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हिन्दुस्तान की जातीय भाषा के अन्वेषक व हिन्दी के योद्धा : जॉन गिलक्रिस्ट

(जन्म दिन पर विशेष)

जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट ( जन्म- 19.6.1759 ) ऐसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान की जातीय भाषा की सबसे पहले पहचान की, उसके महत्व को रेखांकित किया, भारत में उसके अध्ययन की नींव रखी, उसका व्याकरण बनाया और इंग्लिश- हिन्दुस्तानी डिक्शनरी बनाकर अध्ययन करने वालों के लिए रास्ता आसान कर दिया. एडिनबरा में जन्म लेने वाले जॉन गिलक्रिस्ट वास्तव में एक डॉक्टर थे और ईस्ट इंडिया कम्पनी में सर्जन बनकर 1783 ई. में भारत आए. उस समय भारत में शासन की भाषा फारसी थी. ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल आर्मी में रहते हुए उन्होंने देश में दूर दूर तक यात्राएं कीं और अनुभव किया कि हिन्दुस्तानी ही इस देश की संपर्क भाषा थी. उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कंपनी अपने कर्मचारियों को यह भाषा सिखाने में कोई रुचि नहीं ले रही थी. उन्होंने हिन्दुस्तानी के अध्ययन के लिए कंपनी से एक वर्ष का अवकाश लिया, किन्तु अध्ययन में इतना रम गए कि उसके बाद दोबारा अपने मेडिकल सेवा में नहीं लौटे. इस बीच वे पटना, फैजाबाद, लखनऊ, गाजीपुर, दिल्ली आदि स्थानों पर रहे. गाजीपुर और बनारस में रहकर उन्होंने नील और अफीम की खेती का व्यवसाय भी किया और अंत में हिन्दुस्तानी सीखकर ‘इंग्लिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी’ तैयार की. 1794 ई. के बाद वे कलकत्ता आ गए और वहीं ‘हिन्दुस्तानी ग्रामर’ और ‘द ओरियंटल लिंग्विस्ट’ जैसी पुस्तकें लिखीं.

कंपनी के कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए सन् 1800 में गवर्नर जनरल मार्क्वेस वेलेजली ने जब फोर्ट विलियम कॉलेज खोला तो जॉन गिलक्रिस्ट को हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया क्योंकि उस समय देश में वही हिन्दुस्तानी के सबसे ज्यादा जानकार अंग्रेज थे. जॉन गिलक्रिस्ट सन् 1804 ई. तक इस पद बने रहे और उसके बाद इंग्लैण्ड चले गए. अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे पेरिस चले गए और वहीं 9 जनवरी 1841 को उनका देहान्त हुआ. इंग्लैड में भी उन्हें यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन तथा गिलक्रिस्ट एजूकेशनल ट्रस्ट की स्थापना के लिए जाना जाता है. यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में हिन्दुस्तानी के प्रोफेसर के रूप में भी उन्होंने कुछ दिन तक अपनी सेवाएं दी थीं.

गिलक्रिस्ट महोदय हिन्दी और हिन्दुस्तानी में शैलीगत भेद मानते थे. उनके अनुसार ‘हिन्दुई’ या ‘हिन्दवी’ शब्द हिन्दुओं की भाषाओं के द्योतक थे. उन्होंने ‘द ओरियंटल लिंग्विस्ट’ में एक लेख लिखा था जिसका एक अंश है, “हिन्दवी को मैने शुद्ध हिन्दुओं की चीज माना है. इसलिए लगातार उसका प्रयोग भारत की प्राचीन भाषा के लिए किया है जो मुसलमान आक्रमण से पहले यहां प्रचलित थी. वह हिन्दुस्तानी का मूलाधार है. यह हिन्दुस्तानी अरबी-फारसी से कुछ दिन पहले बनी हुई ऊपर की इमारत है.. अंग्रेजी के लिए जैसे फ्रांसीसी और लैटिन है वैसे ही हिन्दुस्तानी के लिए फारसी और अरबी है. अंग्रेजी का मूलाधार जैसे सैक्सन है वैसे ही हिन्दुस्तानी का आधार हिन्दवी है.”

यदि गिलक्रिस्ट को ‘हिन्दवी’ कहने से सिर्फ हिन्दुओं की भाषा जैसा बोध होता था और ‘हिन्दुस्तानी’ कहने से मुसलमानों के योगदान का भी आभास हो जाता था जिनका इसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका थी तो यह स्वाभाविक ही है.

गिलक्रिस्ट के अनुसार उस समय हिन्दुस्तानी की तीन शैलियां थीं, 1. दरबारी या फारसी शैली. 2.हिन्दुस्तानी शैली और 3.हिन्दवी शैली. वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को ‘वल्गर’ अर्थात गँवारू मानते थे. वे हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता देते थे और उसे ही ‘द ग्रैंड पापुलर स्पीच’ कहते थे. मगर उनकी हिन्दुस्तानी फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू ही थी. हिन्दवी की जो विभिन्न शैलियाँ हिन्दी क्षेत्र में प्रचलित थीं उनसे गिलक्रिस्ट का अधिक परिचय नहीं था. दिल्ली और मेरठ के आस पास की खड़ी बोली को ही वे ‘हिन्दवी’ कहते थे जिसका मानक रूप अभी नहीं बन सका था. वैसे, उन्हें सबसे अधिक प्रिय रोमन लिपि थी जिसे वह भारतीय भाषाओं पर लागू करना चाहते थे. गिलक्रिस्ट मानते थे कि हिन्दुस्तानी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए फारसी लिपि और भाषा का ज्ञान आवश्यक है. वे मानते थे कि उनकी हिन्दुस्तानी का बहुत थोड़ा सा अध्ययन करके यह समझा जा सकता है कि इसका आधार पुरानी हिन्दुई या ब्रज भाखा है, जिसमें अरबी –फारसी शब्दों का सम्मिश्रण होते जाने की वजह से एक नई भाषा हिन्दुस्तानी तैयार हुई.

गिलक्रिस्ट स्वयं अरबी और फारसी भाषाओं के विद्वान थे. उनकी भाषा नीति का व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था. फोर्ट विलियम कॉलेज के उनके हिन्दुस्तानी विभाग में हिन्दुई और नागरी लिपि से परिचित पंडित बहुत कम थे. कॉलेज की व्यवस्था में ‘भाषा मुंशी’ और ‘पंडितों’ का स्थान सदा गौण रहा. उनकी उपस्थिति भी आवश्यक नहीं समझी जाती थी. इनमें भी फारसी सिखाने वाले शिक्षकों और देवनागरी सिखाने वाले शिक्षकों की हैसियत में बहुत फर्क होता था. उनके वेतन में पांच गुने तक का अन्तर होता था. उदाहरणार्थ 7 जुलाई 1801 को फोर्ट विलियम की कौंसिल में यह निर्णय लिया गया कि कुतुब अली को एक सौ रुपए महीने पर फारसी और सुन्दर पंडित को बीस रुपये महीने पर नागरी लिपि सिखाने के लिए नियुक्त किया जाय।

किन्तु इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि फारसी लिपि और नागरी लिपि सिखाने वाले शिक्षकों के वेतन में पाँच गुने का फासला हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने के लिए था जैसा कि कुछ विद्वान समझते हैं. दरअसल उस जमाने में फारसी ही शासन की भा।षा थी. ऐसी दशा में फारसी सिखाने वालों को अधिक सम्मान मिलना स्वाभाविक है. सरकार बहादुर के लिए देवनागरी की कोई जरूरत ही नहीं थी फिर उसके लिए पैसे क्यों खर्च किए जायं? जॉन गिलक्रिस्ट की यह उदारता ही थी कि उन्होंने लल्लूलाल जैसे पंडितों की नियुक्ति करके कुछ पुस्तकें हिन्दवी शैली में तैयार करने का आदेश दिया जिसके फलस्वरूप ‘प्रेमसागर’ जैसी कृतियां सामने आ सकीं. लल्लूलाल ने प्रेमसागर की भूमिका में लिखा है कि, “श्रीयुत गुनगाहक गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से सम्वत् 1860 ( अर्थात् सन् 1803 ई.) में श्री लल्लू जी लाल कवि ब्राह्मन गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने जिसका सार ले, यामिनी भाषा छोड़, दिल्ली आगरे की खड़ी बोली में कह, नाम प्रेमसागर धरा.”

लल्लूलाल की उक्त भूमिका और ‘प्रेमसागर’ की भाषा को देखने से सहज अनुमान हो जाता है कि ‘प्रेमसागर’ की भाषा एक कृत्रिम भाषा है. लल्लूलाल ने गिलक्रिस्ट के आदेश से अपने समय की सहज सरल लोक प्रचलित भाषा से भी अरबी-फारसी के शब्दों को निकाल कर बाहर कर दिया. गिलक्रिस्ट ने जिस खड़ी बोली में लिखने का आदेश दिया था वही हिन्दुस्तानी का भी आधार थी. उनके इस प्रयास से हिन्दुस्तानी और हिन्दवी में दूरी बढ़ी और हिन्दी भाषी जनता के लिए एक जातीय भाषा विकसित होने में व्यवधान पैदा हुआ.

दरअसल वह दौर भारत में एक जातीय भाषा के विकास का था. वह भाषा अमीर खुसरो के समय से, बल्कि उससे भी पहले से विकसित हो रही थी. उसके विकास का आधार औद्योगिक पूंजीवाद नहीं, अपितु ब्यापारिक पूंजीवाद था. गिलक्रिस्ट स्वयं देशभर में घूमकर इसे भली भाँति समझ चुके थे. इसी जातीय भाषा को उन्होंने हिन्दुस्तानी कहा था. अंग्रेजों ने इस हिन्दुस्तानी के सहज विकास को अपनी नीतियों से अवरुद्ध किया जिसकी अन्तिम और दुखद परिणति आजादी के बाद हिन्दी और उर्दू के रूप में दो भाषाओं को संवैधानिक मान्यता देने के साथ हुई. इस तरह एक ही हिन्दुस्तानी जाति की दो भाषाएं कृत्रिम रूप से विकसित की गईं. महात्मा गाँधी इस विभाजन से सहमत नहीं थे और वे आजाद भारत की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दुस्तानी’ को ही बनाना चाहते थे. संविधान सभा में इस मुद्दे को लेकर चार दिन तक बहस चली थी. उस समय तक गाँधी जी की हत्या हो चुकी थी. देश बँट चुका था. साम्प्रदायिकाता चरम पर थी. इन्ही परिस्थितियों में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुलकलाम आजाद, काका कालेलकर, दुर्गाबाई देशमुख तथा दक्षिण के सभी गांधी के अनुयायियों की इच्छा के विरुद्ध बहुमत के आधार पर ‘हिन्दुस्तानी’ की जगह ‘हिन्दी’ को राजभाषा घोषित कर दिया गया. आज भी इस कृत्रिम भेद को आम जनता नहीं मानती. हमारे समाज में हिन्दी और उर्दू फिल्मों का कोई विभाजन नहीं है. संगीत आज भी हिन्दुस्तानी ही है, हिन्दी और उर्दू नहीं.

सन् 1804 में फोर्ट विलियम कॉलेज से त्यागपत्र देकर गिलक्रिस्ट इंग्लैंड चले गए और उसके एक वर्ष बाद अर्थात् 30 जुलाई सन् 1805 को लॉर्ड वेलेजली भी इंग्लैंड लौट गए. फोर्ट विलियम कॉलेज, लॉर्ड वेलेजली की इच्छा का ही प्रतिफलन था. कॉलेज के संचालन में, कंपनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स की कोई रुचि नहीं थी. कॉलेज का महत्व दिन प्रतिदिन कम होता गया और 1854 में कॉलेज बंद कर दिया गया. किन्तु गिलक्रिस्ट की भाषा नीति का असर कॉलेज में भी बहुत बाद तक बना रहा और उसका स्थाई प्रभाव भारत की भाषा नीति पर पड़ा. शिवमंगल राय ने ‘ईस्ट इंडिया कंपनी की हिन्दी नीति’ विषय पर शोध किया है और लिखा है, “ ज्ञातव्य है कि इन शिक्षण संस्थानों ( ओरियंटल इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी कॉलेज ) में अध्ययन-अध्यापन करने वालों की भी हिन्दुस्तान की संपर्क भाषा हिन्दुस्तानी के प्रति वही दृष्टिकोंण बना रहा जो दृष्टिकोंण फोर्ट विलियम कॉलेज और और ईस्ट इंडिया कॉलेज में अध्ययन करने वालों का था, क्योंकि सबके मूल में गिलक्रिस्ट की नीति और उनकी ही प्रेरणा और निर्देशन में लिखी गई पुस्तकें ही हिन्दुस्तानी का अध्ययन करने वालों के दृष्टिकोण को स्वरूप देने की आधार थीं. ( ईस्ट इंडिया कम्पनी की हिन्दी नीति, शिवमंगल राय, पृष्ठ-99)

सन् 1834 ई. में लार्ड मैकाले (थॉमस बैबिंगटन मैकाले) भारत आया और उसने इस देश का बारीकी से अध्ययन किया. इसके बाद जब वह ब्रिटेन लौटा तो 2 फरवरी 1835 को उसने ब्रिटिश पार्लियामेंड में भाषण देते हुए कहा, “मैं भारत के कोने कोने में घूमा हूं… मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया जो भिखारी हो, जो चोर हो, इस देश में मैंने इतनी दौलत देखी है, इतने ऊंचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएंगे, जबतक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूं कि हम इसकी पुरातन शिक्षा- व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें. क्योंकि अगर भारतीय सोचने लग गए कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है, और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है, तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं, एक पूर्ण रूप से गुलाम भारत.”

ईस्ट इंडिया कंपनी ने मैकाले के प्रस्ताव का समर्थन किया. इसका भारत पर ब्यापक प्रभाव पड़ा और कंपनी की शिक्षा संबंधी भाषा- नीति भी बदली. सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार का कार्य अपने हाथ में ले लिया. 1858 ई. में लॉर्ड मैकाले द्वारा ‘इंडियन एजूकेशन ऐक्ट’ बनाया गया और उसे लागू किया गया. मैकाले का उद्देश्य स्पष्ट था. उसने लिखा है,

“हमें हिन्दुस्तानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिए का काम कर सकें, जिन पर हम शासन करते हैं. हमें हिन्दुस्तानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हो लेकिन वह अपनी अभिरुचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों.”

इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी के वर्तमान रूप को आकार लेना था. कम्पनी राज और उसके बाद के कालखण्ड में हमारी भाषा नीति के निर्धारण में जिन चार महापुरुषों के नाम विषेष रूप से उल्लेखनीय हैं वे हैं- राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, राजा लक्ष्मण सिंह, सर सैयद अहमद खाँ और भारतेन्दु हरिश्चंद्र. हिन्दुस्तानी जाति के इन चारो महारथियों में से तीन अगरेजों के खास लोगों में से थे. भारतेन्दु के अलावा बाकी तीनो ने 1857 की क्रान्ति में अंग्रेजों का साथ दिया था. बदले में अंग्रेजों की ओर से तीनों को ऊंचे- ऊंचे ओहदे तथा ‘राजा’ और ‘सर’ की उपाधियां मिली थीं. जाहिर है, इन तीनों का गहरा असर अंग्रेजों के ऊपर पड़ सकता था- यदि ये एक साथ मिलकर इस देश की जनता के हित में कुछ सकारात्मक करते. ये देश की जनता के शुभेच्छु तो थे किन्तु इनके बीच आपस में शीतयुद्ध चला करते थे. इनके आपसी वैचारिक मतभेद समय-समय पर जाहिर होते रहते थे और अंग्रेजों ने इसका भरपूर फायदा उठाया.

गिलक्रिस्ट की अन्य पुस्तकें भी हैं जिनमें ‘द ओरियंटल फैब्युलिस्ट ऑर दी पॉलीग्लॉट ट्रांसलेशन्स ऑफ ईसप एंड अदर ऐंशिएंट फैबल्स फ्राम दी इंग्लिश लैंग्वेज इनटू हिन्दुस्तानी…’., ‘द जनरल ईस्ट इंडिया गाईड एंड वेड मेकम’, ‘हिन्दी मोरल प्रिसेप्टर’, ‘द स्ट्रैंजर्स इनफैलिएबल ईस्ट इंडियन गाईड’ आदि प्रमुख हैं.

हम जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट को, उनके जन्मदिन के अवसर पर भाषा के क्षेत्र में किए गए उनके काम का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

डॉ. अमरनाथ

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(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष है)
साभार-वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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