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ह्रदय की वाणी है हिन्दी 

हिंदी है युग-युग की भाषा, हिन्दी है युग-युग का पानी,
सदियों में जो बन पाती है, हिन्दी ऎसी अमर कहानी। 
राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। राष्ट्र के गौरव का यह तकाजा है कि उसकी अपनी एक राष्ट्रभाषा हो। कोई भी देश अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को अपनी भाषा में ही अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है।हिन्दी केवल हिन्दी भाषियों की ही भाषा नहीं रही, वह तो अब भारतीय जनता के हृदय की वाणी बन गई है।संसार में चीनी के बाद हिन्दी सबसे विशाल जनसमूह की भाषा है।
 
बापू ने दी राष्ट्रभाषा की मान्यता 
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स्मरणीय है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1917 में भरुच (गुजरात) में सर्वप्रथम राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता प्रदान की गई थी। तत्पश्चात 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिए जाने का निर्णय लिया तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिन्दी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से 14 सितंबर को ‘हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति 1976 में गठित की गई। राजभाषा नियम 1976 में लागू किए गए तथा राजभाषा संसदीय सम‍िति की अनुशंसा पर राष्ट्रपति द्वारा ‘राजभाषा नीति’ बनाई जाकर लागू की गई।
1652 बोलियों का भारत 
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भारत न केवल क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल देश हैं अपितु हमें इस बात पर भी गर्व हैं कि हमारे देश में लगभग 1652 विकसित एवं समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों का प्रयोग करने वाले विभिन्न समुदाय अपनी-अपनी बोली को महत्त्वपूर्ण मानने के साथ-साथ उसे बोली के स्थान पर भाषा कह कर पुकारते हैं और समझते हैं कि उनकी बोली में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो किसी भी समर्थ भाषा में होने चाहिये। यही बात हमारी छत्तीसगढ़ी के सन्दर्भ में भी सटीक बैठती है. बोलियों की ऎसी विशेषता वाले भारत देश में हिन्दी की अपनी अलग गरिमा और महिमा है. वास्तव में यदि गौर करें तो हिन्दी में देश की आत्मा बोलती है।
साहित्य संसार में हिन्दी का वैभव 
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जहाँ तक हिंदी में उपलब्ध साहित्य का प्रश्न है, हिंदी का साहित्य किसी भी भाषा के साहित्य की तुलना में कम नहीं है। कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, बिहारी, देव, घनानंद, गुरु गोबिंदसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, मुक्तिबोध, अज्ञेय आदि कवियों की रचनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है हिंदी में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत शक्ति है। आज तो स्थिति यह है की कविता, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, जीवनी, डायरी, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधायों के माध्यम से हिंदी भाषा समृद्ध हो चुकी है और हो रही है। इधर अंतरजाल पर हिन्दी की बढ़ती पैठ ने उसकी वैश्विक क्षमता का एक बिलकुल नया परिवेश निर्मित कर दिया है. हिंदी साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
अमेरिका के लगभग 100 महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। लगभग सात वर्ष पूर्व अमेरिका सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस (ऑस्टन नगर) को हिन्दी की शिक्षा को अमेरिका में बढ़ाने के लिये एक विशाल हिन्दी कार्यक्रम के लिये एक बहुत बड़ी राशि का अनुदान दिया। यह हिन्दी उर्दू फ़्लैगशिप नामक कार्यक्रम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़, जो लगभग 60 विश्वविद्यालयों की छात्र-संस्था है, विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिये पिछले लगभग 50 वर्षों से अमरीकी विद्यार्थियों के लिये विशेष भाषा-कार्यक्रम भारत में चला रही है।
कम्प्यूटर में भी हिन्दी की पैठ 
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यूनिकोड नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को इंग्लिश के समान ही सक्षम बना दिया है और लगभग इसी समय भारतीय बाज़ार में ज़बर्दस्त विस्तार आया है। कंपनियों के व्यापारिक हितों और हिंदी की ताक़त का मेल ऐसे में अपना चमत्कार दिखा रहा है। इसमें कंपनियों का भला है और हिंदी का भी। फिर भी चुनौतियों की कमी नहीं है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मानकीकरण (स्टैंडर्डाइजेशन) आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड के ज़रिए हम मानकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ी छलाँग लगा चुके हैं। उसने हमारी बहुत सारी समस्याओं को हल कर दिया है।
भारत का आधिकारिक की-बोर्ड मानक इनस्क्रिप्ट है। यह एक बेहद स्मार्ट किस्म की, अत्यंत सरल और बहुत तेज़ी से टाइप करने वाली की-बोर्ड प्रणाली है। लेकिन मैंने जब पिछली गिनती की थी तो हिंदी में टाइपिंग करने के कोई डेढ़ सौ तरीके, जिन्हें तकनीकी भाषा में की-बोर्ड लेआउट्स कहते हैं, मौजूद थे। फ़ॉटों की असमानता की समस्या का समाधान तो पास दिख रहा है, लेकिन की-बोर्डों की अराजकता का मामला उलझा हुआ है। ट्रांसलिटरेशन जैसी तकनीकों से हम लोगों को हिंदी के क़रीब तो ला रहे हैं, लेकिन की-बोर्ड के मानकीकरण को उतना ही मुश्किल बनाते जा रहे हैं। यूनिकोड को अपनाकर भी हम अर्ध मानकीकरण तक ही पहुँच पाए हैं। हिंदी में आईटी को और गति देने के लिए हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग की ट्रेनिंग की ओर भी अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।
हिन्दी की संवैधानिक स्थिति 
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आज़ादी आई और हमने संविधान बनाने का उपक्रम शुरू किया। संविधान का प्रारूप अंग्रेज़ी में बना, संविधान की बहस अधिकांशतः अंग्रेज़ी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के अधिकांश पक्षधर भी अंग्रेज़ी भाषा में ही बोले। यह बहस 12 सितंबर, 1949 को 4 बजे दोपहर में शुरू हुई और 14 सितंबर, 1949 के दिन समाप्त हुई। प्रारंभ में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अंग्रेज़ी में ही एक संक्षिप्त भाषण दिया। उन्होंने कहा कि भाषा के विषय में आवेश उत्पन्न करने या भावनाओं को उत्तेजित करने के लिए कोई अपील नहीं होनी चाहिए और भाषा के प्रश्न पर संविधान सभा का विनिश्चय समूचे देश को मान्य होना चाहिए। उन्होंने बताया कि भाषा संबंधी अनुच्छेदों पर लगभग तीन सौ या उससे भी अधिक संशोधन प्रस्तुत हुए।
14 सितंबर की शाम बहस के समापन के बाद जब भाषा संबंधी संविधान का तत्कालीन भाग 14 क और वर्तमान भाग 17, संविधान का भाग बन गया तब डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने भाषण में बधाई देते हुए कहा कि हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा का योगदान सबसे अधिक है। फ़िल्म शोले और दीवार के वाक्य कई विज्ञापनों में प्रयोग किए गए। हिंदी फ़िल्मों का तो ब्रिटेन में एक फ़ैशन-सा चल पड़ा है। भारत से तो फ़िल्में इंपोर्ट की ही गई पर ब्रिटेन में भी हिंदी फ़िल्में बनी और दिखाई गई। यद्यपि अधिकांश फ़िल्में सब टाइटल्ड या डब होती हैं फिर भी भाषा और संस्कृति का प्रभाव तो लोगों पर पड़ता ही है। महाभारत और रामायण के विडियो टेप शिक्षित अंग्रेज़ और अधिकांश भारतीयों के घरों में संग्रहीत हैं। इधर हिन्दी के विरोधी स्वर वाके प्रांतों में चेन्नई एक्सप्रेस जैसी हिन्दी फिल्म ने आय के सारे रेकॉर्ड तोड़ कर दिखा दिए।
शासकीय सेवकों का अमूल्य योगदान 
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हिंदी के प्रखर चिंतक अरुणकुमार जैन ठीक कहते हैं  कि आज भी सरकार ने राष्ट्रभाषा के रूप में राजभाषा को स्वीकार नहीं किया है, मगर जनता ने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार ‍कर लिया है। इसकी व्यापक स्वीकृति शीघ्र इसे विश्वभाषा का दर्जा प्रदान करवा देगी। इसके पीछे देवनागरी का सांस्कृतिक होना भी है। यह एक शुभ शकुन है कि शासकीय अधिकारियों और कर्मचारियों में राष्ट्रीयता की भावना, एक राष्ट्र-एक भाषा की आवश्यकता और राष्ट्रीय एकता की सोच स्पष्ट है। वह सूचना प्रौद्योगिकी के प्रति भी सचेत है और अपनी सी‍माओं में रहकर राजनेताओं के मंसूबे अच्छी तरह पहचानता है अत: राजभाषा के उन्नयन में समर्थ और सार्थक योगदान दे रहा है।
अभाव से उत्साह कम नहीं होता
हो भाव तो नियम में दम नहीं होता
हैं समर्थ हम और सार्थक भी हम
नियम भी हम हैं और नियामक भी हम
एक नहीं थे, कमजोर नहीं, कभी रण से भागे न हम
उन्नति के उन्नायक भी हम, रहे विश्व के नायक भी हम
हिन्दी विश्वभाषा बने, हैं इस लायक भी हम।
 
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प्राध्यापक (हिंदी विभाग)
शासकीय दिग्विजय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
राजनांदगांव, छत्तीसगढ़।