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आजादी आंदोलन: वे लोग, वे बातें!

भारत की आज़ादी के आन्दोलन को जीवन में समग्रता से आजादी की समझ के विस्तार का कालखण्ड़ भी माना जा सकता हैं।आजादी के आन्दोलन से हमारे लोकमानस ने जीवन के विभिन्न सवालों को हल करने में सत्य और अहिंसा को कैसे निजी और सार्वजनिक जीवन का अंग बनाया जाय इसे समझने का प्रयास किया। यह बात हमारे स्वधीनता आन्दोलन के पुरखों ने हमें अपने जीवन और आचरण से जीकर समझाई।इसी से भारत की आज़ादी के आन्दोलन में निजी और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा से उस कालखण्ड़ के लोगों को केवल आजादी के लिये ही नहीं वरन जीवन की समग्रता को लोकमानस से जोड़ा।आजादी आंदोलन के भागीदार लोग हमारे लोकजीवन की अनमोल धरोहर है जो हमारे जीवन को सतत ऊर्जा से ओतप्रोत बनाये रखने में हमारा मार्गदर्शन करती हैं।

भारत के पहले राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद ने चंपारण में गांधीजी के साथ आजादी के आन्दोलन में काम करना प्रारंभ किया।डा.राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक “बापू के कदमों में”गांधीजी के साथ चंपारन आन्दोलन के अनुभवों का प्रेरक वर्णन किया हैं।महात्माजी के हिन्दी-प्रचार के काम से प्रभावित होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन ने उनको इंदौर के अधिवेशन का,जो १९१८ में हुआ,सभापति चुन लिया।इंदौर महात्माजी चंपारन से ही गए।हममें से कई आदमी उनके साथ ही गए।वहां का सम्मेलन बड़े समारोह के साथ हुआ।दक्षिण भारत में हिंदी-प्रचार के लिए वहीं कुछ रूपए जमा किए गए।सम्मेलन ने,उनकी प्रेरणा से,इस काम को अपना एक मुख्य काम बना लिया।

इंदौर के संबंध में एक छोटी घटना का उल्लेख मनोरंजक होगा-इस घटना में गंभीर तत्व भी था।महात्माजी और उनके साथ गए हुए हम लोग राज्य के अतिथि थे,इसलिए वहां खातिरदारी का बड़ा इंतजाम था।जितने बर्तन हमारे उपयोग के लिए वहां रखे गए थे,यहां तक की स्नान के लिए पानी रखने के बर्तन भी,चांदी के ही थे।राज्य के कर्मचारी दिन -रात खातिरदारी में लगे रहते थे।महात्माजी तो अपना सादा-मूंगफली इत्यादि का-भोजन अलग कर लेते थे;पर हम लोगों के लिए नाना प्रकार के पकवान इत्यादि चांदी के बड़े थालों और अनेक कटोरियों में हमारे सामने रखे गए।हम लोगों ने खूब आनन्द से भोजन किया।महात्माजी से भोजन के बाद जब मुलाकात हुई तब उन्होंने पूछा कि तुम लोगों ने क्या खाया?जो कुछ हमने खाया था,महादेव भाई ने वर्णन कर दिया।कुछ देर बाद जब राजकर्मचारी आए तब महात्माजी ने उनसे कहा कि आप इन लोगों को जैसा भोजन दें रहे हैं।वैसे भोजन की इनकी आदत नहीं हैं;इसलिए ये लोग तो यहां अस्वस्थ हो जाएंगे।आप इनके लिए मामूली सादा हल्का फुल्का और सब्जी का प्रबंध कर दीजिए,थोड़ा दूध भी दे दीजिए;इनके लिए यहीं स्वास्थ्यकर और अच्छा भोजन होगा।बस,उसके बाद से,चांदी के बरतनों में हम लोगों को वहीं सादा भोजन मिलने लगा,जो हमें चंपारन में गांधीजी के साथ मिला करता था।

महात्माजी इस बात को मानते थे कि स्वाद-इंद्रिय पर विजय पाना बहुत कठिन हैं।हम लोग जो भोजन करते हैं,वह शरीर को सुरक्षित और पुष्ट बनाने के लिए नहीं,केवल स्वाद के लिए ।भोजन का प्रभाव तो स्वास्थ्य पर पड़ता ही हैं;इसलिए हममें से जिनके पास पैसे होते हैं,वे अधिक और अस्वास्थ्यकर-पर मजेदार-खाना खाकर बीमार पड़ते रहते हैं;पर जिनके पास पैसे नहीं होते,वे यथेष्ट और स्वास्थ्यकर भोजन न मिलने के कारण कमजोर और बीमार हो जाते हैं।इसलिए उन्होंने चंपारन में ही सादे भोजन और स्वाद पर विजय का उदाहरण हमको स्वयं दिखाया था।चंपारन में पहले तो वे मूंगफली और खजूर ही खाया करते थे।कुछ दिनों के बाद रसोई खाने लगे।पर उसमें भी उनका नियम था।चाहे फल हो या रसोई,किसी में पांच चीजों से अधिक कुछ न होना चाहिए।इन पाँच चीजों में नमक-मिर्च जैसी चीजें भी एक-एक अलग समझी जाती थी।इस तरह यदि हम लोगों की तरफ कोई चीज मसालेदार बनाई जाती तो उनके लिए वह त्याज़ हो जाती;क्योंकि मसाले में ही पांच-छह चीजें हो जातीं।पर इस नियम के अलावा भी वे मसाला जैसी चीजों का इस्तेमाल बुरा समझते थे।कारण यह था कि एक तो ये चीजें बहुत करके गर्म और उत्तेजक होती हैं,दूसरे ये स्वाद को भी बदल देती हैं;इसलिए स्वाद के कारण आदमी अधिक खा लेता है,और ऐसी चीजें खा लेता हैं जो हानिकर होती हैं।

चंपारन में जब उन्होंने अन्न खाना शुरू किया तो वे न तो नमक खाते थे और न दूध या दाल ही!सिर्फ चावल और उबाली हुई सब्जी ही खाया करते थे।उबाली हुई चीजों में भी विशेष करके करेला,जो कुछ अधिक पानी देकर उबाल दिया जाता और उसी पानी के साथ भात मिलाकर बहुत स्वाद के साथ वे खा लिया करते।करेला बहुत कड़ुआ होता है।उसका उबाला हुआ पानी तो और भी कड़ुआ होता है।पर हम देखते थे कि उसी को वे आनंद और स्वाद के साथ खा लेते थे।इंदौर में जो उन्होंने हम लोगों के लिए भी पकवान की मनाही कर दी थी,वह भी इसी प्रयोग का एक अंग था।हमने यह भी देखा और समझ लिया कि सादा भोजन स्वास्थ्यकर होने के अलावा कम-खर्च भी होगा।पीछे जब बहुत स्थानों पर आश्रम के नाम से संस्थाएं चलने लगी तब उनमें सादा भोजन अच्छी तरह प्रचलित हो गया।वे जहां जाते और जो काम हाथ में लेते,केवल एक विषय को ही मुख्य बनाकर काम करते।पर जहां तक संभव होता,अपने विचारों के सम्बंध में भी प्रयोग करते ही रहते।यहीं कारण है कि वे जीवन की सभी प्रकार की समस्याओं पर केवल रोशनी ही नहीं डाल गए,बल्कि क्रियात्मक रूप से उनके हल करने के उपाय भी बता गए।

(अनिल त्रिवेदी ,अभिभाषक स्वतंत्र लेखक व किसान हैं तथा गांधी विचार प्रणित सामाजिक आन्दोलनों में सतत सक्रिय हैं)

अनिल त्रिवेदी
अभिभाषक, स्वतंत्र लेखक व किसान
त्रिवेदी परिसर,३०४/२भोलाराम उस्ताद मार्ग,ग्राम पिपल्याराव,ए बी रोड़ इन्दौर मप्र
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