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किसान अपनी माँगें कैसे मनवाएँ

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2002 में एम्स के र्डॉक्टरों की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी थी, न्यायालय का मानना था के डॉक्टरों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि उन्होंने स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवानी ही है। इस लिए वह किसी प्रकार का विरोध नहीं कर सकते और अपनी ड्यूटी से भाग नहीं सकते। इसी प्रकार किसानों की हड़ताल है। हालाकि अभी तक किसी न्यायालय ने उन्हे नोटिस जारी नहीं किया है कि वह हड़ताल नहीं कर सकते, लेकिन एक बात निश्चित है कि स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यगत डॉक्टरों और कर्मचारिओं की तरह किसान भी हड़ताल नहीं कर सकते। इस का नवीनतम उदाहरण सभी के सामने है। राष्ट्रीय किसान महा संगठन की काल पर किसानों द्वारा 1 जून को 10 जून तक देश भर के शहरों में दुध, सब्जियों और अन्य आवश्यक वस्तुओं को न देने का फैसला लिया गया था। इस बहिष्कार को सफल करने के लिए किसान संगठनों ने बहुत सक्रिय भूमिका निभाई खास कर उत्तर के राज्यों ने।

उस दिन से ही टीवी चैनलों ने विशेष कवरेज देना शुरू कर दिया था जिस दिनसे इस बहिष्कार की घोषणा की गई थी। सोशल मीडिया पर भी इस मुद् दे पर लोगों ने बहस की के हर कोई अपने पॉइंट ऑफ व्यू से बोल रहा था। लेकिन यह बात अभी तक भी सपष्ट नहीं हुए के शहरी मध्यम वर्ग ठीक था या किसान। इस पूरे घटना कर्म में एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि शहरी मध्यम वर्ग और किसान दोनों ही आपस में पारस्परिक रिश्ते में बंदे हुए हैं और दोनों वर्ग का अस्तित्व ही दूसरा पर निर्भर है। दुसरा किसान जो उत्पादन करेगा तो उसको मंडी की जरूरत तो हमेशा रहेगी क्योंकि उत्पाद का मंडीकरण करके ही वह अपनीं आर्थिक जरूरतें पूरी कर सकता है।

किसानों इस हड़ताल के चलते बहुत जगह दुध को सड़कों पर बहा देने की रिपोर्ट सामने आई। दुर्भाग्य से भारत जैसे देश में जहां 29 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले है वहां दुध को सड़कों पर गिराना अधिक दर्दनाक है। विरोध जिताने का जो ढंग किसानों ने अपनाया वह ठीक नहीं था। उस दुधवाले का कोई कसूर नहीं था जो गांव से दुध इकट्ठा करने के बाद जो शहर बेचने के लिए जा रहा था। किसानों ने उसका पूरा दुध गिरा दिया। यह भी हो सकता है कि दुध किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति को दे दिया जाता।

अब सवाल यह है कि किसी जरूरतमंद को किसानों दुवारा दूध दे भी दिया जाता तो किया किसानों का विरोध प्रदशर्न सफ़ल हो जाता है? शायद नहीं, क्योंकि किसानों का उदेश्य तो सरकार पर दबाव बनाने का था। इस प्रकार वह सरकार पर दबाव नहीं बना सकते थे। लेकिन इस काम में कितनी सफलता मिली? इस सवाल पर विचार करने की जरूरत है।

किसान संगठनों ने अन्य मांगों के साथ तीन मुख्य मांगों को ले कर देश भर में विरोधपर प्रदर्शन किए थे: पहला के सरकार उन का पूरा ऋण माफ़ करे, दूसरा स्वामीनाथन रिपोर्ट (2004-2006) को लागु करे, तीसरा सरकार किसानों/ मजदूरों को भी चौथा दर्जा कर्मचारी की आय के समान मुनाफा देना सुनिश्चित करे। अब देखा जाए तो यह सभी मागें केंद्र व राज्य सरकारों के साथ सीधे जुड़ी हुई है। लेकिन अनजाने में किसानों का विरोध शहरी मध्यम वर्ग पर भारी रहा और सरकार पर सीधा दबाव नहीँ बन सका। उल्टा इस विरोध ने शहरी मध्य वर्ग और किसानों में एक नये विभाजन को पैदा कर दिया है और यह बात स्थापना के पक्ष में जाती है क्योंकि लोगों में विभाजन जितना गहरा होगा उनकी सता उतनी ही मजबूत होगी।

कई बड़े शहरों में अभी भी इस हड़ताल संकट मंडरा रहे है और जिस का बड़ा फ़ायदा पूंजीपतियों होगा क्योंकि हमारे देश में भी प्रसिद्ध सब्जी स्टोर हैं जिन पर इस हड़ताल का सीधा कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। उल्टा शहरी बाजारों में सब्जियों की कमी के चलते दामों में उछाल आने की संभावना निरंतर बनी हुई है।

अब किसान यूनियनों के लिए चिंतन मंथन का समय है के वह किस तरह से अपने आंदोलनों का निर्माण जिससे उसका असर आम लोगों पर न हो बल्कि सरकार पर उनका दबाव बने और आम लोग उनका सहयोग दें। जब कार्ल मार्क्स यह कहते हैं के ‘श्रमिक वर्ग अपने आप को एक वर्ग की तरह संगठन करे’ तो उनका अर्थ सम्पूर्ण श्रमिक वर्गों से है। इस विचार को किसानों की हड़ताल के साथ जोड़ कर देखें तो यह समझ आता है के जिन लोगों से किसानों का टकराव हुआ था वह भी श्रमिक वर्ग में ही आते हैं। देखा जाए तो टकराव श्रमिक वर्ग की इंटरनल कनफ्लिक्ट को ही सामने लता है। दूसरा विकल्प यह बनता था के किसान सरकार के विरुद्ध एक लम्बा संघर्ष करते जैसे महाराष्ट्र में हुआ था हालांकि सरकार पर महाराष्ट्र किसान आंदोलन का एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा है लेकिन इस आंदोलन अनदोलन से जुड़े बहुत से मुद्दों अभी तक भी हल नहीं हुए और निकट भविष्य में हल होते दिखाई भी नहीं देते। तो इस स्थिति में किसानों के पास तीसरा विकल्प यह बनता है कि वह अदालतों के जरिए अपना हक़ ले। लेकिन स्थिति की विडंबना यह है कि किसान संगठनों ने व्यावहारिक में ऐसा किया भी है जिस की एक मिसाल यह है कि स्वामीनाथन रिपोर्ट लागू कारवाने के लिए 2014 में सुप्रीम कोर्ट एक जनहित पिटीशन (पी.आई.एल.) डाली थी जिस पर सुनवाई चल रही है और मामला अभी भी विचाराधीन है। तो इस स्थिति में बड़ा सवाल है कि किसान अपना आंदोलन केसे करें किसानों के संगठनों के लिए इस वक़्त मंथन करने का समय है।

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सतिंदरपाल सिंह बावा
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