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क्या भाजपा ने गंगा को चुनावी अछूत मान लिया है ?

लोकसभा चुनाव – 2014 में नरेन्द्र भाई मोदी ने गंगा को मां बताया था। आज मां गंगा की कोई चर्चा नहीं है; न मोदी जी के भाषण में, न उमा भारती जी की उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने की उड़ान में। इस बार मोदी जी ने अपने को उत्तर प्रदेश का गोद लिया बेटा कहा है। लोग अभी से चिंतित हो उठे हैं कि 2019 में कहीं उत्तर प्रदेश भी मोदी जी के चुनावी भाषण से गायब न हो जाये। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के नाम का ऐसा हश्र हमने देखा ही।

गंगा जी पर चुप्पी

चिंता होनी स्वाभाविक है। ”मैं आया नहीं हूं, मुझे मां गंगा ने बुलाया है…” – याद कीजिए कि 2014 के चुनाव में इस पंक्ति को कितनी जोर से प्रचारित किया गया था। इस चुनाव में प्रघानमंत्री श्री मोदी और गंगा मंत्री सुश्री उमा जी ही नहीं, पूरी भाजपा ही गंगा का नाम लेने से ऐसे बच रही है; जैसे गंगा कोई चुनावी अछूत हो। जिसे मां कहा, उसका नाम लेने से भी डर ? लगता है कि गंगा का नाम लेने से भारतीय जनता पार्टी को किसी बड़े नुकसान का डर हो। ध्यान रहे कि उमा जी का एक परिचय एक गंगा भक्त साध्वी के रूप में भी रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले वह गंगा किनारे-किनारे कितना घूमी थी। आखिर क्या हुआ कि यकायक इतनी चुनावी अछूत हो गई गंगा माई ? अब, जब पत्रकारों ने बहुत मजबूर किया तो उमा जी के बमुश्किल तीन बयान पढ़ने को मिले। पहले में उन्होने कहा – ”प्रधानमंत्री जी, गंगा पर राजनीति नहीं चाहते। इसलिए गंगा हमारे लिए चुनावी मुद्दा नहीं है।” दो अन्य बयानों में उन्होने गंगा पर अपेक्षित कार्य न हो पाने के लिए क्रमशः उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश सरकार को दोषी ठहराया; कहा कि उन्होने सहयोग नहीं किया।

उपलब्धि नहीं, सिर्फ कारोबार

हो सकता है कि यह सत्य हो, लेकिन यह भी झूठ नहीं कि मोदी जी की सरकार ने ढाई साल में कहने को तो बहुत कुछ किया। सूची बनाइये कि मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनते ही ’नमामि गंगे’ कहा; जल मंत्रालय के साथ ‘गंगा पुनर्जीवन’ शब्द जोङा; एक गेरुआ वस्त्रधारिणी को गंगा की मंत्री बनाया। पांच साल के लिए 20 हजार करोङ रुपये का बजट तय किया। अनिवासी भारतीयों से आह्वान किया। नमामि गंगे कोष बनाया। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की स्थापना की। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का पुनर्गठन किया। बनारस के अस्सी घाट पर उन्होने स्वयं श्रमदान किया। गंगा अभिभूत हो गई कि चलो, अब उसके भी अच्छे दिन आयेंगे; उसके भी गले में लगे फांसी के फंदे हटेंगे; उसे उसका नैसर्गिक प्रवाह हासिल होगा; खुलकर बहने की आज़ादी मिलेगी; मल से मलीन होने से जान छूटेगी, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।

उपलब्धियां गिनाना, सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश का उल्लंघन भी नहीं, जिसके अनुसार धर्म, जाति, समुदाय अथवा भाषा के आधार पर वोट मांगने पर अब रोक है। आखिर, अखिलेश और मोदी सरकार ने विज्ञापन देकर अपनी उपलब्धियां गिनाई ही हैं। अतः सरकार द्वारा गंगा संबंध में किए कार्य न गिनाने के पीछे भाजपा यह बहाना भी नहीं बना सकती। असलियत यही है कि गंगा के नाम पर मोदी शासन में जो कुछ हुआ, उसे उपलब्धि तो कतई नहीं कहा जा सकता। यह बात स्वयं प्रधानमंत्री श्री मोदी और गंगा मंत्री उमाजी भी जानती हैं। वर्तमान चुनाव में गंगा का नाम लेने से बचने का मूल कारण यही है।

सच है कि ढाई साल में गंगा नदी स्वच्छ नहीं हो सकती। लेकिन यह भी सच है कि उस दिशा में आगे बढ़ने की ईमानदारी तो दिखाई ही जा सकती थी; यह नहीं हुआ। जो हुआ, उसे मैं गंगा के नाम पर व्यापार का नाम दूं, तो कुछ गलत न होगा। इससे अधिक व्यापार और क्या होगा कि दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद जी ने ऐसा ऐलान किया कि उससे गंगाजल बेचकर कमाने वालों की राह और आसान हो गई। परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जी ने जलपरिवहन के लिए गंगा को नये बैराजों से बांधने की घोषणा करने से परहेज नहीं किया। मल शोधन संयंत्रों के नाम पर उमाजी खुद कंपनियों का धंधा बढ़ाने पर लगी हैं; जबकि वह स्वयं जानती हैं कि अविरलता सुनिश्चित किए बगैर गंगा की बारामासी निर्मलता संभव नहीं है।

अविरलता सुनिश्चित करनी हो, तो बांध और बैराजों को लेकर गंगा के अनुकूल नीतिगत निर्णय जरूरी है। किंतु कभी धारीदेवी के मंदिर को बांध के जलाश्य मंे डूबने से बचाने के लिए हुंकार भरती दिखी उमा जी ने गंगा, जल और नदी विकास मंत्री होते ही बांधों को लेकर पूरी तरह चुप्पी साध ली है। छोटी नदियों के पुनर्जीवन पर कोई ठोस काम दिखाई नहीं दे रहा, तो अविरलता हो कैसे ?
निर्मलता के संकेत इससे भी बुरे हैं।

सीबीआई जांच का आदेश: गंगा परियोजना के बुरे दिन

सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित पंचाट द्वारा बार-बार तलब किए जाने से यह संकेत भी जा रहा है कि गंगा से संबंधित विभाग और मंत्रालय, अदालतों के समक्ष सही आंकडे़ं नहीं पेश कर रहे अथवा कुछ छिपा रहे हैं। नामी वकील श्री एम सी मेहता को भारत में पर्यावरण की अदालती पैरोकारी के जनक कहा जाता है। गंगा को लेकर उनका अदालती सफर बहुत लंबा और संघर्षपूर्ण है। उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए राष्ट्रीय हरित पंचाट के ताजा आदेश से पानी, पर्यावरण कार्यकर्ता और गंगाप्रेमी नहीं, आमजन भी सकते हैं।

हरित पंचाट की प्रधान पीठ ने गढ़मुक्तेश्वर में गंगा सफाई से जुड़ी एक छोटी सी परियोजना की सीबीआई जांच का आदेश दे दिया है। पंचाट ने संकेत दिए हैं कि वह सीबीआई का ज्यादा वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। किंतु यदि जांच में गड़बड़ी के सबूत सामने आये, तो हरित पंचाट हरिद्वार से लेकर उन्नाव तक गंगा से जुड़ी सभी परियोजनाओं की जांच कराने को मज़बूर भी हो सकता है। गंगा कार्य योजना की शुरुआत से लेकर मार्च, 2017 तक गंगा के नाम पर हुए खर्च का ब्योरा खंगालना शुरु कर दिया, तो कोई ताज्जुब नहीं कि गंगा, भष्टाचार के नये अड्डे के रूप में सामने आये। गंगा सफाई के नाम पर यदि कुछ सबसे बुरा होगा, तो यह होगा। एक बार फिर विश्वास की मौत होगी। इस बार यह मौत एक हिंदूवादी, राष्ट्रवादी, संस्कृति पोषक का दावा करने वाले राजनीतिक दल, भारत के प्रधानमंत्री और एक हिंदू साध्वी के प्रति विश्वास की होगी।

केन-बेतवा पर मुखर

गौर कीजिए कि नदी के नाम पर उमा जी ने इस बार केन-बेतवा का नाम लेना मुनासिब समझा। चुनाव से पूर्व ही उन्होने इस दावे का जमकर समर्थन व प्रचार किया कि केन-बेतवा नदी जोड़ से बुंदेलखंड के कई लाख लोगों का भला होने जा रहा है। हालाकि विशेषज्ञ, उमाजी के इस दावे को झूठा और बेबुनियाद बता रहे हैं। फिर भी उमा जी अपने दावे और केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाने पर इतनी अड़ी दिखाई दीं कि इसके लिए उन्होने उन्होने अनशन तक की धमकी दे डाली। वह जानती हैं कि केन-बेतवा नदी जोड़ इस कार्यकाल मंे पूरा होने नहीं जा रहा है। संभव है कि अन्य भारतीय राजनेताओं की तरह वह भी यही धारणा रखती हों कि कुछ भी कह लो, भारत की जनता को विस्मृति रोग है; वह नया मुद्दा सामने आने पर पुराने को भूल भी जाती है। कदाचित् याद भी रह जाये, तो उदार होने के नाते माफ भी कर देती है।

हो सकता है कि भारतीय राजनेताओं की यह धारणा सही भी हो। किंतु उन्हे यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि झूठ के पैर नहीं होता; वह ज्यादा समय टिक नहीं सकता। भरोसे का टूटना तो सबसे बुरा होता ही है। लोक और तंत्र… दोनो इस पर विचार करें; वरना् काहे का लोकतंत्र ? काहे को गंगा को मां कहकर ’मां’ शब्द का भी अपमान करना ??

अरुण तिवारी
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