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स्वाधीनता सेनानी वेद विदुषी उर्मिलादेवी शास्त्री

देश की आजादी के लिए महिलाओं ने पुरुषों से कहीं अधिक कष्ट झेले| यह एक प्राकृतिक नियम भी है कि महिलायें सदा ही पुरुषों से कहीं अधिक कार्य करती हैं| फिर चाहे वह घर का क्षेत्र हो या कार्यालय का अथवा दुकानदारी का| सब स्थानों पर महिलायें दृढचित होकर कार्य करती हैं और इसका परिणाम भी पुरुषों के किये कार्य से कहीं अधिक ही होता है| जहाँ तक शिक्षा और स्वाधीनता का प्रश्न है, आज शिक्षा क्षेत्र में तो नारियां अग्रणी की भुमिका निभा ही रही है और यह स्थिति भारत में तो प्राचीन काल से ही चली आ रही है| हमारे देश की नारियां अत्यधिक वेद विदुषी होती थीं, इस कारण उनका नाम वेद की ऋषिकाओं के रूप में अत्यधिक मात्रा में हमें मिलता है| जहां तक देश का प्रश्न है, यह ठीक है कि प्राचीन काल में देश को चलाने का कार्य पुरुष करते थे किन्तु जब जब नारी को देश की बागडोर मिली, उसने अपनी सूझ बूझ से थोड़े समय में ही अत्यधि कार्य कर दिखाया| जहाँ तक भारत के स्वाधीनता संग्राम का प्रश्न है, इस क्षेत्र में भी भारतीय नारियों ने अपनी वीरता के झंडे गाड़ दिए|

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में तो स्पष्ट रूप से ही नारियों को पुरुषों से कहीं अधिक मेहनत और कार्य करना होता था| वह क्रांति के कार्य करतीं थी, क्रान्ति वीरों का खाना बनातीं थी, उन्हें छुपाने का स्थान उपलब्ध करवातीं थीं और उनके लिए शस्त्र पहुंचाने का कार्य भी वह ही करती थीं और जब कभी वह अंग्रेज सरकार की जेल में जातीं तो जेल में भी उन्हें कैदियों के खाने की सब व्यवस्था करनी होती, जेल में तो वह रहतीं ही किन्तु अंग्रेज सरकार तथा उसके मुस्लिम कर्मचारियों के अत्याचार सहते हुए किस प्रकार वह अपने सतीत्व की रक्षा करतीं थीं, यह अनुमान लगा पाना भी असंभव है| इस प्रकार नारियो ने सदा ही पुरुष से दो कदम आगे रहते हुए देश के लिए कार्य किया है| इस प्रकार की ही नारियों में हमारी कथा नायिका स्वाधीनता सेनानी, वेद विदुषी, अंधविश्वासों तथा कुरीतियों का विरोध करने वाली वेद विदुषी माता उर्मिला देवी शास्त्री जी का नाम भी हमारे सामने आता है| आओ इस वीरांगना के संबंध मे कुछ परिचय प्राप्त करने का प्रयास करें:-

वर्तमान जम्मू कश्मीर के श्रीनगर प्रभाग में एक अच्छा खाता पिता तथा उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवार रहता था| यह परिवार अत्यन्त उच्च विचारों से युक्त विचारक, अंधविश्वासों, रुढियों, कुरीतियों का विरोधी तथा स्वामी दयानंद सरस्वती जी का परम भक्त होने के कारण उनकी शिक्षाओं का प्रचार, प्रसार करना अपना कर्तव्य समझने वाला था| इस प्रकार यह परिवार आर्य समाज का अभिन्न अंग था और आर्य समाज के आदर्शों को अपने अन्दर समाये हुए था| इस कारण यह परिवार समाज सुधार के कार्यों में तो लगा ही रहता था, इसके साथ ही साथ उस समय प्रचलित अंध परम्पराओं के नाश के लिए भी कार्य करता रहता था| इस समय देश पर अंग्रेज का राज्य था, स्वाधीनता नाम की कोई चीज देश के पास नहीं थी| इस कारण इस परिवार को उस समय की सोच के अनुसार यदि विद्रोही परिवार कहा जावे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी| इस परिवार में ही २० अगस्त १९०९ ईस्वी को जिस बालिका का जन्म हुआ, परिवार के संस्कारों के ही अनुरूप यह बालिका आगे चल कर अत्यंत वेद विदुषी बालिका ही नहीं निकली अपितु अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण इसे मेरठ की प्रसिद्ध नेत्री के रूप में भी पहचान मिली| इसका नाम उर्मिलादेवी रखा गया और उच्च वैदिक शिक्षा प्राप्त करने पर यह शास्त्री कहलाई|

उर्मिलादेवी जी अपने परिवार में कुल तीन बहिनें थीं| इसकी बड़ी बहिन का नाम सत्यवती जी था.जिनका का विवाह मलिक परिवार में हुआ| परिवार की परम्परा के अनुरूप इसने भी स्वाधीनता का दामन थामते हुए देश की स्वाधीनता के लिए खूब कार्य किया और इसके साथ ही साथ एक सुप्रसिद्ध लेखिका के रूप में भी अच्छी ख्याति अर्जित की| उर्मिलादेवी का स्थान बीच का था अर्थात् यह बहिनों में मंझली थी और छोटी बहिन का नाम पुरुषार्थवती था| पुरुषार्थवती भी एक उच्च कोटि की कवयित्री थी किन्तु ईश्वर की व्यवस्था कुछ और ही थी आवर पुरुषार्थ्वती का अल्पायु में ही देहांत हो गया| इस प्रकार यह दो बहिनें शेष रह गईं| उर्मिलादेवी अत्यधिक पुरुषार्थी, सिद्धान्त मर्मज्ञा, रुढियों कुरीतियों की नाशक और देश की स्वाधीनता के लिए लड़ने वाली वीरांगना थी| यह मात्र मिडिल कक्षा तक ही स्कूली शिक्षा प्राप्त कर पाई किन्तु अपने पुरुषार्थ और अपनी लगन से इसने संस्कृत और अंग्रेजी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया तथा यह इन दोंनों भाषाओं की अन्यतम विद्वानˎ बन गई| इसने इन दोनों भाषाओं के ग्रंथों का गहन रूप से अध्ययन भी किया| इस शिक्षा को आगे बढाने के लिए उर्मिलादेवी जी ने अनेक शास्त्रीय परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं| इस प्रकार स्कूली शिक्षा मिडिल तक ही होने के पश्चातˎ भी इस बालिका ने घर पर ही रहते हुए स्वयं अपनी ही मेहनत और पुरुषार्थ से उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली| सेवा की भावना तो परिवार से घुट्टी में ही मिली थी| अत: इतनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चातˎ उसने देहरादून के आर्य कन्या गुरुकुल में अवैतनिक रूप से अध्यापन का कार्य आरम्भ कर दिया|

समाज सुधार और देश सेवा की भावना तो उन्हें घुट्टी मे ही मिली थी किन्तु लाला जमना लाल बजाज जी के संपर्क में आने से इस क्षेत्र में और भी अधिक प्रेरित हुईं| सुधारवादी विचारधारा होने के कारण उनका विवाह भी एक सुधारवादी आर्य परिवार में हुआ| आर्य समाज के संस्कारों में पली बढी उर्मिला देवी जी ने सब प्रकार की रुढियों, कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को तोड़ते हुए बीस वर्ष की आयु में अर्थातˎ १९२९ ईस्वी में आर्य समाज के एक सम्मानीय विद्वानˎ पंडित धर्मेन्द्र शास्त्री जी से जाति बंधन तोड़ते हुए विवाह कर लिया| धर्मेन्द्र शास्त्री जी इन दिनों मेरठ में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्य कर रहे थे| इस प्रकार विवाहोपरांत वह मेरठ आ गईं और अपने कार्यों के कारण मेरठ की नेत्री जानी जाने लगीं| यहाँ आकर उर्मिला जी ने महिला उत्थान का कार्य अपने हाथ में लिया| यह कार्य आरम्भ किया ही था कि गांधी जी के विचारों का रंग उन पर अत्यधिक रूप से चढ़ गया ओर इससे प्रभावित होकर तथा गांधी जी के ही आह्वानˎ पर वह १९३० के स्वाधीनता आन्दोलन में कूद गईं|

गांधी जी का यह १९३० का आन्दोलन स्वदेशी आन्दोलन के रूप में जाना गया और इस आन्दोलन में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया| यह आन्दोलन अपने पूरे यौवन पर था| देश के विभिन्न स्थानों पर विदेशी कपडे तथा अन्य सामान की होली जलाई जा रही थी| इस अवसर अर मेरठ में एक नोचंदी मेला लगा| यह मेला मेरठ का अत्यधिक सुप्रसिद्ध मेला होता था| इस मेले के अवसर पर भी विदेशी कपडॉ का बहिष्कार एक आन्दोलन के रूप में किया गया| मेरठ के इस आन्दोलन का नेतृत्व हमारी कथानायक श्रीमती उर्मिलादेवी जी ही कर रहीं थीं| उर्मिलादेवी की इस महिला मंडली में तीस महिलायें स्वाधीनता के लिए इस आन्दोलन में भाग ले रहीं थीं| इन महिलाओं ने सत्याग्रह का जो शंखनाद किया, वह भी अपनी नेत्री उर्मिलादेवी के प्रभावशाली व्यक्तित्व, दृढ़ता तथा साहस को देखते हुए हीकिया| उर्मिलादेवी जी की प्रेरणा से प्रेरित इस महिला दल ने मेले की अस्सी प्रतिशत दुकानों को ताला लगवा दिया| यह उनकी देश के लिए एक बहुत बड़ी सफलता थी|

जब अंग्रेजी सामान, विशेष रूप से अंग्रेजी कपडे की मेरठ में बिक्री लगभग बंद हो गई, इस समय तक उर्मिला देवी जी दो अल्पायु बच्चों की माँ बन चुकी थी| जिस माता का १९२९ ईस्वी में विवाह हुआ हो और विदेशी बहिष्कार आन्दोलन १९३० में आरम्भ हुआ हो तो इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समय उसके यह दोनों नन्हे शिशु कितने छोटे रहे होगे| अभी तो वह मां का दूध ही पीने वाले रहे होंगे कि उस के देश के लिए दिए जा रहे योगदान और एक अग्रणी कार्यकर्त्री के रूप में उभर कर सामने आने के कारण अंग्रेज के कान खड़े हो गए| इस प्रकार न केवल वह अंग्रेज की आँखों का शह्तीर ही बन गई अपितु कुछ ही समय में अंग्रेजी सरकार और उसकी पुलिस को ज्यों ही अवसर मिला उर्मिलादेवी जी को अंग्रेजी सरकार ने बंदी बनाकर जेल भेज दिया| हां! न्याय का ढोंग अवश्य किया गया और इस ढोंग के अंतर्गत पूर्व निर्धारित व्यवस्था जे अनुसार तथाकथित न्यायालय ने इन्हें छः महीने के कठोर कारावास का दण्ड सुनाया गया| माता जेल में और दो अत्यंत अल्पायु के बच्चे जेल से बाहर, उन दोनों का पालन कैसे किया गया होगा?, इसे तो स्मरण करते ही आज की महिलाओं के तो रोंगटे ही खड़े हो जावेंगे| जहाँ तक माता उर्मिलादेवी जी का प्रश्न है, वह एक अत्यंत स्वतंत्रता प्रेमी और देश भक्त महिला थी| इस कारण इस माँ ने अपने इन दोनों नन्हे मुन्ने बच्चों के मोह से देश को कहीं अधिक प्राथमिकता दी, देश के लिए अपना अभियान जारी रखा और फिर इन्हें एक प्रकार से अनाथ ही छोड़कर जेल चलीं गईं|

उर्मिलादेवी जी एक अद्वीतीय कुशल संगठन क्षमता होने के साथ ही साथ उत्तम प्रशासक अथवा व्यवथापक भी थी| उसमें अभूतपूर्व नेतृत्व की क्षमता भी थी| जब इस आन्दोलन में गांधी जी को बंदी बना लिया गया तो उस के यह सब गुण सबके सामने आ गए| गांधी जी के जेल जाने से एक बार तो एसा लगा कि अब यह आन्दोलन ढीला पड़ जाएगा किन्तु इस अवसर पर उर्मिलादेवी जी ने अपने कौशल का खूब प्रदर्शंन किया और इस आन्दोलन को तीव्र गति देने के लिए उसने तत्काल तीन हजार महिलाओं का एक अच्छा खासा संगठन खडा कर लिया| अपनी उत्तम व्यवस्था का प्रदर्शन करते हुए उसने इन महिलाओं को सात टोलियों में बाँट दिया| इस प्रकार बनाई गई इन सात टोलियों में से प्रत्येक टोली को अलग अलग स्थानों पर स्वाधीनता की इस मशाल को जलाये रखने और इसे तीव्र गति देने के लिए निर्धारित कर दिया|

यह टोलियाँ बनाकर और उन्होंने अलग अलग स्थानों का कार्य देकर ही उर्मिला देवी जी चुप नहीं बैठ सकीं| देश की स्वाधीनता की आग की तीव्र लपटें तो उसके अंदर बड़ी तीव्र गति से उठ रहीं थीं अत: गान्धी जी की गिरफ्तारी के प्रश्न को भुनाने और उस से अन्य लोगों को भी प्रेरित कर अपने साथ जोड़ने के लिए उर्मिला जी ने नगर में अनेक स्थानों पर अनेक सभाएं कीं| इन सभाओं में उसने अपने प्रभाव का अत्यधिक प्रयोग किया और ओजस्वी भाषण दिए| इस प्रकार मात्र छ: घंटे में ही वह बीस सौ व्यक्तियों के प्रतिज्ञापत्र भरवा लेने में सफल हुईं| जो इस आन्दोलन को तेज गति देने के लिए काफी था|

इन्हीं दिनों मेरठ में कांग्रेस के एक प्रसिद्ध नेता होते थे, जिनका नाम प्यारे लाल जी था| इस नेता को भी अंग्रेज सरकार ने अपने बंदीगृह में डाल दिया| अंग्रेज के इस अत्याचार के विरोध में और अहिंसक रूप से चलाये जा रहे आन्दोलन को अंग्रेज द्वारा दबाए जाने के प्रयासों का विरोध करते हुए १७ जुलाई के सायंकाल के सन्ध्या के समय मेरठ में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया| उस युग में इस जनसभा में दस हजार से भी अधिक लोगों की उपस्थिति से पता चल जाता है कि मेरठ की जनता में उर्मिला जी के कारण स्वाधीनता की कितनी लपटें जल रहीं थीं| इस विशाल जन सभा को उर्मिला जी ने संबोधन किया| अपने संबोधन में उन्होंने उपस्थित जन समुदाय को यह जानकारी दी कि किस प्रकार ब्रिटिश सरकार भारतीयों पर निरंतर अत्याचार कर रही है और उनसे नागरिक अधिकार भी छीन लिए गए है| पराधीनता से हमें क्या हानि हो रही है और स्वाधीनता से हमें क्या क्या लाभ होंगे| यह भाषण अत्यधिक ओजस्वी था| इससे मेरठ के लोगों में एक नया उत्साह पैदा हुआ और वह इस आन्दोलन में और भी अधिक वीरता के साथ कूद पड़े| जनवरी को यह जनसभा हुई और दिन निकलने से पहले ही अंग्रेज की पुलिस ने उर्मिला जी को पकड़ कर जेल की सींखचों के पीछे भेज दिया| पूर्व व्यवस्था के अनुसार उन्हें दण्ड देना ही था, इसलिए मुकद्दमें का ड्रामा किया गया और उन्हें इसका दंड सुनाते हुए जेल में भेज दिया गया|

अंग्रेज की जेल में महिला पर अत्यधिक कत्याचार करते हुए उनको अत्यधिक परेशान करने के साथ ही साथ उन्हें मानसिक रूप से भी परेशान किया जाता था| इस प्रकार जेल का वातावरण तथा जेल के कर्मचारियों का गन्दा व्यवहार होने से जेल में बंद अधिकांश महिलाओं के स्वास्थय को अत्यधिक प्रभावित किया करता था| इस प्रकार जेल में रह रहीं महिलाओं का स्वास्थय नष्ट हो जाया करता था| इस कारण ही जेल से बाहर आने पर भी वह दो महीने तक अपने स्वास्थय को ठीक करने में ही लगी रहीं| इन दिनों आन्दोलन का कोई जोर भी नहीं था|

चाहे आन्दोलन चल रहा हो अथवा नहीं किन्तु जिस में देश की स्वाधीनता की आग जल रही हो, एसा क्रियाशील व्यक्ति कभी निठल्ला नहीं बैठ सकता| उर्मिलादेवी जी के साथ भी कुछ एसा ही हो रहा था| अत; इन दिनों लाहौर जाकर वहां से उसने “जन्म भूमि” नाम से एक दैनिक पत्र आरम्भ किया और स्वयं इस पत्र की संपादिका बन कर देश की स्वाधीनता की ज्योति जगाने के लिए कार्य करने लगीं| जिस प्रकार वह भारती जनता में जोशीले भाषण दिया करती थीं, उस प्रकार ही उर्मिला जी ने इस पत्र के सम्पादकीय भी बड़े ही जोशीले बनाकर लिखने आरम्भ कर दिए| इन सम्पादकीय लेखों से जन जन को स्वाधीनता के लिए अत्यधिक प्रेरणा मिला करती थी|

अंग्रेज सरकार ने तो मेरठ से ही उसकी गतिविधियों को अपनी निगरानी मे ले रखा था| अत: उन्होंने यह पत्र आरम्भ किया तो इस के जोशीले सम्पादकीय एक बार फिर अंग्रेज सरकार के लिए संकट बन गई और १९४१ ईस्वी को उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया| गिरफ्तार कर फिर से पूर्व योजना के अनुसार उन्हें एक वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया| अभी वह एक वर्ष की सजा भोग कर तथा जेल के अत्याचारों के कारण अत्यधिक शिथिल हो कर लौटी ही थी कि ४ जनवरी १९४२ ईस्वी को उन्हें फिर से पकड़ कर छ: महीने के लिए जेल भेजा गया| इस बार अंग्रेज सरकार ने जेल में ही उनका अंत करने की योजना पर कार्य आरम्भ किया| उन्हें जेल में अन्य सब कैदियों से अलग रखा गया| इस समय वह रोग ग्रस्त थीं किन्तु अंग्रेज सरकार ने उस के किसी प्रकार के उपचार की भी आवश्यकता नहीं समझी| इस प्रकार अकेलेपन और रोग का उपचार न होने के कारण तथा इसके साथ ही साथ रोग के अनुकूल नहीं अपितु इसके विरूद्ध गंदा और बेकार भोजन मिलने के कारण उस का यह रोग अत्यधिक गंभीर रूप में पहुँच गया| धीरे धीरे उनका यह रोग बढ़ते बढ़ते गर्भाशय का कैंसर का रूप ले गया| इस रोग की अत्यंत असहनीय पीड़ा होती है, जिस पीड़ा को जेल में रहते हुए वह सहती रहीं| इस प्रकार के भयानक रोग से जब वह मरणासन्न हो गईं तो कैदी के मरने के कलंक से बचने के लिए उर्मिला देवीजी को जेल से रिहा कर दिया गया| जेल से रिहा होने के कुछ दिन बाद ही अपने आदमी साहस का परिचय देते हुए १९०९ में जन्मी माता उर्मिलादेवी जी मात्र लगभग तेतीस वर्ष की आयु मे ६ जुलाई १९४२ ईस्वी को भारत छोड़ो आन्दोलन के लगभग इस संसार की यात्रा पूर्ण कर सदा सदा के लिए हम से विदा हो गईं|

उसके जीवन को बचाने के लिए अंग्रेज चाहता था कि वह जेल के दिनों मे क्षमा याचना कर जेल से बाहर आकर अपने स्वास्थय की रक्षा करे किन्तु उर्मिला जी एक निर्भीक नेत्री थी, जिसने असहनीय शारीरिक पीड़ा के साथ ही साथ जेल में रहते हुए एकांत की मानसिक पीड़ा को भी सहन किया| जेल में रहते हुए वह अपना कष्ट किसी को बता भी नहीं सकती थी क्योंकि उन्हें एकांत में रखा गया था| इस प्रकार क्षमा प्रार्थाना से उन्होंने कष्टों को सहने और मृत्यु का आलिंगन करने को ही प्राथामिकता दी|

उर्मिला जी एक सिद्धहस्त लेखिका भी थीं| समय के अभाव में वह कोई अधिक पुस्तकें तो नहीं लिख सकीं किन्तु अपने जेल के कष्टों को सुनाते हुए उन्होंने “कारागार के अनुभव” नाम से एक पुस्तक लिखी| यह पुस्तक उन्होंने १९३० में जेल में ही रहते हुए लिखी थी| लेखनी की कला तो उन्हें पारिवारिक परम्परा से ही प्राप्त हुई थी| वह इस पुस्तक के पश्चातˎ कुछ और लिख पातीं अथवा बाद में मिलीं जेल यात्रा के कुछ अनुभव भी लिख पातीं, इसका उन्हें समय ही नहीं मिला| जेल यातनाओं और रोग से वह जूझती रहीं और फिर अल्पायु में ही अंग्रेज सरकार की क्रूरता का शिकार हो गई, इस कारण वह हमारे लिए कुछ लेखन छोड़ नहीं सकीं| हाँ! जब तक संसार रहेगा, तब तक उनकी याद बनी रहेगी| इतिहास के स्वर्णाक्षर उनकी स्मृति को बनाए रखेंगे| न केवल आर्य समाज अपितु जन जन उनके जीवन से प्रेरणा लेता ही रहेगा|

डॉ. अशोक आर्य
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