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निजी अस्पतालों की लूट कब तक?

देश के निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हालात बदतर एवं चिन्तनीय है ही, लेकिन ये लूटपाट एवं धन उगाने के ऐसे अड्डे बन गये हैं जो अधिक परेशानी का सबब है। हमारे देश में जगह-जगह छोटे शहरों से लेकर प्रान्त की राजधानियों एवं एनसीआर तक में निजी अस्पतालों में मरीजों की लूट-खसोट, इलाज में कोताही और मनमानापन कोई नई बात नहीं है। विशेषतः देश के नामी निजी अस्पतालों की श्रृंखला में इलाज एवं जांच परीक्षण के नाम पर जिस तरह से लाखों रूपये वसूले जा रहे हैं, वह तो इलाज के नाम पर जीवन की बजाय जान लेने के माध्यम बने हुए हैं। इसका ताजा उदाहरण है गुरुग्राम का नामी अस्पताल फोर्टिस और उसका सात साल की एक डेंगू-पीड़ित बच्ची के इलाज का सोलह लाख रुपए का बिल। इतनी बढ़ी राशि लेकर भी पीड़ित बच्ची की जान नहीं ंबचायी जा सकी। ऐसे महंगे इलाज की फिर क्या उपयोगिता? क्यों इस तरह की सरेआम लूटपाट इलाज के नाम पर हो रही है? लगता है कानून एवं प्रशासन नाम की चीज नहीं है, या उनकी मिलीभगत से जीवन के नाम पर मौत का व्यापार खुलेआम हो रहा है।


डेंगू पीड़ित नन्हीं बच्ची की मौत निजी अस्पतालों पर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण चिकित्सा व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है। इलाज के नाम पर आम आदमी जाये तो कहां जाये? सरकारी अस्पतालों में मौत से जूझ रहे रोगी के लिये कोई जगह नहीं है तो उसके लिये निजी अस्पतालों में शरण जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं? निजी अस्पतालों ने लूट-खसोट मचा रखी है। यहां तक कि इलाज के बगैर भी बिल वसूलने की घटनाएं नजर आती है। मरीजों पर महंगा टेस्ट करवाने के लिए दबाव डाला जाता है। बगैर जरूरत मरीज को वेंटिलेशन व ऑपरेशन थियेटर में डाल दिया जाता है। मरीजों को उनके मामले का विवरण नहीं दिया जाता है। तय पैकेज पर एक्सट्रा पैकेज लेने के मामले भी सामने आये हैंै। इससे बड़ा अनैतिक काम और नहीं हो सकता है। नर्सिंग होम एवं निजी अस्पताल वालों को यह ध्यान में रखना होगा कि चिकित्सा-सेवा उनके लिये ईंट व लकड़ी का व्यवसाय नहीं, बल्कि जिंदगी बचाने का काम है। सेवा को कभी बेचा नहीं जाता। मरीजों को मानवीय दृष्टि से देखना चाहिए। अस्पताल कल-कारखाना नहीं, यह सेवा-मूलक उपक्रम है। देखना यह है कि सरकार इसे मिशन बनाती है या व्यवसाय?

फोर्टिस में एक तरफ मरीज के परिवार से अतिशयोक्तिपूर्ण एवं आश्चर्य में डाल देने वाला बिल वसूला गया, और दूसरी तरफ, उपचार मानकों का पालन भी नहीं किया गया। गुरुग्राम की यह घटना कोई पहली या अकेली घटना नहीं है, इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं रोज-ब-रोज निजी अस्पतालों में दोहराई जाती हैं। यह वाकया निजी अस्पतालों की बदनियति की मिसाल है। लेकिन सरकार, प्रशासन, प्रभावशाली लोगों के संरक्षण की वजह से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। यहां तक कि अपने को स्वतंत्र कहने वाला मीडिया भी निजी अस्पतालों की अनियमितताओं और कमियों को दिखाने-बताने से परहेज ही करता है। निजी अस्पतालों में मरीजों के इलाज में लापरवाही व मनमानी ही नहीं की जाती, बल्कि मरीजों से अधिक बिल वसूलने के लिये हिंसक एवं अराजकता अपनाई जाती है। यहां तक कि पैसे नहीं दिये जाने पर अस्पताल प्रबंधन परिजनों को शव तक ले जाने नहीं देता है, अधिकांश मामलों में मरीज किसी दूसरे या सरकारी अस्तपाल में जाना चाहे तो भी अनेक बाधाएं खड़ी कर दी जाती है। मरीज के परिजनों के सामने इधर कुआं उधर खायी की स्थिति बन जाती है।

आम आदमी की दो मूलभूत जरूरतें हैं शिक्षा एवं स्वास्थ्य। दोनों की उपलब्धता कराना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन आजादी के सात दशक में पहुंचते-पहुंचते सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से मंुह मोड़ने लगी है और इसका फायदा निजी अस्पतालों एवं निजी स्कूलों के द्वारा उठाया जा रहा है। अधिकांश निजी अस्पतालों एवं निजी स्कूलों का स्वामित्व राजनीतिकों, पूंजीपतियों और अन्य ताकतवर लोगों के पास होने से उनके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत किसी सामान्य व्यक्ति की कैसे हो सकती है? फोर्टिस अस्पताल के ताजा मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने जरूर संज्ञान लिया है और उसने सभी प्रदेशों और केंद्रशासित राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र भेज कर अस्पतालों पर कड़ी नजर रखने के निर्देश दिए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव की ओर से जारी पत्र में कहा गया है कि चिकित्सीय संस्थाओं द्वारा की जाने वाली गड़बड़ियों से न केवल मरीज की स्थिति बल्कि स्वास्थ्य देखभाल और उपचार लागत में जवाबदेही को लेकर भी चिंताएं पैदा होती हैं। पत्र में क्लीनिकल इस्टेब्लिस्मेंट रजिस्ट्रेशन एवं रेग्यूलेशन एक्ट, 2010 के क्रियान्वयन सुनिश्चित करने को कहा गया है। सवाल है कि यह पत्र कोरा दिखावा बन कर रह जायेगा या समस्या के समाधान की दिशा में कारगर साबित होगा? स्वास्थ्य मंत्रालय को ऐसी चिंता तभी क्यों सताती है, जब इस तरह की शर्मनाक एवं गैरकानूनी घटनाएं सुर्खियों में आ जाती है? जबकि बढ़ा-चढ़ा कर बिल बनाना निजी अस्पतालों का रोज का धंधा है। क्या मंत्रालय इससे अनजान रहा है?

गुरुग्राम की घटना को एक सबक के तौर पर लेने की आवश्यकता है और ताकि निजी अस्पतालों समेत सभी महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य संस्थानों में गलत कार्य करने पर कड़ी कार्रवाई तय की जाने की स्थितियां बन सके। लेकिन विडम्बनापूर्ण है कि देश में छोटे-छोटे अपराध एवं गैरकानूनी काम करने वाले के लिये तो सख्त कानून हैं और सरकार भी जागरूक है, लेकिन इन बड़े एवं सभ्य कहे जाने वाले लूटेरों के लिये सन्नाटा है। ये परिस्थितियां गुनाह करने वाले अस्पतालों के पक्ष में जाती हैं, जिसका फायदा वे उठाते रहते हैं। ऐसे में कानूनों और नियमों का पालन कौन कराएगा? सैकड़ों-हजारों मामलों में इक्का-दुक्का लोग ही न्यायालय का दरवाजा खटखटा पाते हैं। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, जिस तरह वे चिकित्सा-व्यवस्था को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ रही हैं और स्वास्थ्य बजट में कटौती कर रही हैं, उसी का नतीजा है कि निजी अस्पताल अनियंत्रित होते जा रहे हैं। वे सोचते हैं कि सरकारें कुछ भी करें, मरीजों के पास उनकी पास आने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। सरकार अगर सचमुच गंभीर है और चाहती है कि फोर्टिस जैसी घटना फिर न दोहराई जाए तो उसे चाहिए कि ऐसी व्यवस्था और वातावरण तैयार करे, जिसमें कोई अस्पताल किसी भी मरीज को गैरकानूनी तरीकें से लूटने का साहस न कर सके।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नया भारत निर्मित कर रहे हैं। बड़ी-बड़ी बातें हो रही है, लेकिन भारत अपने हाथों से स्वास्थ्य के नाम पर आम आदमी की भाग्यलिपि में कौन-सा रंग भर रहा है, यह हमें आज पढ़ना है। भारत का सपना है आजाद देश में उन्नत एवं सर्वसुलभ चिकित्सा। लेकिन निजी अस्पतालों की बीतते कालखण्ड की कुछ वीभत्स एवं डरावनी घटनाओं ने विनाश के चित्र उकेरे हंै, जो ज्यादा भयावह एवं चिन्ता का कारण है। तमाम निजी अस्पतालों के इन तथ्यों की सच्चाई स्वास्थ्य की दिनोंदिन बिगड़ती दशा और दिशा को प्रस्तुत करती है। इन निजी अस्पतालों के खिलाफ शिकायतों के अंबार हंै, लेकिन इनके निस्तारण की कोई पारदर्शी और निष्पक्ष व्यवस्था नहीं है। सवाल है कि मरीज अपना इलाज कराये या अपनी शिकायत लेकर दर-दर भटके? सवाल यह भी है अगर सरकार कुछ कारगर प्रयास कर पाती तो हालात इतने बदतर तो न होते। क्यों नहीं निजी अस्पतालों की इन ज्यादतियों की चर्चा प्रमुखता से की जाती? कब तक स्वास्थ्य को चैपट होते हुए एवं एक गौरखधंधा बनते हुए हम देखते रहेंगे? आखिर ये बुनियादी सवाल क्यों नहीं सरकार की नींद को उडा रहे हैं? यह केवल किसी एक प्रान्त के मरीजों की समस्या नहीं, पूरे देश का यह दर्द है। लेकिन परिदृश्य ऐसा भी नहीं है जिसमें उम्मीद की कोई किरण नजर न आती हो। मोदी सरकार की कोशिशों और आम मरीजों की जागरूकता के कारण धीरे धीरे ही सही, मगर इन स्थितियों के खिलाफ एक वातावरण बना है। यह बदलाव शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के आंकड़ों में यदि दिखाई नहीं देगा तो नया भारत एक नारा भर बन कर रह जायेगा।

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(ललित गर्ग)
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