Friday, April 19, 2024
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जाना एक जनकवि का….

जगदीश सुधाकर (21 नवंबर, 1946 – 6 जनवरी 2017)

अभावों में जन्मे,
अभावों में पले,
और हम मर गए,
अभावों के तले.
लकड़ियाँ भी थीं इतनी
कि रह गए अधजले.

इन हृदयविदारक पंक्तियों के रचनाकार जगदीश ‘सुधाकर’ अभी इसी माह अपनी इहलीला समेटकर परलोक गमन कर गए. अपनी अंतिम साँस तक अभावों से जूझते रहे सुधाकर जी को लगभग छह महीने पहले जून 2016 में ‘ब्रेन-अटैक’ आया था. उस समय तो वे उबर गए पर दूसरी कई रुग्णताओं ने उन्हें घेर लिया और अंततः 6 जनवरी, 2017 के सूर्योदय से पहले हास्य-व्यंग्यपूर्ण जनकविता के क्षेत्र का यह ‘सुधाकर’ अस्त हो गया.

शब्द-क्रीड़ा और आशु कविता के महारथी इस जनकवि का जन्म 21 नवंबर, 1946 को कलूरकोट, जिला मियाँवाली (अब पाकिस्तान) में हुआ था. भारत विभाजन से उजड़ और उखड़ कर उनके माता-पिता उत्तर प्रदेश के कस्बे खतौली में आए तो शिशु जगदीश माँ की गोद में थे. धर्म के घोर पाखंड और उन्माद से जन्मे द्वि-राष्ट्रवाद के घातक सिद्धांत को इसीलिए वे आजीवन कोसते रहे. अपनी किशोरावस्था में उन्होंने नए राष्ट्र के सपने को परवान चढ़ने से पहले ही ध्वस्त होते हुए देखा और उनके भीतर के कवि ने सहज ही चिर प्रतिपक्ष की स्थायी भूमिका अंगीकार कर ली. जैसा कि उनके अंतिम पलों में उनके साथ रहे उनके कविमित्र जसवीर सिंह राणा का मानना है, बिना लाग-लपेट के सामाजिक और राजनैतिक जीवन के हर दोगलेपन पर हँस-हँसकर चोट करना उसी के लिए संभव है जिसका दिल इस सब पाखंड और भ्रष्टाचार को देखकर भीतर-भीतर ज़ार-ज़ार रोता हो. ऐसे ही थे जगदीश सुधाकर.

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जगदीश सुधाकर ने 1964-65 के दिनों में विधिवत लिखना शुरू किया – लिखना भी क्या, डायरी तो वे रखते नहीं थे, किसी भी मुड़े-तुड़े कागज़ पर लिखते थे और संदूकची में डाल देते थे. कहानी और नाटक भी उन्होंने लिखे. पर कभी उन्हें हाथ में कागज़ लेकर रचना बाँचते नहीं देखा गया. कवि सम्मेलनों के मंच पर दोनों हाथ चलाकर आँखें मटकाकर अपनी सद्यः रचित अलिखित कविताओं के द्वारा वे श्रोताओं को लोटपोट करते थे और कई बार वहाँ पधारे हुए तथाकथित बड़े लोगों के कोपभाजन भी बनते थे. पर सच कहने और खरी-खरी सुनाने से बाज़ नहीं आते थे. शायद यही कारण रहा हो कि वे किसी टीम में शामिल नहीं थे. उनके कविधर्म की प्रथम प्रतिज्ञा थी – जो मुझे गलत दिखेगा उसे गलत कहूँगा. उनका यह गुण बाबा नागार्जुन को बड़ा प्रिय था. बाबा प्रो. देवराज के यहाँ खतौली आए तो अपनी-अपनी तरह के इन दोनों अक्खड़ जनकवियों की संगत खूब जमी. प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं सुधाकर जी हाँक लगाते थे – ‘आदरणीय जी!’ और बाबा छौंक लगाते थे – ‘फादरणीय जी!’ वैसे भी बाबा को सुधाकर जी के हाथ की मछली काफी पसंद थी – डॉ. देवराज के कॉलेज चले जाने पर वे सुधाकर जी की रसोई में पहुँच जाते थे. पर अब बस कहानियाँ रह गईं! मैंने उनके अभिन्न मित्र डॉ. ऋषभदेव शर्मा से श्रद्धांजलि में कुछ कहने के लिए कहा तो उन्होंने कवि आलम की पंक्तियाँ दुहरा दी –

“जा थल कीन्हें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन, ता रसना सो चरित्र गुन्यो करैं॥
आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं॥“

इन्हीं शब्दों के साथ हम जनकवि जगदीश सुधाकर को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं और परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि उनके परिवार को यह महाकष्ट सहन करने की शक्ति प्रदान करे.

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