्सवमयी बना दिया। जो वार-त्यौहार लोग रस्मी तौर पर मनाते थे, स्वरूपजी ने परिवारों और समाज के सभी लोगों को जोड़कर उन पर्वों में जान फूंक दी। संपन्न परिवार की जो महिलाएँ सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने में हिचकिचाती थी, उन महिलाओं को स्वरूपजी ने समाज की हर गतिविधि में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। ज़ी नेटवर्क के अध्यक्ष श्री सुबाष चन्द्रा ने जब उन्हें अग्रोहा विकास ट्रस्ट की जिम्मेदारी दी तो पूरे देश के अग्रोहा बंधुओं को जोड़ने के साथ ही हिसार स्थित अग्रोहा धाम के निर्माण में जी जान से जुट गए।

स्वरूप चंद जी गोयल 1943 में संघ के स्वयंसेवक बने, जब 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा तब आंदोलन के कारण जेल में कई माह रहे । 1960 में आगरा के अपने एक स्वयंसेवक मित्र लाला रामकिशन जी के आग्रह पर मुम्बई सपरिवार आगये और यहां व्यपार शरू किया।आगरा में संघ जनसंघ में अति सक्रिय रहते थे लेकिन मुम्बई में सम्पर्क जैसे ही बढ़ा पुनः व्यापार के साथ साथ संगठन के कार्य में तेज़ी से लग गए।

मुम्बई में राम नाईक जी, कानिटकर जी, विनोद गुप्ता जी, जैसे साथी मिल गए। इसी बीच सामाजिक कार्य भी मुम्बई में प्रारंभ कर दिए। बड़ी बड़ी रामलीलाओं का आयोजन चौपाटी, शिवजी पार्क आदि अन्य स्थानों पर शुरू किए ।1975 में आपातकाल लगने पर भूमिगत रहते हुए सत्याग्रहियों को जेल भेजना शुरू किया। सरकार की कुदृष्टि पड़ी और इनको मीसा में 15 महीने आर्थर रोड जेल में रखा। 1977 में ही छुटे। इस बीच जेल में बहुत से स्मगलरों को समझने का कार्य किया तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी समक्ष आत्मसमर्पण करवाया। 1977 में जनता की पुकार नाम से एक संस्था खोली तब से आज तक इसके माध्यम से धन एकत्रित कर सामाजिक कार्यो के लिए समर्पित किये जैसे केशव सृष्टि, नाना पालकर रुग्ण सदन, वात्सल्य ग्राम वृंदावन, सायन हनुमान टेकरी पर कैंसर पीड़ितों की सुविधा प्रारम्भ की। जन कल्याण सहकारी बैंक श्री वेद प्रकाश गोयल जी के साथ शुरू की।मुम्बई में आगरा के नागरिकों को जोड़कर आगरा नागरिक संघ बनाया ,जिस संस्था ने आगरा में ऐतिहासिक लाल किले के मुख्य द्वार के सामने अष्ट धातु की अश्वारोही विशाल मूर्ति लगवाई , तब के मुख्यमंत्री श्री विलासराव देशमुख ने स्वयं श्री लालकृष्ण आडवाणी जी के साथ मूर्ति का अनावरण किया। उसी परिप्रेक्ष्य में बाबा साहब पुरंदरे जी के प्रसिद्ध जानता राजा नाटक का आगरा में किले के सामने ग्राउंड कई दिन मंचन करवाया तथा महाराष्ट्र के गौरवमयी इतिहास को आगरा में प्रसारित किया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री श्याम जी गुप्त के साथ मिलकर वनवासी क्षेत्रों में एकल विद्यालय योजना तथा कथाकार योजनाओं का विशाल संगठन प्रारंभ किया और बहुत तेजी से पूरे देश मे बढ़ाया। उसमें शिक्षा, संस्कार,के साथ स्वाथ्य भी जोड़ दिया। इस सामाजिक कार्य मे समाज की महिला शक्ति को बड़े रूप में साथ में लिया और उनको समाज के कार्य करने की प्रेरणा दी। सभी श्री स्वरूप जी को प्यार से बापू जी कहते हैं । राजनीतिक जीवन तथा सामाजिक जीवन मे अपने नाम की , प्रसिद्धि की कभी भी चाह नहीं रखी। चुनाव के टिकिट के लिए लाइन रहती है परंतु बापूजी ने कभी भी चुनाव नहीं लड़ा , हमेशा मना ही कर दिया जबकि पार्टी इनको चुनाव लड़ने का दबाब बनाती थी। बापूजी मुम्बई भारतीय जनता पार्टी के कोषाध्यक्ष भी रहे हैं। श्री स्वरूप जी आगरा के मूल निवासी थे और वहां पंडित दीन दयाल जी उपाध्याय, अटल जी आडवाणी जी, अशोक जी सिंघल , आचार्य गिरिराज किशोर जी के सम्पर्क में लगातार रहे। जीवन भर इतने बड़े कर्मयोगी रहे कि वर्णन करना असंभव ही है। श्री स्वरूप जी के जीवन के75 वर्ष पूर्ण होने पर अमृत महोत्सव कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए संघ के तत्कालीन सरसंघचालक स्व श्री सुदर्शन जी ने कहा था कि एक स्वयंसेवक कैसा होना चाहिए वह सब श्री स्वरूप जी के आचरण में है। वे एक आदर्श स्वयंसेवक हैं।

देश के करोड़ों वनवासियों के शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध कराने के लिए मुंबई के धनाढ्य समाज को ऐसा प्रेरित किया कि करोड़ों रुपये का सहयोग देश के गाँव-गाँव में पहुँचा। स्वरूपजी को दान देने वाले कई लोग आज भी मानते हैं हमने तो पैसा कमाना सीखा था मगर स्वरूपजी ने हमें ये सिखाया कि पैसा सही कामों में कैसे लगाया जाता है। जो लोग किसी व्यक्ति या संस्था को नाममात्र का दान देना पसंद नहीं करते ते वो स्वरूपजी के एक फोन पर लाखों रुपये भिजवा देते थे, और मजाल है कि स्वरूपजी इस पैसे में से एक पैसा भी दुरुपयोग होने दे। खुद बरसों तक बसों में घूमते रहे मगर दान के पैसे को टैक्सी के लिए भी उपयोग में नहीं लिया।

संकल्पशक्ति ऐसी कि अगर तय कर लिया कि ये कार्यक्रम करना है तो वो होके ही रहेगा और सफल भी होगा। जिस षणमुखानंद हाल में अच्छी से अच्छी संस्थाओं को कार्यक्रम करने और उसमें लोगों को जुटाने में पसीना आ जाता था, स्वरूपजी डंके की चोट उसमें कार्यक्रम करते थे और मजे की बात ये कि इसमें भी जो समय पर नहीं पहुँचता था उसे बैठने की जगह नहीं मिलती थी। षणमुखानंद हाल के व्यवस्थापक खुद स्वरूपजी के इस जादू पर हैरान रह जाते थे। स्वरूपजी कोई भी कार्यक्रम रखे, उसमें भोजन की व्यवस्था इतनी शानदार होती थी कि कोई भी कार्यक्रम में जाने से वंचित होना नहीं चाहता था।

हर कार्यक्रम को करने के लिए स्वरूपजी कैसी योजना बनाते थे, इसका एक मजेदार उदाहरण याद आता है। 1998 में स्वरुपजी ने पं. विजय कौशल जी की कथा क्रांस मैदान पर रखी थी, उस कथा के सात दिन की एक एक व्यवस्था स्वरुपजी ने ऐसी बनाई कि अच्छी से अच्छी इवेंट मैनेजमेंट कंपनियाँ फैल हो जाए। उसमें उन्होंने एक व्यक्ति की ड्यूटी विजय कौशल जी के जूते के लिए लगाई थी कि जैसे ही वो कथा करके मंच से उतरे उनके जूते उन्हें उसी स्थान पर मिलना चाहिए। ये तो एक छोटी सी बानगी है, ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जो स्वरुपजी की के व्यक्तित्व में रचे बसे रहे।

कभी किसी ने स्वरूपजी को शानदार कपड़े पहने नहीं देखा, तुड़ा-मुड़ा कुर्ता और धोती बस यही उनका पहनावा रहा। कोई भी कार्यक्रम हो ज्यादा से ज्यादा दूसरे लोगों को मंच पर जाने और पहचान बनाने का मौका देते थे। किसी कार्यक्रम में उनका नाम आए, या वो मंच पर जाए उन्हें कतई पसंद नहीं था। मगर हाँ मंच पर बैठने वालों से वो उसकी पूरी कीमत वसूलकर ही रहते थे और वो पैसा केवल और केवल किसी परोपकारी या धार्मिक कार्य में ही खर्च होता था।

स्वरुपजी के बारे में कहा जाता था कि वे हाँ किसी को करते नहीं थे और ना किसी की सुनते नहीं थे। यानी अगर कोई चाहे कि वह स्वरूपजी के कहने पर दान देकर उनसे अपना कोई काम करा ले तो सपने में भी संभव नहीं था। स्वरुपजी के संपर्कों का इतना विशाल नेटवर्क था मगर मजाल है कि वो किसी से किसी को व्यक्तिदत काम की सिफारिश कर दे। यहाँ तक कि उन्होंने अपने बेटों के लिए भी किसी को सिफारिश नहीं की।

मुझे एक किस्सा याद आता है। तब केंद्र में अटलजी की सरकार थी। उनके मंत्रिमंडल में शामिल एक मंत्री मुंबई के ही थे और स्वरुपजी के अनन्य मित्र थे। कहीं से कोई एक व्यक्ति स्वरूपजी से मिलने आया और कहा कि आप मेरा काम उन मंत्रीजी से करा दीजिए मैं आपको पाँच लाख रुपये दूंगा। स्वरूप जी ने कहा मैं धर्म के काम के लिए चंदा जरुर लेता हूँ, लेकिन ये दलाली का काम नहीं करता। अब चूँकि आप काम लेकर आए हैं इसलिए मैं ये पैसा धर्म के काम के लिए भी नहीं लूंगा। अगर आप मुझसे ऐसे ही निवेदन कर देते तो मैं आपका काम करवा भी देता, मगर पैसे के दम पर तो मैं कोई काम हरगिज नहीं करुंगा..तो ऐसे थे बाबूजी।

मुंबई में नए नए आए ज़ी नेटवर्क के अध्यक्ष सुभाष चंद्रा जी ने जब बाबूजी से कहा कि आप मुंबई में अग्रोहा विकास ट्रस्ट की जिम्मेदारी सम्हालो तो बाबूजी ने पहली शर्त रखी कि वो इसके लिए कोई पैसा नहीं लेंगे। ये शर्त सुनकर तो सुभाषजी भी हैरान रह गए, उनको पहली बार कोई ऐसा व्यक्ति मिला था जो समाज के लिए काम करने के लिए पैसे लेने से इंकार कर रहा था। सुभाषजी ने उन्हें अग्रोह विकास ट्रस्ट की जिम्मेदारी दी और स्वरुपज जी ने पूरे मुंबई शहर ही हनीं बल्कि देश भर में अग्रोहा समाज की महिलाओं को समाज में काम करने के लिए सक्रिय किया।

ये मेरा सौभाग्य है कि नया नया मुंबई आया तो स्वरुपजी से पूर्व परिचय होने की वजह से उनसे मिलने जाता रहता था। उनके साथ कई जगह मीटिंगों में भी जाना होता। तब वो भारी भरकम ब्रीफकेस लिए बस से रही आते जाते थे। चंदे से मिला लाखों रुपया पास होने के बावजूद वो बस के पीछे भागकर ही बस पकड़ते थे। शाम को अग्रोहा विकास ट्र्स्ट के ऑफिस से निकलने के बाद किसी न किसी व्यापारी या उद्योगपति के घर चंदे के लिए मीटिंग होती थी, खाना भी उनके घर ही होता था और उसी खाने की मेज पर स्वरूपजी अपना बजट बता देते थे और कह देते थे कि आप सबको मिलकर इतने दिनों में इतने पैसे की व्यवस्था करना है। इस तरह उन्होंने पहली बार 1998 में वनवासियों के लिए क्रॉस मैदान पर आचार्य विजय कौशलजी महाराज के आचार्यत्व में भव्य कथा का आयोजन कर सारा पैसा वनवासियों के लिए भेज दिया। यही सिलसिला उन्होंने जीवन भर जारी रखा।

जनता की पुकार संस्था के माध्यम से उन्होंने गिरगाम चौपाटी पर रामलीला के आयोजन की शुरुआत की।

साल भर उनका एक ही एजैंडा रहता था, कहीं कथा हो जाए, कोई सामाजिक या धार्मिक कार्यक्रम हो जाए या फिर जो भी कार्यक्रम हो वो ऐसा हो कि उसमें पैसा इकठ्ठा हो जाए। स्वरूपजी ये पैसा वनवासी क्षेत्रों में संस्कार केंद्र, एकल विद्यालय से लेकर स्वास्थ्य केंद्र, सामाजिक केंद्र की स्थापना में लगा देते थे। उनकी सफलता देखकर कल्पना करना मुश्किल था कि ये सब काम किसी एक व्यक्ति के सोच के बलबूते हुए होंगे। बाबूजी मुंबई शहर की एक ऐसी शख्सियत थे जो सोच लेते थे वो करके ही रहते थे।

श्री हरि सत्संग समिति द्वारा देश भर में 3200 कथाकार भाई-बहनों को प्रशिक्षित किया गया जो वनवासी क्षेत्रों में जाकर सत्संग के माध्यम से वनवासियों को सामाजिक बुराईयों से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं। श्री हरि सत्संग समिति की स्थापना की गई थी। आज इसके माध्यम से देश भर में58 हजार सत्संग केंद्र वनवासी क्षेत्रों में चलाए जा रहे हैं, वर्ष 2022 तक इनकी संख्या 1 लाख तक करने का लक्ष्य रखा गया है।

एकल विद्यालयों की संख्या 80 हजार हो चुकी है ये स्वरूपजी का ही दम था कि उन्होंने इन संस्थाओं के संचालन में कभी पैसे की कमी आड़े नहीं आने दी।

फिल्म अभिनेत्री श्रीमती हेमा मालिनी ने खुद स्वीकार किया कि स्वरुपजी की वजह से ही मुझे देश के वनवासियों की हालत और उनकी समस्याओं के बारे में जानने को मिला। स्वरुपजी अपनी धुन के पक्के हैं और उन्होंने मुझे एकल अभियान का ब्रांड एंबेसेडर भी बना दिया लेकिन असली काम तो वही करते रहे, मेरा तो बस ही रहा।

जीवन के अंतिम क्षण तक वे देश भर के लाखों वनवासियों तक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा देने से लेकर संस्कार केंद्रों के माध्यम से उन्हें कथावाक बनाने, सनातनी संस्कारों से जोड़ने के अभियान से जुड़े रहे।

मुंबई में अग्रोहा विकास ट्रस्ट से लेकर एकल विद्यालय अभियान और श्री हरि सत्संग समिति के विस्तार में स्वरुपजी की अहम भूमिका रही।

ज़ी नेटवर्क एवं एस्सेल समूह के अध्यक्ष व राज्यसभा सांसद श्री सुभाष चन्द्रा का कहना है कि मुंबई में मुझे स्थापित करने और एस्सेल वर्ल्ड को शुरु करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने में स्वरुपजी की अहम भूमिका रही। उन्होंने हिसार में अग्रवाल समाज के तीर्थ अग्रोहा धाम को बनाने से लेकर देशभर में अग्रवाल समाज को जोड़ने व सामाजिक कुरुतियों को मिटाने में अपना भरपूर योगदान दिया।

स्वरूपचंद गोयल अपने पीछे दो बेटे, एक बेटी, पौत्र-पौत्रियों सहित भरा-पूरा परिवार छोड़ गये हैं. और इसके साथ ही अपने प्रशंसकों और समर्पित कार्यकर्ताओं को छोड़कर गए हैं जो तन-मन-धन से सामाजिक कार्यों के लिए अपना समय देते हैं।

प्रस्तुत है स्वरुपचंदजी गोयल पर एक कविता जिसमें पहले अक्षर से लेकर अंतिम अक्षर तक उनका नाम और व्यक्तित्व दोनों समा जाते हैं।

श्री स्वरुपचंद गोयल को बधाई

श्री चरणों में बैठ आज हम सब शीश नवाते हैं।

90 वें जन्म दिन के हम मंगल गीत गाते हैं

स्वहित भूलकर जिसने सबको गले लगाया

रुके नहीं थके नहीं, गीत सदैव सेवा का गाया

पल-पल समर्पण, ह्रदय पटल सेवा का स्पंदन

चंद्रमा की चांदनी बन अमावस को बनाया पूनम

दया, धर्म, दान, करुणा के भावों से गुंजाया हर मन

गोवंश के संवर्धन से सींचा वनवासियों का जीवन

यक्ष प्रश्नों को बौना कर हर बार किया चमत्कार

लक्ष्य भेदी इस महापुरुष का हम करें खूब सत्कार

कोई डिगा न सके तुममें ऐसी संकल्प शक्ति है

बनाई नई राहें ऐसी जहाँ केवल भाव भक्ति है

धाक जमाकर, मीत बनाकर हर प्रकल्प को सफल किया

ईश्वर से है यही प्रार्थना सदा प्रज्वलित रहे यज्ञ का ये दीया