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सरकारी साजिशे यही है कि शिक्षा से हिन्दी गायब रहे

हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा और हिंदी मास यानी सरकारी कामकाज में हिंदी लागू करने-कराने का अभियान। इस अभियान के तहत हम अक्सर उन नौकरशाहों को जी-भर के कोसते हैं, जो हिंदी को सरकारी फाइलों में नहीं घुसने देते, जो सरकारी चिट्ठियों में हिंदी नहीं लिखने देते। हम उस सरकारी व्यवस्था को भी कोसने से नहीं चूकते, जो हर साल हिंदी लागू करने के फर्जी आंकड़े पेश करवाती है और सरकार के पास यह रिपोर्ट भेजती है कि हिंदी 99 फीसदी आ चुकी है। जबकि सच्चाई यह होती है कि हिंदी वहीं की वहीं होती है। लेकिन कई बार मुझे लगता है कि हम फिजूल ही नौकरशाहों को कोसते हैं। हम उनसे यह अपेक्षा रखते हैं कि वे मरियल पौधों के फूलों को सींचें और पूरी फुलवारी लहलहा उठे।

असल चुनौती है जड़ों को सींचने की, जबकि जड़ों में पानी डालने की सख्त मनाही है। हमारी सरकार, हमारे नेता, हमारे राजनीतिक दल, हमारे शिक्षक, हमारे नौकरशाह और समूचे तौर पर हमारा समाज भी इस गुपचुप अभियान में शामिल है कि जड़ों में पानी न दिया जाए। जी हां, मैं शिक्षा में हिंदी की बात कर रहा हूं। आप राजभाषा के तौर पर हिंदी को लागू करने के लाख जतन कर लें, वह तब तक लागू नहीं हो सकती, जब तक कि आप शिक्षा में अंग्रेज़ी को बढ़ावा देने की अपनी नीति को नहीं बदल लेते। आप लाख विश्व हिंदी सम्मलेन कर लें, आप उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना डालें, लेकिन जब तक अपने नौनिहालों के मन से हिंदी के प्रति घृणा को नहीं निकाल फेंकेंगे, तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला। क्षमा कीजिए, नौनिहाल ही नहीं, उनके मन में घृणा-भाव भरने वालेअध्यापक भी। हम कैसी दोमुंही बात करते हैं? एक तरफ बच्चों को जबरन अंग्रेज़ी बोलने, लिखने और उसी में सपने देखने को कहते हैं, क्लास में हिंदी बोलने पर डांटते हैं, यही नहीं उन्हें हिंदी से घृणा करने की हिदायत देते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं स्कूलों-कालेजों से पढ़कर ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे अंग्रेज़ी छोड़ कर हिंदी को अपनाएं। वे ऐसा क्यों करें? उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए?

अनेक बार ऐसा लगता है कि शिक्षा की दुनिया का इस देश से, इस राष्ट्र के लक्ष्यों से कोई लेना-देना नहीं है। अब, हिंदी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में लागू करवाने के लिए हर साल तरह-तरह के संकल्प लिए जाते हैं। लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। लेकिन शिक्षा जगत इस सबसे अछूता रहता है। वहां लगातार हिंदी पिछडती जा रही है। जब मैं बच्चा था, मेरे जिले में एक भी अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल नहीं था। अमीर-गरीब सब हिंदी माध्यम की समान शिक्षा ग्रहण करते थे। आज उस जिले के दो जिले हो गए हैं और अकेले मेरे जिले में ही तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के 500 स्कूल खुल गए हैं। वे अंग्रेज़ी सिखा रहे हों या नहीं, इतना तय है कि हिंदी से दूर रहने की हिदायत जरूर देते हैं। हम यह नहीं कहते कि हिंदी नहीं बढ़ रही। वह भी बढ़ रही है लेकिन अंग्रेज़ी उससे दस गुना तेज रफ्तार से बढ़ रही है। पहले समझा जाता था कि हिंदी दलितों-पिछड़ों की भाषा है। अब वे भी ‘अंग्रेज़ी देवी’ की पूजा करने लगे हैं।

आजादी के समय कहा गया था कि दस साल के भीतर हिंदी में अनुवाद की सारी व्यवस्था कर ली जाये। विज्ञान और इंजीनियरिंग की किताबों को हिंदी में कर लिया जाए। यानी उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में हो। लेकिन गणतंत्र हुए 65 साल हो गए। 1950 में हिंदी माध्यम की जो किताबें थीं भी, वे भी गायब हो गयीं। जिन राज्यों में छठी कक्षा से अंग्रेज़ी लागू होती थी, उन्हें भी लगा कि उनके बच्चे पिछड़ रहे हैं। लिहाजा वहां भी पहली से ही अंग्रेज़ी लागू होने लगी। उच्च शिक्षा तो दूर, स्कूलों से ही हिंदी-माध्यम गायब होता जा रहा है। हिंदी पढ़ना मजबूरी की भाषा बन गयी है। इस देश में जर्मन को तो पिछले दरवाजे से जबरन लागू किया जा सकता है, लेकिन हिंदी को नहीं। हम चाहे लाख विश्व हिंदी सम्मलेन आयोजित कर लें, जब तक शिक्षा से हिंदी को दूर रखेंगे, तब तक कोई लाभ होने वाला नहीं है।

(लेखक शिक्षाविद् और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

साभार-http://www.samachar4media.com/ से